economic crisisजो विश्व आर्थिक संकट 2007-08 में शुरू हुआ था और अब तक जारी ही है। उसका असर काफी अर्से तक भारतीय अर्थव्यवस्था पर दिखाई न देने के पीछे तीन मुख्य कारक काम कर रहे थे। बहरहाल, ये तीनों प्रतिसंतुलनकारी कारकों का असर अब खत्म हो रहा है और इसके चलते सरकार के पास अब चालू संकट से निपटने का कोई रास्ता ही नहीं रह गया है। उल्टे अब यह सरकार जितने हाथ-पांव मारेगी, उससे संकट और बढऩे ही जा रहा है।

पहला प्रति संतुलनारी कारक था उक्त संकट के फूटने के फौरन बाद शुरू किया गया राजकोषीय उत्प्रेरण, जो चीन जितना बड़ा तो और कहीं नहीं था फिर भी हर जगह उसका मंदी-विरोधी प्रभाव जरूर पड़ रहा था। लेकिन, राजकोषीय उत्प्रेरण का अर्थ था, सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में राजकोषीय घाटे के आकार का बढ़ना। इसका विरोध वित्तीय पूंजी द्वारा किया जा रहा था, जो राजकोषीय घाटों को नापंसद करती है क्योंकि ये घाटे निहितार्थत: पूंजी की और खासतौर पर वित्तीय पूंजी की सामाजिक वैधता पर सवाल खड़े करते हैं।

ये घाटे जनमानस में अनिवार्यत: यह सवाल पैदा करते हैं कि अगर यह व्यवस्था शासन के खासे बड़े हस्तक्षेप के बिना चल ही नहीं सकती है, तो निजी पूंजी पर आधारित व्यवस्था की जरूरत ही क्या है? क्यों न बढ़ते पैमाने पर खुद राज्य ही उद्योगों को संभाले, जिससे निजी पूंजी को पूरी तरह से ही प्रतिस्थापित किया जा सके? वित्तीय पूंजी के मामले में यह सवाल खासतौर पर जोर से उठता है, जिसकी भूमिका शुद्घ रूप से भाड़ा वसूलने की होती है और जिसके लिए खुद केन्स ने, ‘भूमिकाहीन निवेशकों’ (फंक्शनलैस इन्वेस्टर्स) की संज्ञा का प्रयोग किया था।

इसीलिए, पूंजी और खासतौर पर वित्तीय पूंजी हमेशा इसके लिए उत्सुक रहती है कि इस व्यवस्था की स्वत:स्फूर्तता को बनाए रखा जाए और अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंकने के लिए किए जाने वाले सभी हस्तक्षेपों को, पूंजी के लिए और ज्यादा ‘‘प्रोत्साहन’’ देने के जरिए, पूंजी के स्वार्थों को आगे बढ़ाने के माध्यम से संचालित किया जाए, न कि पूंजी से स्वतंत्र रूप से राज्य या शासन द्वारा खुद कोई भूमिका अदा किए जाने के माध्यम से।

इसीलिए, पूंजीपतियों के पक्ष में सीधे हस्तांतरणों के अलावा शासन के खर्चों में किसी भी बढ़ोतरी को, जबकि राजकोषीय घाटे सामान्यत: इस तरह की बढ़ोतरी से ही जुड़े होते हैं, वित्तीय पूंजी हमेशा ही नापसंद करती है। इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि भारत में ‘‘राजकोषीय उत्प्रेरण’’ के पैकेज की नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों तथा वित्तीय पूंजी के प्रवक्ताओं ने तीखी आलोचना की थी।

उन्होंने बड़े स्वार्थपूर्ण तरीके से अर्थव्यवस्था की समूची समस्या को ही ‘‘राजकोषीय शाहखर्ची’’ का मामला बनाकर पेश किया था और उसकी जगह पर ‘‘राजकोषीय जिम्मेदारी’’ का पालन किए जाने की मांग उठायी थी। इसी के चलते अरुण जेटली के बजटों में सरकारी खर्चो में कटौतियां लागू की गयी हैं, मनरेगा में कटौतियां जिसकी अभिव्यक्तियों में से एक हैं। इन कटौतियों ने उस पहले कारक को दृश्य से बाहर कर दिया है, जो मंदी से लडऩे के लिए सहारा मुहैया कराता रहा था।

मंदी के खिलाफ दूसरा प्रतिसंतुलनकारी कारक था, परिसंपत्तियों के मूल्य का ‘‘बुलबुला’’। इसमें शेयर बाजार का ‘‘बुलबुला’’ खास था। भारत में शेयर बाजार का बुलबुला, अमरीका में आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद भी बना रहा था। वास्तव में यह भी कहा जा सकता है कि अमरीकी ‘‘बुलबुले’’ के बैठने ने, दुनिया में अन्यत्र ऐसे ही बुलबुलों के बनने या बढऩे के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा की थीं। जाहिर है कि यही भारत के मामले में भी सच था।

ऐसा होने के दो कारण रहे। पहला तो यही कि वित्तीय पूंजी के लिए अब खुद अमरीका में अल्पावधि सट्टाबाजाराना फायदों के जरिए तगड़ी कमाई के मौके नहीं रह गए थे और इस वजह से उसने तगड़े मुनाफों की तलाश में इधर-उधर भागना शुरू कर दिया था और इसने ही अन्यत्र ‘‘बुलबुले’’ पैदा कर दिए थे। दूसरे, अमरीका में आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद, वास्तविक अर्थव्यवस्था में जो मंदी आयी थी उसके बाद, वहां ब्याज की दरों में नाटकीय कमी आयी थी, जिसके क्रम में अल्पावधि और दीर्घावधि, दोनों ही तरह के ऋणों की दरें शून्य के आस-पास पहुंच गयी थीं।

इसने वित्तीय पूंजी के लिए अतिरिक्त कारण पैदा किया है कि मुनाफे कमाने के मौकों के लिए अमरीका से बाहर जाए और अमरीका से वित्तीय पूंजी के इसी पलायन ने, भारत समेत अन्यत्र बुलबुले पैदा किए हैं। परिसंपत्ति मूल्य के किसी भी बुलबुले का असर वास्तविक अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, जहां इसके चलते सकल मांग का स्तर बढ़ रहा होता है। इस तरह के बुलबुले के चलते परिसंपत्तियों में जो आभासी बढ़ोतरी होती है, उससे पड़ने वाले संप्रदा प्रभाव से उपभोग में बढ़ोतरी हो रही होती है। दूसरी ओर, जिस हद तक वित्तीय संपदा के दाम बढ़ते हैं, निवेश करना चाहने वालों के लिए ऋण की लागत घटती है और यह चीज निवेश के लिए उत्प्ररेण का काम करती है।

भारतीय अर्थव्यवस्था भी इस आम परिघटना का अपवाद नहीं थी। यहां भी परिसंपत्ति मूल्य बुलबुले ने एक मंदीविरोधी कारक का काम किया है। बहरहाल, अब इस कारक का भी अंत हो चुका है। जो सेनसैक्स, रिजर्व बैंक द्वारा ‘‘रेपो रेट’’ में कटौती किए जाने के बाद, 4 मार्च 2014 को 3000 अंक की रेखा को लांघ गया था, अगस्त में भारी गिरावट के साथ नीचे आ गिरा। उसके बाद से शेयर बाजार में जो बहाली हुई भी थी, पिछले कुछ अर्से उसे और भी पलट दिया गया है। वास्तव में 11 फरवरी 2016 को सेनसेक्स में 800 अंक (3।4 फीसद) की गिरावट दर्ज हुई।

बाजार विश्लेषकों की भविष्यवाणी है कि शेयर बाजार का लुढक़ना अभी जारी रहेगा और आने वाले दिनों में सेनसेक्स 2000 अंक से नीचे भी जा सकता है। शेयर बाजार की यह गिरावट एक हद तक एक विश्वव्यापी रुझान को अभिव्यक्त करती है। विश्व पूंजीवादी संकट का जारी रहना, उस चीज को पैदा भी कर रहा है और उसके असर से बढ़ भी रहा है, जिसे ‘‘मंदड़ियापन’’ कहते हैं। इससे आशय संपत्तिधारकों के अपनी संपत्तियां, वित्तीय परिसंपत्तियों के बजाए, नकदी के रूप में ही रखने के लिए उत्सुक होने से है।

मिसाल के तौर पर 11 फरवरी की गिरावट, वास्तव में एक विश्वव्यापी परिघटना थी। लेकिन, इसके ऊपर से हाल ही में अमरीका के केंद्रीय बैंक, फैडरल रिजर्व बोर्ड ने अमरीकी ब्याज दरों में जो बढ़ोतरी शुरू करायी है, उसका नतीजा यह हुआ कि अमरीका अब बाकी सारी दुनिया से अपने डालर वापस खींच रहा है। इस तरह डालर के अमरीका से बाहर पलायन को, जिसका हम पीछे जिक्र कर आए हैं, हतोत्साहित किया जा रहा है। इसका भारत के शेयर बाजारों पर प्रतिकूल असर पड़ा है जबकि पहले अमरीका में ब्याज की घटी हुई दरों ने भारत के शेयर बाजारों की मदद की थी।

इस तरह, विश्व पूंजीवादी संकट के सामने भारतीय अर्थव्यवस्था के तथाकथित ‘‘जीवट’’ के पीछे सक्रिय रहा दूसरा कारक भी अब बेअसर हो गया है। अब हम तीसरे कारक पर आते हैं, जिस पर आम तौर पर कोई चर्चा ही नहीं होती है। यह कारक इस तथ्य से जुड़ा हुआ है कि इस दौर में सरकार ढांचागत क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेशों को प्रोत्साहित कर रही थी। चूंकि उन स्वत:स्पष्ट कारणों से जिनका जिक्र हम पहले कर आए हैं,

ढांचागत क्षेत्र के इन निवेशों के लिए एक ओर तो सरकार राजकोषीय घाटे के रास्ते से वित्त नहीं जुटा सकती थी और दूसरी ओर वह धनी तबकों पर कर नहीं बढ़ा सकती थी क्योंकि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई भी कदम काफी मात्रा में पूंजी पलायन भडक़ा सकता था। इसलिए, ढांचागत क्षेत्र में सरकारी निवेशों में बढ़ोतरी के मामले में तो सरकार के हाथ बंधे हुए थे। इसलिए, ज्यादा जोर ढांचागत क्षेत्र में निजी निवेशों को बढ़ावा देने पर रहा और इसके लिए सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों से ऐसी निजी परियोजनाओं के लिए ऋण दिलाने का पूरा-पूरा बंदोबस्त किया।

लेकिन, निवेश-संचालित वृद्घि की रणनीति के साथ, जिसमें ढांचागत निवेश से संचालित वृद्धि भी शामिल है, समस्या यह है कि इस निवेश से मांग में बढ़ोतरी तो होती है, लेकिन एक स्थिति के बाद इस तरह के निवेश से उत्पादन क्षमता में भी तो बढ़ोतरी हो रही होती है। मिसाल के तौर पर जब कोई कारखाना बनाया जा रहा होता है, उसके निर्माण पर होने वाले खर्च से बेशक मांग में बढ़ोतरी हो रही होती है, लेकिन अंतत: तो इससे उत्पादन क्षमता में एक फैक्ट्री जितनी बढ़ोतरी हो जाती है। अब अगर मांग में लगातार बढ़ोतरी नहीं हो रही हो, तो इस तरह से निर्मित अतिरिक्त उत्पादन क्षमता बिना उपयोग के पड़ी रहेगी।

ऐसा होगा तो संबंधित परियोजना की निवेश पर अर्जन की दर नीचे चली जाएगी। यह दर घटकर उस हद तक भी पहुंच सकती है, जहां संबंधित उत्पादन क्षमता के निर्माण के लिए उठाए गए ऋणों का ब्याज चुकाना भी मुश्किल हो सकता है, फिर इन ऋणों के चुकाए जाने की तो बात ही कहां उठती है। इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि पिछले कुछ दिनों के अखबार इस आशय की खबरों से पटे पड़े हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के हानि-लाभ के खातों में, डूबे हुए ऋणों का अनुपात बढ़ता ही जा रहा है। वास्तव में इन बैंकों से कार्पोरेट घरानों को और खासतौर पर ढांचागत क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए ऋण दिलाया गया था।

अब इनमें से अनेक परियोजनाएं, जो कि पूरी भी हो चुकी हैं, या तो अनुपयोगी पड़ी हुई हैं या फिर उनकी कमाई बहुत कम है और इसके चलते ऋणों की अदायगी एक बड़ी समस्या बन गयी है। इस प्रक्रिया में खुद सार्वजनिक बैंकों की हालत खस्ता हो गयी है। इसलिए, मंदी से निपटने का यह रास्ता भी एक तरह से बंद ही हो गया है। उक्त तीनों कारक आपस में भी जुड़े हुए हैं, जिसका अर्थ यह है कि उनका बैठना, एक-दूसरे को बैठाने का भी काम करता है। मिसाल के तौर पर अगर बैंकों की हालत खस्ता होती है, तो इससे परिसंपत्ति मूल्य बुलबुले के बैठने से जुड़ा संकट और भी बढ़ जाना है।

मिसाल के तौर पर सेनसेक्स में हाल में आयी गिरावट में, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मुनाफों में भारी गिरावट की असर का खासतौर पर हाथ रहा है। इसी प्रकार, परिसंपत्ति मूल्य के बुलबुले के बैठने से, अनेक कंपनियों की वित्तीय स्थिति नाजुक हो गयी है और इससे उनकी बैंकों के ऋण चुकाने की सामथ्र्य पर चोट पड़ती है। यह बैंकों को और भी वेध्य बना देता है। इस सब से निकलकर आने वाला मुख्य नुक्ता यही है कि विश्व पूंजीवादी संकट के आने के बाद भी, अब तक जिन सहारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को थामा हुआ था, एक-एक कर बैठ गए हैं।

इसीलिए, अब अर्थव्यस्था गतिरोध तथा मंदी की ओर खिसक रही है। इस सिलसिले में यह उल्लेखनीय है कि 2015 के दिसंबर में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, 2014 के दिसंबर के इसी सूचकांक के मुकाबले, 1।3 फीसद नीचे था। बहरहाल, इस संकट के सामने मोदी सरकार ने ‘‘मेड इन इंडिया’’ कैंपेन छेड़ा है। इस अभियान के पीछे ख्याल यही है कि विदेशी पूंजी को इसके लिए लुभाया जाए कि वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करने के लिए अपने कारखाने भारत में लगाए। इसी को ध्यान में रखते हुए विदेशी पूंजी के लिए एक से बढक़र एक रियायतें दी जा रही हैं और प्रलोभन दिए जा रहे हैं।

इसीलिए, उसी विदेशी पूंजी के सामने भोंडे तरीके से घुटने टेक दिए गए हैं, जिसे भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व की स्थिति से उखाडऩा ही, हमारे उपनिवेशविरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य था। यह भी याद रखना चाहिए कि घुटने टेकने का यह काम उन लोगों द्वारा किया जा रहा है, दूसरे हरेक को ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ बताते हैं और उन्हें राजद्रोह के कानून से लेकर, शारीरिक हमलों तक का निशाना बना रहे हैं। लेकिन, यह घेटने टेकना भी न सिर्फ हमारे देश की आर्थिक स्वतंत्रता को खोखला करता है बल्कि इसका अपने उद्देश्य में विफल रहना भी तय है।

जैसा कि हम पीछे देख आए हैं, दुनिया भर में ‘‘तेजडिय़ापन’’ बढ़ा है। संपत्तिधारक अब अपनी संपत्ति वित्तीय परिसंपत्तियों के बजाए धन के रूप में रखने के लिए ही ज्यादा उत्सुक हैं। इसमें निहितार्थत भौतिक परिसंपत्तियों के रूप में अपना धन रखने के प्रति अनुत्सुकता भी शामिल है क्योंकि वित्तीय परिसंपत्तियां अंतत: तो भौतिक परिसंपत्तियों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष दावा ही होती हैं। इसलिए, हर तरफ निवेश में गिरावट हुई है और इसके साथ ही पूंजीमाल उत्पादन क्षेत्र की वृद्घि दर भी नीचे गयी है।

भारत में इस समय समग्रता में जो नकारात्मक औद्योगिक वृद्घि दर चल रही है, उसमें सबसे ज्यादा ऋणात्मक आंकड़ा पूंजी माल क्षेत्र का ही है। अमरीका तक में जहां उपभोक्ता माल क्षेत्र में क्षमता उपयोग का स्तर कुछ बेहतर रहा है, पूंजी माल क्षेत्र अब भी अनुपयोगी क्षमता के बड़े अनुपात के बोझ के नीचे दबा हुआ है। जब समग्रता में दुनिया भर में निवेश गिरावट पर हैं, यह उम्मीद करना कि भारत बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश खींच पाएगा, दिवास्वप्न देखने के सिवा और कुछ नहीं है।

संकट से उबरने के लिए जरूरत इसकी है कि घरेलू उपभोग को और खासतौर पर गरीब तबकों के उपभोग को उत्प्रेरित किया जाए। इसका एक तरीका तो यह हो सकता है कि सीधे-सीधे अमीरों से गरीबों की ओर आय का पुनर्वितरण किया जाए। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि इसके लिए राजकोषीय उपाय किए जाएं यानी अमीरों से कर वसूली बढ़ायी जाए तथा इससे मिलने वाले अतिरिक्त संसाधनों का उपयोग गरीबों हक में खर्च करने के लिए किया जाए, जिससे गरीबों को नकदी के रूप में भी लाभ पहुंचाया जा सकता है और वस्तु के रूप में भी, जैसे मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य रक्षा सुविधा आदि।

लेकिन, यह तो तभी किया जा सकता है जब सरकार खुद को विश्वीकृत वित्तीय पूंजी की गुलामी से आजाद करे। इसके लिए तो साम्राज्यवादी विश्वीकरण से मुक्त होना होगा और नवउदारवादी नीतियों से छुट्टी पानी होगी।प्रधानमंत्री द्वारा छेड़ा गया, ‘‘मेक इन इंडिया’’ कैंपेन इससे ठीक उल्टी दिशा में जाता है। इसके चक्कर में सरकार अपने राजस्व संसाधनों का और बड़ा हिस्सा छोड़ रहा होगा, जिससे गरीबों के हक में संसाधनों का हस्तांतरण मौजूदा स्तर से भी नीचे चला जाएगा। यह मौजूदा आर्थिक संकट को और बढ़ाने का ही काम करेगा।

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