श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान दिवस आज, राष्ट्र ने किया याद
नई दिल्ली,। भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी का आज बलिदान दिवस है । राष्ट्र उन्हें एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में याद करता है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद करते हुए कहा कि सच्चे अर्थों में वे मानवता के उपासक और सिद्धांतों के पक्के इंसान थे ।भारतीय इतिहास में उनकी छवि एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले ऐसे इंसान की है, जो अपनी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं । संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा था। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि “राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है ।”डॉ. मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को एक प्रसिद्ध बंगाली परिवार में हुआ था । उनकी माता का नाम जोगमाया देवी मुखर्जी था और पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने-माने व्यक्ति और कुशल अधिवक्ता थे । डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी से 1921 में पास की थी। इसके बाद उन्होंने 1923 में एम.ए. और 1924 में बी.एल. किया । वे 1923 मंे ही सीनेट के सदस्य बन गये थे । उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद कलकता उच्च न्यायालय में एडवोकेट के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। बाद में वे सन 1926 में ‘लिंकन्स इन’ में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड चले गए और 1927 में बैरिस्टर बन गए ।राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखण्डता के प्रति आगाध श्रद्धा ने ही डॉ. मुखर्जी को राजनीति के समर में झोंक दिया। अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो व राज करो’ की नीति ने ‘मुस्लिम लीग’ को स्थापित किया था । डॉ. मुखर्जी ने ‘हिन्दू महासभा’ का नेतृत्व ग्रहण कर इस नीति को ललकारा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके हिन्दू महासभा में शामिल होने का स्वागत किया, क्योंकि उनका मत था कि हिन्दू महासभा में मदन मोहन मालवीय जी के बाद किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन की जरूरत थी।महात्मा गांधी की हत्या के बाद डॉ. मुखर्जी चाहते थे कि हिन्दू महासभा को केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रखा जाए अथवा यह जनता की सेवा के लिए एक गैर-राजनीतिक निकाय के रूप में ही कार्य न करे। वे 23 नवम्बर, 1948 को इस मुद्दे पर इससे अलग हो गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में सम्मिलित किया था। डॉ. मुखर्जी ने लियाकत अली ख़ान के साथ दिल्ली समझौते के मुद्दे पर 6 अप्रैल, 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में ‘भारतीय जनसंघ’ की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीतकर आए। उन्होंने संसद के भीतर ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी’ बनायी, जिसमें 32 सदस्य लोक सभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा से थे, हालांकि अध्यक्ष द्वारा एक विपक्षी पार्टी के रूप में इसे मान्यता नहीं मिली।
जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई, 1953 में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया, क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट के समान एक परमिट लेना पडता था और डॉ. मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर चले गए थे, जहां उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। वहां गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए आज़ाद भारत में यह पहला बलिदान था ।