मैं इवेन्ट मैनेजमेन्ट कैसा कर सकता हूं, इसका उत्तर मुझे पहली बार कोल्हापुर, महाराष्ट्र में मिला। दरअसल जनवरी 2015 में भारत विकास संगम का चौथा महासम्मेलन यहां के सुप्रसिद्ध कनेरी मठ में आयोजित होने वाला था। मठ के बारे में एक किताब लिखने के उद्देश्य से मैं एक महीना पहले वहां चला गया था। यद्यपि औपचारिक रूप से मेरे ऊपर आयोजन की कोई जिम्मेदारी नहीं थी, लेकिन जाने-अनजाने मैं इसके विविध पहलुओं से इस प्रकार जुड़ता गया कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब कनेरी मठ के प्रमुख स्वामी काडसिद्धेश्वर जी ने मुझे पूरे आयोजन की तैयारियों का अनौपचारिक प्रमुख बना दिया। 8 दिन तक चले इस महासम्मेलन में 18 लाख लोगों की सहभागिता रही। यह मेरे जीवन का अद्वितीय अनुभव था। इसने मुझे विश्वास दिला दिया कि मैं इवेन्ट मैनेजमेंट अच्छा कर सकता हूं।

चाहे सामाजिक कार्य हो या व्यक्तिगत जीवन, दोनों में औपचारिक आयोजनों अर्थात इवेन्ट्स की बहुत बड़ी भूमिका होती है। लेकिन यदि इवेन्ट के पहले और बाद में ‘ऐक्टिविटी’ का सही मेल न हो तो इवेन्ट एक बोझ बन जाता है। उसका कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं मिल पाता। स्पष्ट कर दें कि इवेन्ट का स्वरूप औपचारिक होता है और यह रोज नहीं बल्कि कभी-कभार होता है। दूसरी ओर एक्टिविटी हर रोज होती है और इसका स्वरूप काफी हद तक अनौपचारिक होता है। जैसे एक पक्षी दो पंखों से उड़ान भरता है वैसे ही सामाजिक जीवन में इवेन्ट और एक्टिविटी के सही तालमेल से ही आगे बढ़ा जा सकता है।

जनवरी 2021 में हम ऐक्टिविटी के नाम पर कई चीजें कर रहे थे, लेकिन हमने कोई बड़ा इवेन्ट नहीं किया था। बहुत सोच-समझ कर इसके लिए हमने 14 और 26 जनवरी की तिथि तय की। पहली मकर संक्रांति और दूसरी गणतंत्र दिवस के रूप में पूरे देश में मनाई जाती है। तथापि इसकी छटा हर जगह अलग-अलग होती है। तिरहुतीपुर सहित आसपास के सभी गांवों में ये दोनों तिथियां बच्चों से जुड़ी हैं। 14 जनवरी को बच्चे दिल खोलकर खेलते हैं। इस दिन खेलने पर घर वालों से डांट नहीं पड़ती। इसी तरह 26 जनवरी का मतलब है स्कूलों में बच्चों के सामने झंडारोहण और फिर लड्डू वितरण। अभी हमारी प्राथमिकता में बच्चे ही थे। इसलिए ये दोनों आयोजन हमारे लिए एकदम सटीक थे।

सामाजिक कार्य करते हुए आम तौर पर इवेन्ट अर्थात कार्यक्रम के माध्यम से कार्यकर्ता, कोष और कार्यालय का पक्ष मजबूत किया जाता है। साथ ही वीआईपी अतिथियों को बुलाकर और मीडिया कवरेज के द्वारा अपनी बात दूर तक पहुंचाने की कोशिश भी होती है। मिशन तिरहुतीपुर की बात करें तो गांव के बाहर किसी तरह के प्रचार में हमारी रुचि नहीं थी। कार्यालय की हमें जरूरत तो थी, लेकिन अभी उसकी दूर-दूर तक संभावना नहीं थी। रही बात कोष की तो मैंने खुद ही तय किया था कि एक साल तक मैं मिशन के काम के लिए किसी से दान या चंदा नहीं मांगूंगा।

14 और 26 जनवरी के कार्यक्रम से हम मुख्यतः अपने कुछ कार्यकर्ता तैयार करना चाहते थे। इसी के साथ हमारी कोशिश थी कि गांव के सभी लोग मिशन और उसकी टीम से भलीभांति परिचित हो जाएं और गांव में सकारात्मक परिवर्तन का एक माहौल तैयार हो। कोल्हापुर की तुलना में तिरहुतीपुर का कार्यक्रम बहुत छोटा था। लेकिन यहां भी मैं वही तकनीक इस्तेमाल कर रहा था जिसका इस्तेमाल मैंने कोल्हापुर में किया था। इस नीति को जर्मन भाषा में Auftragstaktik कहते हैं। हिंदी में कहना हो तो इसे आउफ्रैग्सटैक्टिक कह सकते हैं।

आउफ्रैग्सटैक्टिक नीति टैक्टिकल लेवल पर काम करती है। इसके बहुत सारे आयाम हैं लेकिन यहां संक्षेप में कहना हो तो यह मुख्यतः सीनियर और जूनियर के बीच के संबंध को परिभाषित करती है। इसके अनुसार एक सीनियर से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जूनियर को काम बताने के साथ-साथ यह भी बताए कि वह काम क्यों करना है और अंततः उससे क्या हासिल होना है। यह सब जानने के बाद जूनियर की जिम्मेदारी होती है कि वह जमीनी हालात को देखते हुए सभी निर्णय स्वयं ले और तय करे कि काम को कैसे करना है। उसे बार-बार सीनियर से पूछने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

Auftragstaktik नीति का उल्लेख गोविन्दाचार्य जी ने मुझसे कभी नहीं किया लेकिन उनकी कार्यपद्धति में इसकी सभी विशेषताएं विद्यमान हैं। वे अपने कार्यकर्ताओं को आदेश और आज्ञापालन की बजाए साहस, पहल और प्रयोग की सीख देते हैं। अपने जूनियर के काम में टोका-टोकी उनका स्वभाव नहीं है। तिरहुतीपुर में धीरे-धीरे मैं वही कार्यसंस्कृति विकसित करना चाहता हूं, जिसे मैंने गोविन्दजी से सीखा है और जिसे Auftragstaktik नीति ने एक सैद्धांतिक आधार उपलब्ध करा दिया है।

तिरहुतीपुर में मेरे साथ दो जूनियर कार्यकर्ता थे- एक कमल नयन और दूसरे हर्षवर्धन। 14 और 26 जनवरी के इवेन्ट्स को लेकर मैंने दोनों को अच्छे से सारी बातें समझाई। इसके बाद तैयारी और आयोजन की पूरी कमान उन्हें सौंप कर मैं दूसरे कामों में व्यस्त हो गया। कार्यक्रम की तैयारी में मेरी भूमिका न के बराबर थी। उस दौरान मैं एक दिन भी तिरहुतीपुर नहीं जा सका। 17 जनवरी से 24 जनवरी तक मुझे दिल्ली रहना पड़ा। इसके बावजूद कार्यक्रम की तैयारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। सभी निर्णय उचित समय पर उचित तरीके से लिए जा रहे थे।

दोनों आयोजन हमने उसी डेढ़ एकड़ जमीन पर किया जहां आगे चलकर गोविन्दाचार्य जी का आवास और मिशन तिरहुतीपुर का कैंपस विकसित किया जाएगा। 14 जनवरी के कार्यक्रम के लिए हमारे सामने दो उद्देश्य थे। सबसे पहले तो हम यह चाहते थे कि गांव के लड़कों का रुझान क्रिकेट और कंचे जैसे निरर्थक खेलों से हटाकर दौड़ और कबड्डी जैसे सार्थक खेलों की ओर मोड़ा जाए। इसी के साथ हमारी कोशिश थी कि खेलकूद में लड़कियों की भी भागीदारी बढ़े। पहले उद्देश्य में हम आंशिक रूप से सफल रहे लेकिन दूसरे उद्देश्य में हमें बड़ी सफलता मिली। तिरहुतीपुर ही नहीं बल्कि आसपास के गांवों में भी यह पहली बार हुआ कि 14 जनवरी के दिन 100 से अधिक लड़कियों ने गांव भर के सामने दौड़ और कबड्डी जैसी प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

इसी तरह 26 जनवरी का कार्यक्रम भी विशेष रहा। अभी तक यह कार्यक्रम स्कूलों में होता आया था। पहली बार इसे गांव में किया गया। 14 जनवरी को जहां हमने खेलकूद पर ध्यान दिया था, वहीं 26 जनवरी को हमारा फोकस सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर था। गोविन्दाचार्य जी की उपस्थिति में यह कार्यक्रम लगभग 6 घंटे चला। मंच पर कुल 27 प्रकार के कार्यक्रम हुए जिसमें 19 नृत्य के कार्यक्रम थे। नृत्य के बीच-बीच में बच्चों ने भाषण, नाटक और गायन आदि के द्वारा भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।

केवल 12 दिन के अंतराल पर हुए इन दो बड़े आयोजनों ने गांव वालों के बीच मिशन तिरहुतीपुर को अच्छे से स्थापित कर दिया। अब मिशन तिरहुतीपुर का काम करने के लिए कमल और हर्ष के साथ कई और कार्यकर्ता तैयार हो गए थे। आयोजन में साथ काम करने से सबके बीच आपसी समझ और तालमेल भी बहुत अच्छा हो गया था। दोनों इवेन्ट्स की सफलता से मैं प्रशन्न था। लेकिन कुछ लोग दबी जबान में यह भी कह रहे थे कि बच्चों को खेलकूद और नाच-गाने का चस्का लगाने से क्या फायदा?

इस डायरी में फिलहाल इतना ही। आगे की बात डायरी के अगले अंक में, इसी दिन इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।

विमल कुमार सिंह

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