मनमोहन कुमार आर्य

                वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून का शरदुत्सव 20 अक्टूबर से आरम्भ होकर 24 अक्टूबर, 2021 को सोल्लास समाप्त हो गया। इन पांच दिवसों में आश्रम में आयोजित वृहद वेद पारायण यज्ञ में अथर्ववेद के मन्त्रों से आहुतियां दी गईं। यज्ञ के ब्रह्मा स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती, रोजड़ थे। यज्ञ में मन्त्रपाठ गुरुकुल पौंधा-देहरादून के दो ब्रह्मचारियों ने किया। कार्यक्रम में धर्म प्रेमी सज्जनों को स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी, साध्वी प्रज्ञा जी, पं. विष्णुमित्र वेदार्थी, पं. शैलेश मुनि सत्यार्थी जी, पं. सूरतराम शर्मा जी, प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री दिनेश पथिक जी, भजनोपदेशक श्री रुवेल सिंह जी, भजनोपदेशक श्री रमेश स्नेही जी, आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी, डा. श्रीमती सुखदा सोलंकी जी, डा. नवदीप कुमार एवं अन्य अनेक विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त रहा। पांच दिन योग, ध्यान, आसन, यज्ञ, भजन एवं वेदोपदेश होते रहे। दिनांक 24 अक्टूबर, 2021 को शरदुत्सव का समापन हुआ। हम इस दिवस के आयोजन का विवरण इससे पूर्व दो लेखों के द्वारा दे चुके हैं। आज शेष कार्यक्रम का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

                शरदुत्सव के समापन दिवस हुए मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा, आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी, आचार्य विष्णुमित्र वेदार्थी जी के सम्बोधनों सहित श्री दिनेश पथिक जी, पं. रूहेल सिंह आर्य तथा श्री के.एन. पाण्डेय जी के भजनों का विवरण हम पूर्व प्रस्तुत दो लेखों में दे चुके हैं। श्री पाण्डेय जी के भजन के बाद आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी का सम्बोधन हुआ। आचार्य आशीष जी ने अपने सम्बोधन के विषयराष्ट्रोत्थान में आर्यसमाज की प्रासंगिकता एवं योगदानकी चर्चा की।  उन्होंने पूछा कि हम आर्यसमाज की ओर से राष्ट्र के उत्थान में क्या योगदान दे सकते हैं? इसका स्वयं उत्तर देते हुए आचार्य जी ने कहा कि आर्यसमाज ने राष्ट्र की उन्नति में अनेक योगदान दिये हैं। हम सब भी योगदान दे रहे हैं। हम देश की उन्नति में क्या योगदान दे सकते हैं इसकी आचार्य जी ने अपने सम्बोधन में चर्चा की। आचार्य जी ने वेदोक्त वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था का उल्लेख किया और इस पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि वानप्रस्थ आश्रम का एक प्रमुख उद्देश्य मनुष्य द्वारा सत्कर्मों को करके अगले जन्म में पुनः मनुष्य-जीवन को प्राप्त होकर मुक्ति पथ पर कुछ आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न करना है। वानप्रस्थ आश्रम के मुख्य उद्देश्य को हमें समझने की आवश्यकता है। वह उद्देश्य यह है कि हमें जीवन के जिन विषयों का अनुभव है, अपने उस ज्ञान व अनुभव को हम समाज को निष्पक्ष व निस्वार्थ भाव से प्रदान करें। आचार्य जी ने कहा कि आपको ऐसा बहुत कुछ ज्ञान व अनुभव है जिससे राष्ट्र को लाभ हो सकता है। उस ज्ञान व अनुभव से युवा पीढ़ी को लाभ हो सकता है। अपने उस ज्ञान व अनुभवों को आप युवा पीढ़ी को प्रदान करें। आचार्य जी ने कहा कि आप घर में उस सोच के साथ रहिये कि मुझे जो आता है उसे मैं नई युवा पीढ़ी को सिखाऊंगा व बताऊंगा। आपका यह कार्य आपको समाज व इसकी युवा पीढ़ी से जोड़ेगा।

                आचार्य जी ने मनुष्य के भीतर संकोच की प्रवृत्ति होने की चर्चा की तथा उस पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा हम विचार निर्णय करें कि हमें जो कुछ आता है उसे हम दूसरों को सिखायें। छोटेछोटे कार्य करने से नई पीढ़ी आप से जुड़ेगी। आचार्य जी ने कहा कि आप गणित, हिन्दी अंग्रेजी के साथ बच्चों को सन्ध्या यज्ञ की बातें भी सिखा सकते हैं। हमें ऐसा व्यक्ति नहीं बनना है जिस प्रकार के व्यक्ति को हम पसन्द नहीं करते हैं। पहले अपनी नापसन्द के व्यक्ति से जुड़ियें और उनको सुधारने का कार्य करें। आशीष जी का सम्बोधन समाप्त होने के बाद कार्यक्रम का संचालन कर रहे श्री अनिल आर्य जी ने प्रोफेसर डा. नवदीप कुमार जी को वीर सावरकर पर सम्बोधन के लिए आमंत्रित किया।

                अपने सम्बोधन में डा. नवदीप कुमार जी ने कहा कि राष्ट्र में ऐसी परिस्थिति आई हुई है जिसमें उन देशभक्त नायकों पर मिथ्या आरोप लगाये जा रहे हैं जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पण किया है। डा. नवदीप कुमार जी ने बताया कि रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह जी ने एक पुस्तक के विमोचन में कहा था कि गांधी जी के कहने से वीर सावरकर जी ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। इस बात का देश के कथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा विरोध किया गया। इसके विरोध में यूट्यूब पर सावरकर जी के विरोधियों ने अनेक वीडियों डाली हैं। डा. नवदीप कुमार जी ने कहा कि गांधी और सावरकर जी में मतभेद था मनभेद नहीं था। इसके कुछ उदाहरण विद्वान वक्ता डा. नवदीप कुमार जी ने अपने सम्बोधन में प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि एक बार वीर सावरकर जी का मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी पर एक भाषण सुनकर गांधी जी ने कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में भगवान राम पर उससे अधिक सुन्दर व प्रभावशाली व्याख्यान नहीं सुना। अपने व्याख्यान में डा. नवदीप कुमार जी वीर सावरकर जी के देश की आजादी में महनीय योगदान की चर्चा की और उन्हें राष्ट्र का वन्दीय नायक बताया। डा. नवदीप कुमार जी के व्याख्यान के बाद दिल्ली से पधारी श्रीमती प्रवीण आर्या जी ने एक गीत सुनाया। गीत के बोल थे ‘कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं बाद अमृत पिलाने से क्या फायदा।’ इस गीत ने सभागार में उपस्थित श्रोताओं का मन मोह लिया। इस गीत के बाद आश्रम की ओर से स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, स्वामी मुक्तानन्द जी तथा साध्वी प्रज्ञा जी का सम्मान किया गया।

                आश्रम के उत्सव में वागेश्वर उत्तराखण्ड से आर्यनेता श्री गोविन्दसिंह भण्डारी जी 24 घण्टे की यात्रा करके पधारे थे। उनका भी उत्सव में सम्बोधन हुआ। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज ने राष्ट्रोन्नति में जो योगदान किया है उसे सभी जानते हैं। आर्यसमाज ने ही देश को आजादी का मूल मन्त्र दिया था। उन्होंने कहा कि दासता से भरा जीवन चाहे कितना ही सुखमय क्यों हो, वह सोने के पिंजड़े में रहने वाले पक्षी के समान ही होता है। श्री गोविन्द सिंह भण्डारी जी ने कहा कि स्त्री शिक्षा आर्यसमाज की ही देन है। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार दिया जो सदियों से बन्द था। विद्वान वक्ता ने कहा कि आर्यसमाज ने ही देश में सबसे पहले स्त्री शिक्षा की पाठशालायें व विद्यालय खोले थे। इसके बाद कीर्तिशेष महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी की सुपुत्री माता श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी का सम्मान किया गया। इस सम्मान के बाद साध्वी प्रज्ञा जी का सम्बोधन हुआ।

                साध्वी प्रज्ञा जी ने अपने सम्बोधन के आरम्भ में वेदमन्त्र अग्ने नए सुपथा राये अस्मान विश्वानि का पाठ कराया। उन्होंने कहा कि इस मन्त्र में प्रार्थना है कि ईश्वर हमें सुपथ पर ले चले। धन प्राप्ति के लिए ले चले जिसे हम निर्धनों व अभावग्रस्तों को बांट सकें। साध्वी जी ने कहा कि हम मनुष्यों में बुराईयां होती हैं जिन्हें हम दूर करना चाहते हैं। इसलिए हम परमात्मा से सब बुराईयों एवं कुटिल पापों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं। साध्वी प्रज्ञा जी ने कहा कि हममें अविद्या होने के कारण हम दोषों से युक्त होते हैं। जितना जितना हमारा ज्ञान शुद्ध होता जाता है उतना उतना हमारा कर्म व जीवन शुद्ध होता जाता है। साध्वी जी ने इस पर एक गुरु व शिष्य का व्यंगात्मक उदाहरण भी प्रस्तुत किया। उच्च कोटि की योग साधिका साध्वी प्रज्ञा जी ने कहा कि हमें अपने किये हुए कर्मों को प्रतिदिन स्मरण करना चाहिये और अपने दोषों व दुष्कर्मों को छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करने से ही हमारे दोष व पाप कर्म हमसे दूर हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि हम जो उपदेश करते हैं वह पूरा हमारे आचरण में भी होना चाहिये। माता प्रज्ञा जी ने सत्कर्म करने पर अपनी एक स्वरचित कविता सुनाई जिसकी प्रथम पंक्ति थी तन मन प्राण दिये ईश्वर ने बस उसका ही गुणगान करो।

                साध्वी प्रज्ञा जी के बाद डीएवी महाविद्यालय में संस्कृत की प्रोफेसर डा. सुखदा सोलंकी जी का सम्बोधन हुआ। श्रीमती सुखदा जी ने अपने सम्बोधन में श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी के गुणों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उन्हें महात्मा प्रेम प्रकाश शब्द से सम्बोधित किया जाना चाहिये। उन्होंने आगे कहा कि उनके पति भी सोलंकी जी कहलाना पसन्द नहीं करते। वह चाहते कि उन्हें लोग आर्य जी शब्द से सम्बोधित करें। डा. सुखदा सोलंकी जी ने कहा कि हमारा देश स्वतन्त्र है, यह आर्यसमाज की ही देन है। इसके बाद श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी का सम्बोधन हुआ। श्री सत्यार्थी जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने हमें निधि विधि के रूप में गोकरुणानिधि तथा संस्कारविधि ग्रन्थ दिए हैं। सत्यार्थी जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज ने देश को इसके प्राचीन गौरवपूर्ण नाम आर्यावर्त से परिचित कराया है। उन्होंने आगे कहा कि परमात्मा के अगणित नामों में एक नाम आर्य भी है। सत्यार्थी जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द ने हिन्दी को अपनाया और इसके प्रचार व उन्नति में अपना महान योगदान दिया। उनके व आर्यसमाज के प्रयासों से ही हिन्दी राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई है। ऋषि दयानन्द ने परमात्मा को सर्वव्यापक अर्थात् कण-कण में विद्यमान व व्यापक बताया है। अपने विचारों को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि केवल आर्यसमाज परमात्मा के अमरज्ञान वेद का सन्देश विश्व में प्रचारित व प्रसारित करता है।

                कार्यक्रम की समाप्ति से पूर्व सभा के अध्यक्ष 98 वर्षीय ऋषिभक्त श्री सुखवीर सिह वर्मा जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि आर्यसमाज सबके हित उन्नति की बात करता है। आर्यसमाज विश्व इसके सभी लोगों का कल्याण चाहता है। यह गुण संसार की किसी अन्य संस्था में नहीं मिलेगा। आर्यसमाज के अनुयायी विश्व के सब मनुष्यों प्राणियों के कल्याण के लिए यज्ञ करते हैं। यह भी ऋषि दयानन्द की ही देन एवं विशेषता है। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना में विश्वास रखता है। इस दिव्य भावना से युक्त अन्य कोई संस्था संसार में देखने को नहीं मिलती। वयोवृद्ध वर्मा जी ने कहा कि लोगों को जो रोग हो रहे हैं वह गोदुग्ध न मिलने व उसका सेवन न करने से हो रहे हैं। उन्होंने गोदुग्ध को अमृत बताया। उन्होंने कहा कि उन्होंने बचपन से ही अपने घर के शुद्ध गोदुग्ध का सेवन किया है। इसी कारण वह स्वस्थ हैं। वर्मा जी ने उत्सव में पधारे व उपस्थित सभी लोगों का धन्यवाद कर अपनी वाणी को विराम दिया। इसके बाद आसाम से कार्यक्रम में पधारे ऋषिभक्त श्री तेज नारायण आर्य जी का सम्बोधन भी हुआ।                 इसी के साथ पांच दिनों से चल रहे वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के शरदुत्सव का समापन हुआ। इसके बाद सभी आगन्तुकों ने मिलकर ऋषि लंगर प्राप्त किया। लंगर के बाद सब ऋषिभक्त अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गये। इस वर्ष के शरदुत्सव में लोगों की बड़ी संख्या में उपस्थिति से आश्रम के अधिकारी सन्तुष्ट व प्रसन्न दिखाई दिए। उत्सव की सभी व्यवस्थायें इसके अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने बहुत ही उत्तम की थी जिनसे आश्रम में पधारे सभी लोग सन्तुष्ट दिखाई दिए।

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