कठघरे में स्वयंसेवी संगठन – प्रमोद भार्गव

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प्रमोद भार्गव

देश के स्वयंसेवी संगठन एक बार फिर कठघरे में हैं। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की अध्यक्षता वाले डॉ. जाकिर हुसैन स्मृति न्यास के कामकाज पर एक साथ तीन स्तर पर सवाल उठे हैं। सबसे पहले भारत सरकार के न्यास की गड़बडि़यों का नोटिस लिया और उत्तर प्रदेश सरकार को जमीनी स्तर पर जांच का दायित्व सौंपा। उत्तर प्रदेश सरकार के विशेष सचिव रामराज सिंह ने जांच के दौरान दिए बयान में कहा कि उनके जाली हस्ताक्षर हैं। इसी सरकार के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी जेबी सिंह ने बयान दिया कि उनके नाम से जो शपथ-पत्र पेश किया गया है, वह झूठा है। जब फर्जीवाड़े के ये दस्तावेज टीवी समाचार चैनल आज तक पर आ गए तो उसने अपनी खोजी टीम विकलांग शिविर स्थलों पर पहंुचकर आॅपरेशन धृतराष्ट करा लिया। इसके प्रसारण के साथ ही एक साथ राजनीति, प्रशासन और समाज के स्तर पर हल्ला मच गया और कानून मंत्री के साथ उनका न्यास भी कठघरे में आ गया। अब इस मामले की नए सिरे से जांच के लिए आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा ने कमर कस ली है। परिणाम की प्रतीक्षा है। यहां उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के नेता और प्रधानमंत्री हमेशा एनजीओ की कार्य-प्रणालियों पर उंगली उठाते रहे हैं। प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह ने कुडनकुलम परमाणु विद्युत परियोजना का विरोध करने वाले लोगों पर आरोप लगाया था कि इन आंदोलनकारियों के पीछे जो एनजीओ हैं, उन्हें अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों से आर्थिक मदद मिल रही है। लेकिन अब देशी मदद से देश के ही विकलांगों को कृत्रिम उपकरण मुफ्त में भेंट करने वाला सलमान खुर्शीद का न्यास गंभीर आर्थिक अपराध के घेरे में हैं। डाॅ जाकिर हुसैन स्मृति न्यास और कुडनकुलम परियोजना के खतरों को लेकर जन जागृति अभियान में जुटे संगठनों पर जो सवाल खड़े हुए हैं, उनसे लगता है, कहीं न कहीं दाल में कुछ काला जरुर है।

आधुनिक अथवा नवीन स्वयंसेवी संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के ठोस विकल्प के रूप में देखा गया था। उनसे उम्मीद थी कि वे एक उदार और सरल कार्यप्रणाली के रूप में सामने आएंगे। चूंकि सरकार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि वह हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता की अपेक्षा की जाने लगी और उनके स्थानीयता से जुड़े महत्व व ज्ञान परंपरा को भी स्वीकारा जाने लगा। वैसे भी सरकार और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकारों से जुड़े हैं। समावेशी विकास की अवधारणा भी खासतौर से स्वैच्छिक संगठनों के मूल में अतर्निहित है। बावजूद प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे-कानूनों की संहिताओं से बंधी है। लिहाजा उनके लिए मर्यादा का उल्लंघन आसान नहीं होता। जबकि स्वैच्छिक संगठन किसी आचार संहिता के पालन की बाध्यता से स्वतंत्र हैं। इसलिए वे धर्म और सामाजिक कार्याे के अलावा समाज के भीतर मथ रहे उन ज्वलंत मुद्दों को भी हवा देने लग जाते हैं, जो उज्जवल भविष्य की संभावनाओं और तथाकथित परियोजनाओं के संभावित खतरों से जुड़े होते हैं। कुडनकुलम परियोजना के विरोध में लगे जिन विदेशी सहायता प्राप्त संगठनों पर सवाल खड़े किये गये थे, वे इस परियोजना के परमाणु विकिरण संबंधी खतरों की नब्ज को सहलाकर ही अमेरिकी हित साधने में लगे थे। जिससे रूस के रिएक्टरों की बजाय अमेरिकी रिएक्टरों की खरीद भारत में हो। ऐसे छद्म संगठनों की पूरी एक श्रृंखला है, जिन्हें समर्थक संस्थाओं के रूप में देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों ने पाला-पोषा। चूंकि इन संगठनों की स्थापना के पीछे एक सुनियोजित प्रचछन्न मंशा थी, इसलिए इन्होंने कार्पाेरेट एजेंट की भूमिका निर्वहन में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि आलिखित अनुबंध को मैदान में क्रियान्वित किया।

गैर सरकारी संगठनों का जो मौजूदा स्वरूप है, वह देशी अथवा विदेशी सहायता नियमन अधिनियम के चलते राजनीति से जुड़े दल विदेशी आर्थिक मदद नहीं ले सकते। लेकिन स्वैच्छिक संगठनों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं है। इसलिए खासतौर से पश्चिमी देश अपने प्रच्छन्न मंसूबे साधने के लिए उदारता से भारतीय एनजीओ को अनुदान देने में लगे हैं। ब्रिटेन, इटली, नीदरलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, कनाड़ा, स्पेन, स्वीडन, आस्टेªलिया, बेल्जियम, फ्रांस, आॅस्ट्रिया, फिनलैण्ड और नार्वे जैसे देश दान दाताओं में शामिल हैं। आठवें दशक में इन संगठनों को समर्थ व आर्थिक रूप से संपन्न बनाने का काम काउंसिल फाॅर एडवांसमेंट आॅफ पीपुल्स एक्शन (कपार्ट) ने भी किया। कपार्ट ने ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोजगार, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण एड्स और कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए संगठनों को दान में धन देने के द्वार खोल दिए। पर्यावरण संरक्षण एवं वन विकास के क्षेत्रों में भी इन संगठनों की भूमिका रेखांकित हुई।

भूमण्डलीय परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आगमन का सिलसिला परवान चढ़ने के बाद तो जैसे एनजीओ के दोनों हाथों में लड्डू आ गए। खासतौर से दवा कंपनियों ने इन्हें काल्पनिक महामारियों को हवा देने का जरिया बनाया। एड्स, एंथ्रेक्स और वल्र्ड फ्लू की भयवहता का वातावरण रचकर एनजीओ ने ही अरबों-खरबों की दवाएं और इनसे बचाव के नजरिए से ‘निरोध’ (कण्डोम) जैसे उपायों के लिए बाजार और उपभोक्ता तैयार करने में उल्लेखनीय किंतु छद्म भूमिका का निर्वहन किया। चूंकि ये संगठन विदेशी कंपनियों के लिए बाजार तैयार कर रहे थे, इसलिए इनके महत्व को सामाजिक ‘गरिमा’ प्रदान करने की चालाक प्रवृत्ति के चलते संगठनों के मुखियाओं को न केवल विदेश यात्राओं के अवसर देने का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता देते हुए इन्हें राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित विश्व सम्मेलनों व परिचर्चाओं में भागीदार के लिए आमंत्रित भी किया जाने लगा। इन सौगातों के चलते इन संगठनों का अर्थ और भूमिका दोनों बदल गए। जो सामाजिक संगठन लोगों द्वारा अवैतनिक कार्य करने और आर्थिक बदहाली के पर्याय हुआ करते थे, वे वातानुकूलित दफ्तरों और लग्जरी वाहनों के आदी हो गए। इन संगठनों के संचालकों की वैभवपूर्ण जीवन शैली में अवतरण के बाद उच्च शिक्षितों, चिकित्सकों, इंजीनियरों, प्रबंधकों व अन्य पेशेवर लोग इनसे जुड़ने लगे। इन वजहों से इन्हें सरकारी विकास एजेंसियों की तुलना में अधिक बेहतर और उपयोगी माना जाने लगा। देखते-देखते दो दशक के भीतर ये संगठन सरकार के समानांतर एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो गए। बल्कि विदेशी धन और संरक्षण मिलने के कारण ये न केवल सरकार के लिए चुनौती साबित हो रहे हैं, अलबत्ता आंख दिखाने का काम भी कर रहे हैं। कुडनकुलम परियोजना का विरोध इसी मानसिकता का परिचायक है।

कुडनकुलम परियोजना के संदर्भ में यही भूमिका सामने आई है। हालांकि नई दिल्ली में रूस के राजदूत एलेक्जेंडर काडकिन पहले ही एनजीओ की साजिश की ओर इशारा कर चुके थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान आने के बाद रूस के प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन भी मनमोहन सिंह के साथ खड़े हो गए थे। उन्होंने साफ किया था कि स्वयंसेवी संगठन दूसरे देशों में अस्थिरता पैदा करने के काम में लगे हैं लिहाजा उनके खिलाफ ठोस कानूनी कार्रवाही की जरूरत है। यहां गौरतलब यह भी है कि पुतिन और मनमोहन सिंह ठीक उस वक्त मुखर हुए थे जब मिस्त्र में अमेरिका से आर्थिक सहायता प्राप्त एनजीओ के कार्यकर्ताओं के खिलाफ अदालती कार्रवाही शुरू हुई थीं। इन कार्यकर्ताओं पर आरोप था कि मिस्त्र में अराजकता का माहौल पैदा कर ये जन आक्रोश उभारने में लगे थे।

भारत में स्वैच्छिक भाव से दीन-हीन मानवों की सेवा एक सनातन परंपरा रही है। वैसे भी परोपकार और जरूरतमंदों की सहायता भारतीय दर्शन और संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा है। पाप और पुण्य के प्रतिफलों को भी इन्हीं सेवा कार्याें से जोड़कर आज भी देखा जाता है। किंतु वर्तमान सरकारी स्वैच्छिक संगठनों को देशी-विदेशी धन के दान ने इनकी आर्थिक निर्भरता को दूषित तो किया ही, इनकी कार्यप्रणाली को भी अपारदर्शी बनाया दिया है। इसलिए ये विकारग्रस्त तो हुए ही अपने बुनियादी उद्देश्यों से भी भटक गए। कुडनकुलम में जिन संगठनों पर कानूनी शिकंजा कसा गया था, उन्हें धन तो विकलांगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन के लिए मिला था, लेकिन इसका दुरूपयोग वे परियोजना के खिलाफ लोगों को उकसाने में कर रहे थे। जबकि सलमान खुर्शीद के न्यास ने विकलांगों के कल्याण हेतु जो धन भारत सरकार से लिया, उसका ठीक से सदुपयोग नहीं किया। हमारे देश में प्रत्येक 40 लोगों के समूह पर एक स्वयंसेवी संगठन है, इनमें से हर चैथा संगठन धोखाघड़ी के दायरे में है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन काम करने वाले कपार्ट ने 1500 से ज्यादा एनजीओ की आर्थिक मदद पर पतिबंध लगा दिया है और 833 संगठनों को काली सूची में टाल दिया है। इनके अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक न्याय मंत्रालयों एवं राज्य सरकारों द्वारा काली सूची में डाले गये एनजीओं अलग से है। भू-मण्डलीकरण के पहले 1990 तक हमारे है केवल 50 हजार एनजीओ थे जबकि 2012 में इनकी संख्या बढ़कर 3 करोड़ हो गई। इन संगठनों को देश के साथ विदेशी आर्थिक सहायता भी खूब मिल रही है। 2009-10 में 14 हजार संगठनों को विदेशी धन दिया गया ऐसे में जरुरी हो जाता है कि इन संगठनों पर गंभीर नजर रखी जाए और यदि ये अपने उद्देश्य से भटकते है तो इन पर कानूनी शिकंजा कसा जाए।

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