निर्गुण सगुण की सृष्टि लीला,
ब्रह्म चक्र सुधा रही;
संचर औ प्रतिसंचर विहर,
आयाम कितने छू रही!
प्रकृति पुरुष संयोग कर,
सत रज औ तामस सज सँवर;
हो महत फिर वर अहं चित्त,
भूमा मना छायी रही!
जब चित्त तामस गुण गहा,
आकाश तब उमड़ा गुहा;
वायु बही अग्नि उगी,
जल बहा औ पृथ्वी बनी!
संघर्ष जड़ अतिशय किया,
तब चित्त प्राण फुरा किया;
प्रकटे वनस्पति जन्तु जन,
बुद्धि व वोधि उदय हुई!
विकसित विवेक विराग हो,
साधना योग समाधि खो;
‘मधु’ तारकी गुरु तक गया,
तब प्रीति परम पुरुष हुई!
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’