नीतीश बनाम भाजपा और भावी राजनीति का खेल

उमेश चतुर्वेदी

राजनीति में एक मान्यता रही है..यहां कोई भी सत्य आखिरी नहीं होता…कुछ इसी अंदाज में राजनीति में दुश्मनी स्थायी नहीं होती…इन मान्यताओं का एक मतलब यह भी है कि बहता पानी निर्मला की तरह बदलाव राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है। कुछ इसी तर्ज पर यह भी कह सकते हैं कि राजनीति में दोस्तियां भी स्थायी नहीं होतीं। बिहार की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के विधान परिषद सदस्य रहे संजय झा की कोई खास वकत नहीं रही है।

लेकिन जनता दल यू में उनके शामिल होने को सामान्य घटना नहीं माना जा सकता। अगले आमचुनावों में वर्चस्व की लड़ाई को लेकर जिस तरह नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ सियासी तलवार अपने म्यान से बाहर निकाल रखी है, ऐसे माहौल में संजय झा का बीजेपी छोड़कर जनता दल यू में शामिल होना निश्चित तौर पर दोनों दलों के रिश्तों के भावी विकास का संकेत है। मार्के की बात यह है कि जिस वक्त संजय झा ने जनता दल यू का दामन थामा, उस वक्त पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायम सिंह और खुद नीतीश कुमार मौजूद रहे। इस मौजूदगी के मकसद साफ हैं। नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी को साफ संकेत दे दिया है कि जरूरत पड़ी तो वह उस भारतीय जनता पार्टी में और भी ज्यादा सेंध लगा सकते हैं, जिसके सहारे उन्होंने 1995 में लालू प्रसाद यादव से अलग होकर अपने नए राजनीतिक रास्ते की तलाश शुरू की थी। नीतीश कुमार और उनकी तत्कालीन समता पार्टी के लिए वह दौर नए अस्तित्व को बनाने और जमाने का था। उनका अपने ही साथी समाजवादियों से मोहभंग हुआ तो उन्होंने उसी भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामा, जिसे तब तक समाजवाद का एक बड़ा खेमा सांप्रदायिक मानकर राजनीतिक अछूत बनाने की प्रक्रिया में जुट गया था। बहरहाल नीतीश के इस कदम से ये साबित हो गया है कि अब तक बीजेपी का पारंपरिक वैचारिक खेमा जो प्रचार कर रहा था, वह बिहार की राजनीति में अस्तित्व में है। पारंपरिक भाजपा कार्यकर्ताओं को निजी बातचीत में यह मानने में गुरेज नहीं है कि बिहार बीजेपी में एक खेमा नीतीश कुमार की बी टीम की तरह काम कर रहा है। और नीतीश कुमार ने अपने इस एक कदम से यह जताने की कोशिश कर दी है कि भारतीय जनता पार्टी की इस बी टीम में भी वे सेंध लगा सकते हैं।

गठबंधन की राजनीति की कुछ सीमाएं और कुछ ऐसी शर्तें होती हैं, जिन्हें गठबंधन के सभी सदस्यों को मर्यादित तौर पर स्वीकार करना होता है। 1995 से ये शर्तें समता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी बिहार में मानती रही हैं। लेकिन संजय झा के जेडी यू में जाने के बाद निश्चित तौर पर यह मर्यादा टूटी है। इसका असर भी देर-सवेर बिहार की राजनीति में दिखना ही है। हालांकि आज की राजनीति जिस तरह सत्ता केंद्रित हो गई है, उसमें एकता और बिखराव की शर्तों को निभाने में सत्ता का केंद्र अहम भूमिका निभाता है। चूंकि बिहार में अभी गठबंधन के पास सत्ता है, लिहाजा मर्यादाएं टूटने के बावजूद गठबंधन धर्म के निर्वाह का खेल जारी रहेगा। यानी बिहार में भारतीय जनता पार्टी अभी नीतीश कुमार से अलग होने का खतरा नहीं उठाने जा रही है। लेकिन इसका उसके वोट बैंक पर असर जरूर पड़ना है। वैसे भी प्रस्तावित भूमि सुधार कानून और महादलित की राजनीति को लेकर भारतीय जनता पार्टी का बड़ा वोट बैंक जिसमें भूमिहार प्रमुख रूप से शामिल हैं, पिछले विधानसभा चुनाव के पहले भी नीतीश कुमार से नाराज था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लिए उसने अपना वोट गठबंधन को दिया। बिहार के लिए लालू यादव और उनकी पार्टी का शासन काल दु:स्वप्न रहा है। उस दौर में रूके विकास के काम ने बिहार को पिछड़ने के लिए मजबूर किया। फिर अगड़ी जातियों को लेकर इस दौर में जबर्दस्त उपेक्षाबोध रहा। लिहाजा अगड़ी जातियां अब भी लालू राज की वापसी से घबराती हैं। नीतीश कुमार इस घबराहट को जानते हैं, लिहाजा उन्हें लगता है कि बीजेपी के लिए गठबंधन मजबूरी है। हालांकि बीजेपी के लिए भी ये मजबूरी उतनी ही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी देश ने मजबूरी की राजनीति को एक हद के बाद तार-तार होते देखा है। जनता पार्टी की सरकार का पतन और जनता दल का कई खंडों में टूट जाना इस मर्यादित राजनीति के अतिरेकी उपचार को समझने के लिए बेहतरीन उदाहरण है। जनता पार्टी के दौर में भी सिद्धांत और वैचारिक आधार के पुनरूत्थान के सवाल उठे थे और कमोबेश आज भी यह सवाल कम से कम भारतीय जनता पार्टी में भी उठने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मानने लगा है कि वैचारिक और सैद्धांतिक आधार के सहारे ही बीजेपी को सत्ता के शीर्ष की राजनीति की तरफ पहुंचाया जा सकता है। 2004 और 2009 के चुनावों में मिली बीजेपी की शिकस्त ने संघ को इस सोच के लिए प्रेरित किया है। लेकिन वैचारिकता से सुविधाजनक विचलन और सत्ता के स्वाद ने बीजेपी को उदारवादी चेहरा बनाने वाला भी एक वर्ग पार्टी में बन चुका है। जाहिर है कि दोनों वर्गों में भावी राजनीति को लेकर खींचतान जारी है। बिहार में नीतीश और मोदी विवाद के बाद यह विवाद पूरी तरह से नजर आया। इस विवाद को सिर्फ व्यक्तिवादी खेमे से बांधकर नहीं देखा जा सकता।

लेकिन भारतीय जनता पार्टी के इस वैचारिक मंथन को नीतीश कुमार ही चुनौती दे रहे हैं। नीतीश की यह चुनौती कोई मामूली नहीं है। अतीत में जिन राज्यों में जनसंघ या उसके परवर्ती अवतार भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी खेमे से समझौता किया, वहां मध्य प्रदेश छोड़कर तकरीबन सब जगह बी टीम के तौर पर काम किया और देखते ही देखते समाजवादी खेमा खत्म हो गया और भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के मुखालफत में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनकर उभर आई। गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और अब कर्नाटक इसका उदाहरण है। लेकिन पहले उड़ीसा और बाद में बिहार में बीजेपी वह करामात दिखाने में कामयाब नहीं हुई। हो सकता है कि बीजेपी और उसके मातृ संगठन को यह नाकामी भी सोचने को मजबूर कर रही हो। चूंकि फिलहाल बीजेपी को कोई अलग मुफीद रास्ता नजर नहीं आ रहा। लिहाजा वह बिहार में मजबूरी का घूंट तब भी पीने को मजबूर है, जब उसके अपने विधान परिषद सदस्य रहे संजय झा उसके सहयोगी के खेमे में जाकर समाहित हो जाते हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राजनीति शुरू करके विधानपरिषद तक का सफर तय करने वाले संजय झा को लेकर बीजेपी खेमे में शक तब से ही था, जब उन्होंने नीतीश कुमार के प्रतिनिधि के तौर पर बिहार महोत्सव आयोजित करने शुरू कर दिए थे। दिल्ली के निरंकारी कालोनी में बिहार महोत्सव का आयोजन संजय झा की देखरेख में ही हुआ था। जिसकी आयोजन समिति में बीजेपी के सिर्फ एक कार्यकर्ता को शामिल किया गया था। बीजेपी के लिए यही घटना वह बहाना है, जो नीतीश कुमार को माफ करने के दिखावे का जरिया बनी है।

नीतीश कुमार के इस एक कदम से यह भी साबित हुआ है कि उनकी रणनीति – कदम-कदम बढ़ाए जा और हर कदम को मजबूती से जमाए जा – वाली है। निश्चित तौर पर वे फिलहाल अपनी इस रणनीति में कामयाब दिख रहे हैं। लेकिन शायद वे भी नहीं भूले होंगे कि बीजेपी की चुप्पी का उपहार उन्हें सदा नहीं मिलता रहेगा। यह तय है कि जिस दिन बीजेपी और उसका मातृसंगठन संघ विकास और वैचारिकता के कॉकटेल पर आधारित वोट बटोरू फॉर्मूला ढूंढ़ लेगा, वह नीतीश कुमार को भी पटखनी दे सकता है। संघ की वैचारिक और रणनीतिक तैयारियों से यह जाहिर भी हो गया है। इसलिए हमें बिहार में अभी युद्धविराम नहीं, बल्कि सत्ताधारी खेमे में खींचतान के और कई मौकों का गवाह बनने के लिए तैयार रहना चाहिए। आमचुनावों के ठीक पहले तक यह खींचतान लगातार जारी रहेगी। तब तक वैचारिकता और व्यवहारिकता के बीच झूल रही बीजेपी भी सत्ता प्राप्ति के लिए कोई नया फॉर्मूला ढूंढ़ लेगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here