अनाज नहीं, लोकतंत्र सड़ रहा है प्रधान मंत्री जी

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– पंकज झा

सामान्यतः जब कोई शालीन माना जाने वाला व्यक्ति अपना आपा खो दे तो समझिए कि उसके मर्म पर कोई जबरदस्त चोट पहुची है. उसे किसी व्यक्तिगत क्षति की आशंका या अंदाजा है. या फिर अपनी अक्षमता के प्रति जबरदस्त बौखलाहट. जैसे गृह मंत्री के ‘भगवा आतंकवाद’ वाले बयान को याद करें. आश्चर्यजनक है कि जो व्यक्ति जूते पड़ जाने पर भी आपा ना खोने की हद तक शालीन हो, वो कैसे ऐसा भरकाउ बयान दे सकता है जिससे करोडों लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रया हो? इसी तरह प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा अनाज सड़ने के मामले पर न्यायपालिका को दी गयी ‘घुडकी’ उल्लेखनीय है. जिस व्यक्ति को संसद में बोलते हुए भी विरले ही सुना जाता हो. जो व्यक्ति अपनी मुस्कान से ही केवल अपनी सभी अच्छी-बुरी भावनाओं को छिपा लेता हो, वो अगर अकस्मात न्यायालय को उसकी औकात बताने लगे. उसे यह नसीहत देने लगे कि अपनी मर्यादा में रहे, तो समझा जा सकता है कि मामला केवल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर बहस का ही नहीं है.

मोटे तौर पर किसी भी सरकार की प्राथमिकता होती है लोगों के जान और माल की हिफाज़त करना. ऊपर के दोनों बयान आतंक और भूख से कराहते देश के सुरक्षा की जिम्मेदारी सम्हालते दोनों संबंधित व्यक्ति का ही है. बात फिलहाल ‘माल’ यानी अनाज के सुरक्षा की, करोड़ों पीड़ितों के भूख का, उसके जीवन का. एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय का आदेश था कि जब देश के नागरिक भूख से बिलबिला रहे हों और सरकारी गोदामों में अनाज सड रहा है तो उससे बेहतर है कि यह ज़रूरतमंदों में मुफ्त बांट दिया जाय. पहले तो कृषि का भी काम कभी-कभार देख लेने वाले क्रिकेट मंत्री ने इस आदेश को सलाह कह कर टालने का उपक्रम किया. लेकिन फिर कोर्ट द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने के बाद कि यह आदेश ही था, प्रधानमंत्री को मैदान में आना पड़ा और अपने स्वभाव के विपरीत यह कहना पड़ा कि न्यायालय को नीतिगत मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. न्यायपालिका का क्या है. बहुमत के घमंड में चूर कोई भी सरकार अध्यादेश या संशोधन द्वारा उसे ‘औकात’ दिखा ही सकती है. और फिर जिस कांग्रेस को एक तलाकशुदा गरीब शाहबानो के मूंह का निवाला छिनने के लिए संविधान संशोधन करने में कोई संकोच नहीं हुआ तो आखिर करोड़ों लोगों की भूख से तिजोरी भरने वाले जमाखोरों को कवच प्रदान करने के लिए क्यूंकर कोई लिहाज़ करने की ज़रूरत हो. तो इस मामले में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र क्या है इस पर चर्चा ना करते हुए सरकार का कर्तव्य क्षेत्र क्या है इस पर विमर्श करना समीचीन होगा.

आखिर सवाल यह है कि अगर देश में अनाज सड रहे हों और आपकी जनता भी भूखों मर रही हो तो उन्हें मुफ्त अनाज बांट देने में परेशानी क्या है? आश्चर्य तो यह है कि न्यायलय को सबक सिखाने में व्यस्त सरकार के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति ने इस मामले पर कोई भी सफाई देना मुनासिब नहीं समझा. वैसे जो एकमात्र बाजिब समस्या नज़र आती है वह ये है कि अनाज को गांव-गांव तक पहुचाया कैसे जाय, उसको बांटने का आधार क्या हो. लेकिन अगर नीति बनाने के जिम्मेदार आप हैं और किसी दुसरे स्तंभ को यह अधिकार देना भी नहीं चाहते तो आपको इस तरह की जनकल्याणकारी नीति बनाने से रोका किसने है? खबर आ रही है कि केन्द्र सरकार देश के सभी छः लाख गाँवों तक कंडोम पहुचाने की व्यवस्था कर रही है. इस बारे में नीति बनकर तैयार है और एक स्वयंसेवी संगठन को इसका ठेका भी दे दिया गया है. तो आप गावों तक कंडोम बांट सकते हैं लेकिन अनाज बांटने में आपको बौखलाहट हो रही है. चुकि सरकार ने अपनी तरफ से इस मामले में अपनी असमर्थता का कोइ कारण व्यक्त नहीं किया है तो विपक्षियों द्वारा लगाए आरोप के सम्बन्ध में मुद्दे को समझने की कोशिश करते हैं.

मुख्य विपक्षी भाजपा के अनुसार सरकार अनाज इसलिए सड़ रही है क्युकी सड़े हुए अनाज से शराब बनवाया जा सके, उस लाबी को खुश किया जा सके. हो सकता है इस बात में सच्चाई हो, लेकिन यह भी आंशिक सत्य ही है. असली सवाल तो उन बिचौलियों-जमाखोरों का है जिसका सब कुछ ऐसे किसी भी फैसले से तबाह हो सकता है. अगर आज महंगाई बढ़ी है तो ना उत्पादन कम होने और ना ही किसी अन्य कारण से. केवल और केवल इन समूहों को प्रश्रय देने और उनके हितों को जान-बूझ कर संवर्धित करते रहने के कारण. नहीं तो ऐसा कोई कारण नहीं कि ढेर सारे मंजे हुए अर्थशास्त्रियों के इस सरकार में महंगाई की त्रासदी से पार नहीं पाया जा सकता था. स्पष्ट रूप से आप इसे आजादी के इतिहास के बाद के लाखों करोड के सबसे बड़े घोटाला ‘महंगाई घोटाला’ का नाम ही दे सकते हैं.

अनाज को मुफ्त बांटने की बात तो दूर की कौड़ी है, अगर यह सरकार ऐसा करने की इच्छा ही प्रकट कर दे, इस विषय में एक सकारात्मक बयान ही दे दे तो कृतिम रूप से महंगाई बढाने वाले वायदा कारोबारियों की मिट्टी पलीद हो जाय. लेकिन शरद पवार द्वारा चीनी महंगा होने की भविष्यवाणी को याद करें तो समझ में आएगा कि कीमतों को बढ़ाया कैसे जाता है और इसमें किसका हित छिपा होता है. बस तो बयानों की ‘कीमत’ बेहतर मालूम होने के कारण ही तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे कर प्रधानमंत्री को अपने स्वाभाव के विपरीत ‘मैदान’ में कूद जाना पड़ा. तो इस सन्दर्भ में इस बयान के निहितार्थ को समझा जा सकता है. यहां सवाल जमाखोरों के हित बनाम आम नागरिकों का है. सवाल माल्थस के उत्पादन और जनसंख्या सिद्धांत बनाम अमर्त्य सेन के कल्याणकारी अर्थशास्त्र के मध्य चयन का है.

मोटे तौर पर जनसंख्या और उत्पादन के सम्बन्ध में दो विचारक मुख्य रूप से सामने आते हैं. एक थे 18 वीं सदी के यूरोप को गहरे तक प्रभावित करने वाले वाले ‘थॉमस रॉबर्ट माल्थस’ और दुसरे हैं भारत की मिट्टी के ही नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन. जहां माल्थस ने उत्पादन के मुकाबले जनसंख्या में गुणात्मक वृद्धि हो जाने के कारण भुखमरी की आशंका व्यक्त की थी वही अमर्त्य सेन का यह मानना था कि भूखमरी अनाज की अनुपलब्धता के कारण नहीं बल्कि सरकार द्वारा उसका सही वितरण ना कर पाने की मंशा या अक्षमता के कारण हुआ करता है. दुनिया में पड़े अकालों के विस्तृत एवं तार्किक विश्लेषण के आधार पर अमर्त्य सेन ने बताया कि अकाल का मुख्य कारण मूलतः वे सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक परिस्थितियां हैं जो व्यक्ति के क्रय शक्ति का ह्रास करती हैं. अपने अकाट्य तर्कों से उन्होंने स्पष्ट किया कि 1943 का पश्चिमी बंगाल का अकाल पूर्णतः प्राकृतिक आपदा नहीं थी. तो अब आप सोचें, जिस समय यह देश हरित क्रान्ति से कोसों दूर था उस समय भी देश के पास अनाज इतना था कि वह बकौल अमर्त्य सेन अपने लोगों का पेट आराम से भर सकता था. तो अब हरित क्रान्ति के दशकों बाद जब अनाज उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि दर्ज की गयी है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उसकी कीमत हद से ज्यादा बढ़ जाय या लोग भूख से मरे? असली कारण केवल और केवल अपनी जेब भरने के लिए केन्द्र द्वारा व्यापारियों को दिया जाने वाला प्रश्रय है और कुछ नहीं.

चूंकि विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पुराने कारिंदों द्वारा संचालित केन्द्र की यह सरकार ‘गरीबी और भूख’ को खतम करने के अमर्त्य के कल्याणकारी तरीके से चल कर अपने और अपने आकाओं का हित संवर्द्धन नहीं कर सकती तो उसे माल्थस का ही सिद्धांत ज्यादा बेहतर लगता है कि ‘भूखों और गरीबों’ को ही मार दो. चुकि माल्थस के पास गरीबी दूर करने की कोई सोच नहीं थी तो उसने भूख की समस्या का समाधान यह बताया कि गरीबों को प्राकृतिक रूप से मरने के लिए छोड़कर आबादी पर नियंत्रण किया जाना चाहिए. जान कर किसी भी व्यक्ति की रूहें कांप जायेंगी कि पादरी रहे माल्थस ने तात्कालीन इंग्लेंड की सरकार को यह सलाह दी थी कि गरीबों को गंदे नाले के किनारे बसाया जाए और प्लेग आदि के कीड़े उनके पास छोड़ दिया जाएं, जिससे वे अपने आप खत्म होते रहेंगे. साथ ही डॉक्टरों को इनके इलाज के लिए न लगाया जाए.

कहना होगा कि उदारीकरण के जनक माने जाने वाले मनमोहन सिंह कि यह सरकार भी उसी माल्थस के अर्थशास्त्र को अपना गीता और कुरआन बनाए हुई है. बंगाल के अकाल के समय जब सेठ-साहूकारों के गोदाम भरे थे और लोग अन्न-अन्न को तरस रहे थे तब भी कोलकाता में महारानी विक्टोरिया के सम्मान में खड़ा ‘विक्टोरिया पेलेस’ मानवता को मूंह चिढा रहा था. अब सरकार संसाधन समेत अन्य बहाने बना गरीबों तक अनाज पहुचाने के बदले उसी विक्टोरिया के बैटन को ले कर शहर-शहर घूम रही है. केवल गुलामी याद दिलाने वाले पन्द्रह दिनी राष्ट्रकुल आयोजन में ही जितने हज़ार करोड रूपये का ‘खेल’ हो जाएगा उतने में आसानी से हर घर तक अनाज सड़ने से पहले पहुच सकता था.

अमर्त्य सेन की स्थापना फिर उल्लेखनीय है कि अगर बंगाल के अकाल के समय देश में लोकतंत्र होता तो, जनता और उसके नुमाइंदे संसद में अकालपीड़ितों के पक्ष में आवाज उठाकर सरकार की नाक में दम कर सकते थे. उन्होंने यह आश्वस्ति भी व्यक्त की थी कि लोकतंत्र के आते ही भूख की समाप्ति हो जायेगी. आजादी के छः दशक बाद भी भारत में ‘भूखों’ को राजनीति द्वारा समाप्त किये जाने की इस कुचेष्टा पर वे अफ़सोस जताने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं. छत्तीसगढ़ में बैठकर यह लेख लिखते-लिखते वीर नारायण सिंह याद आ रहे हैं जिनका जमाखोरों के गोदामों से भूखों के लिए अनाज लूट लेने का आंदोलन स्वतंत्रता का शंखनाद साबित हुआ था. रायपुर का जयस्तंभ चौक जहां उन्हें फांसी दी गयी थी उनके शहादत का जीता-जागता प्रतीक है. लेकिन अफ़सोस तो यह है कि आज के गरीब कथित आम आदमी की अपनी ही सरकार से राशन लूटने कहां जाए. प्रधानमंत्री जी, ‘माल्थस’ कीड़ों को गरीबों की बस्तियों में छोड़े जाने की सलाह देता था. उन्ही के विचारधारा की आपकी सरकार के मन में पल रहा बिचौलियों को लाभ पहुचाने का कीड़ा तो लोकतंत्र में ही सरांध पैदा कर रहा है.

13 COMMENTS

  1. एक एक शब्द से सहमत हूँ….
    मन इतना आक्रोशित है कि शब्दहीन हो गया है…क्या कहूँ…

  2. शायद इसी लोकतंत्र के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया ताकि कांग्रेस उनके नाम पर देश पर राज करे. गाँधी की कांग्रेस तो उसी दिन मर गयी जिस दिन देश आजाद होना था. आज़ादी के बाद तो नेहरु की कांग्रेस का जन्म हुआ, जो अंग्रेजो के बताये रास्ते को अपना आदर्श मान कर राज करना जानती है. समाजवाद का सडा हुआ रूप है नेहरु का समाजवाद . ये ही कांग्रेस भ्रस्टाचार की जननी है लेकिन इन सब से किसी को कोई फरक नहीं पड़ेगा क्योंकि हम भारतीय इसके आदि हो चुके है. सच्चाई के लिए लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं है हम भारतियों में . मांगने से कुछ नहीं मिलता इसके लिए संगठित होना पड़ता है. संसद भवन के सामने धरना दो मजबूर कर दो उस सरकार को जिसे आपने ही चुना है. जिस के मालिक ही आप हो कि वो जनता कि सुने और उन लोगों के लिए अन्न कि व्यस्था करे जो भूखे मर रहे है (लेकिन हम शायद ये नहीं कर सकते )

  3. पाकीस्तान के बाढ पीडितों को सहायता दे सकते हैं, पर, भारतीय प्रजा को क्या अधिकार है? कि उन्हे मुफ़्तमें अनाज बांटा जाए?
    वास्तवमें शराब के उद्योजकों को जो वचन दिया गया है, उसका क्या?
    स्वतंत्रता के पश्चात, आज तक के इतिहास में भारत में ऐसा शासन, जो जिस जनता का नौकर है, उसी जनता की (अन्न, वस्त्र, और घर )अन्न, एक प्राथमिक आवश्यकता अनाज उस के विषय में घोर अन्यायी और क्रूरतापूर्ण है।
    जन तंत्र कहा जाता है, “जनता का, जनता के उपर, जनता के लिए —शासन।”
    प्रश्न: क्या यह “जनता के लिए वाला शासन” शासन है? या शराब के उत्पादकों के लिए हैं?

  4. बहुत तथ्यपरक लेख. धन्यवाद.
    जब नियम नीतिया ऐसे लोगो द्वारा बनाई जाएँगी जिन्हें यह पता नहीं होता है की गुड और तेल – थैली या बोतल में आता है तो इसी तरह की स्तिथिया होती है.

  5. आनाज यानी जिंदगी की जरुरत आनाज यानी खुशहाली की इबारत , लेकिन पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि सरकार के पास इसे रखने के लिए जगह ही नही है निश्चित तौर पर ये हमारे कृषि प्रधान देश के लिए शर्मसार करने वाली बाते है पर मै इसमे किसी एक पार्टी विशेष को दोषारोपण नही करना चाहता ,ऐसा नही है कि अचानक हमारे देश में आनाज कि इतनी ज्यादा पैदावार हुई कि उसे सड़ने के लिए खुले गोदामो मे रखा जाने लगा इसके पीछे लगातार बरती गई लापरवाही और भष्ट्राचार ही मुख्य जड़ है और ये किसी एक पार्टी विशेष के हाथो नही हो रहा है अपितु यह कई वर्षों से अनवरत चलता आ रहा है चाहे केन्द्र में किसी कि भी सरकार रही हो, इस साल मीडिया के सचेत होने के चलते ये ख़बरें इतनी प्रचारित हो सकी और जिसके चलते सरकार और न्यायपालिका ने संज्ञान लिया ।
    पिछले कई सालो से यह तय है कि हमारे देश में आनाज रखने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नही है एफ सी आई लगातार कई वर्षो से इस बात को दुहरा रहा है ,चाहे केन्द्र में बीजेपी की सरकार रही हो या कांग्रेस पाट्री की पर किसी ने इस ओर ध्यान नही दिया । ध्यान देते भी कैसे कमीशन का खेल हर समय गुप-चुप तरीके से अनवरत चलता ही रहा है । पिछले साल ही आनाज की भरमार पैदावार होने के बावजूद 60 हजार टन चावल साऊथ आफ्रीका से मंगाया गया , जिसमें वित्त,कृषि मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय की विशेष भूमिका थी , जिसका कुछ दिनो बाद पता चला कि रुलिंग पार्टी के लिए चंदा इक्कठा करने के लिए इसका उपयोग किया गया,बीच में इसको लेकर कुछ जांच भी हुई पर बात आई गई हो गई ।
    बड़ा सवाल ये कि क्या यह सुनियोजित तरिके से हो रहा है या जानबुझ कर किया जा रहा है क्योकि इसी नुकसान से नेताओं का मुनाफा तय होता है कृषि मंत्रालय में बैठे राजनीतिक कर्णधार और उनके मदारी जिनकी रुचि सिर्फ और सिर्फ आयात-निर्यात के खेल में ही रहता है जिससे मिलने वाले कमीशन से उनकी जेब गरम होती रहे। रही बात गरीब और गरीबो कि तो आप और हम ये अच्छि तरह जानते है कि इनमें इनकी रुचि कब और कितनी रहती है ।
    देश के हर राज्य मे तो कांग्रेस की सरकार नही है,और गरीब तबके से नीचे आने वाले लोगो को आनाज बाटने का काम पीडीएस के जरिए राज्य सरकारे ही किया करती है ऐसे में पीडीएस सिस्टम में हो रही व्यापक भष्ट्राचार भी केन्द्र के सिर फोड़ना सही नही है । रहा सवाल अनाज मुफ्त में गरीबों को बांटने का यह भी किसी हद तक सही नही है , अच्छा होगा कि काम के बदले आनाज योजना में इसका उपयोग आनाज दुगना देकर और अच्छे तरीके से किया जा सकता है इसी तरह की कई योजनाऐं है जिसमें इस सड़ते आनाज को बचाकर जरुरतमंद लोगो तक सही तरीके से पहुंचाया जा सकता है फिलहाल इस मसले में राजनीतिक चश्मे को हटाकर ही देखना चाहिए ताकि इसका ईमानदारी से सही इलाज ढूंढा जा सके
    पंकज भाई समस्याओं पर अच्छि पकड़ रखते है पर इनका समाधान भी बताया करे तो ज्ञान पिपाशा को शांत करने में और आसानी होगी । लेख अच्छा है बधाई……

    • धन्यवाद नवीन जी….आपने ठीक ही कहा कि ‘समाधान’ बताया जाना ज्यादे ज़रूरी है. लेकिन संकोच होता है कि अभी हमारे कर्नधारगण जिनके अर्थशास्त्र ज्ञान की दुनिया में मान्यता है, वह अगर समाधान नहीं खोज पा रहे हैं तो अपनी क्या बिसात? लेकिन यही पर सवाल नीयत का आता है कि मामला कही पैसे लेकर नो बाल फेकने का या आउट हो जाने का यानी मैच फिक्सिंग का तो नहीं है.
      एक सामान्य किसान परिवार का होने के नाते निश्चय ही समाधान पर भी अपने कुछ विचार हैं. अनाज प्रबंधन करते घर और गांव की माताओं-बहनों-भाइयों को देखा है उसी आधार पर अगले आलेख में कुछ लिखने का सोच रहा हूं. लेकिन यह भी जानता हूं कि आप जैसे कुछ सुविज्ञ लोगों की टिप्पणी के अलावा बाकी सब कुछ नक्कारखाने की तूती ही हो जानी है..लेकिन फिर भी प्रयास करने में क्या हर्ज है….सादर.

  6. -Loss of food is loss of nation..PM reaction to the sc shows how prompt they are in rulling & administration point of view! actually it is symbol of deterition of Indian administration! sc directed for the betterment of democracy but central govt . behaving like mock democracy & governing like militia rule in India! what a diliatic condition India facing these days-on one hand food grains are getting deteriot but on another hand govt want to sale it on above the BPKL rate on market basis!
    mr, sarad pawor reaction about this issue shows there is no need of atorney genaral & solicter genral for the review according to the indian constution! the issue is black and worst spot on central govt & for the largest democracy of woeld india!
    – The govt sholud remember many countries are sufferiing violent revolution due to starvation & lack of food for the survival of lives!
    Lets us think seriously about manmohan’s guided govt who is not able to save our soverginty!

  7. पकंज तपाक से किसी नतीजे पर पहुंचना भी तो उतना ही बेअसर होता है………….ठीक है गरीबों में अनाज बांटने की बात को लेकर मैं आपके साथ हूं लेकिन क्या मुफ्त में अनाज बांट दिया जाये ? फिर इस मुफ्त के अनाज को बांटने के बाद देश पर जो संकट आयेगा उसके बारे में कौन सोचेगा………….क्या यह अनाज सच मे मुफ्त में ही लोगों में बांट देने चाहिए……..क्या मुफ्त में अनाज बांटने के बाद समस्या का अंत हो जायेगा………..अभी कुछ दिनों पहले ही आपके सरगुजा में 56 लोगो ंकी मौत हो गई………..अभी कुछ दिनों पहले ही………म प्र में एक आदिवासी युवक ने बेरोजगारी से तंग आकर आत्मा हत्या कर ली……….और मेरे मित्र प्रनय ये नेहरू का ही खून है जिसने देश के युवाओं मे जोश की लहर जगा रखी है………………..इतना ही कमजोर है ये खून तो आओ मैदान में………नेहरू गांधी के बारे में बात करने में शताब्दियां कम पड जाती है दोस्त………..कुछ सोचो क्या कांग्रसे ने सिर्फ देश को खोखला किया है………..?

  8. प्रधान मंत्रीजी न कुछ देख सकते हैं न सुन सकते हैं उनकी आंखे केवल महारानी की तरफ रहती हैं.जो भी आदेश हो उसका पालन होगा .सरकार का एक मात्र लक्ष्य है येन kena प्रकारेण सत्ता में बने रहना. संविधान, जनता का हित यह सब निरर्थक बातें हैं. चंदा और वोट जो देगा वही मेवा खाएगा.ग़रीब को तो अपने वोट डालने का न विवेक है न स्वतंत्रता.

  9. पंकज जी आपकी खोजी और तथ्य परक लेख के लिए आप प्रशंशा के पात्र हैं. मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम का बौखला जाना निस्संदेह शक को हवा देता है. देश में खाद्यान्न सड़ रहा है और ये सरकार अपना झोला भरने में लगी है. पंकज जी सिस्टम व्यक्ति से बड़ा होता है. और कोई भी सिस्टम स्वार्थ में टिका रहता है, इसलिए हमेशा सिस्टम जीतता है. मुझको लगता है यदि ये ईमानदार रहते तो इन पदों पर ही नहीं पहुँचते. मुझको इन दोनों महाशयों के व्यव्हार से कोई आश्चर्य नहीं हुआ. अमर्त्य सेन और माल्थस के विचारों का बहुत अच्छा प्रस्तुति है और निस्संदेह कहीं भी माल्थस के विचारों की जीत होगी. क्योंकि यह स्वार्थ पर टिका है, इससे चंद लोगों को फायदा होता है. पूंजीवाद की जड़ें आज इतनी गहरी हैं की हम कुछ कर भी क्या सकते हैं. हमारे सभी जनप्रतिनिधि यदि आज भ्रष्ट हैं तो किस पर विश्वास किया जा सकता है? यदि जनप्रतिनिधि बदलते हैं तो वह भी भ्रष्ट निकलता है. हमारे देश में loktantra का sabse vikrit roop और vidrup chehra dikhta है.

  10. “अनाज नहीं, लोकतंत्र सड़ रहा है प्रधान मंत्री जी” – by – पंकज झा

    (१) पूर्व लोक सभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी सुप्रीम कोर्ट को सविंधान में वर्णित अधिकारों के विभाजन पर बार-बार लोक सभा में भाषण देते सुना करते थे कि अदालत के क्या कार्य हैं; वह अच्छे वकील भी हैं.

    (२) मनमोहन सिंह जी यह आपके बूते से बाहर है कि आप सुप्रीम कोर्ट को बता सकें कि सविधान में लिखे का क्या अर्थ है ? और कोर्ट क्या कर या क्या नहीं कह सकती है ?

    (३) यहाँ तो आपकी और सरकार की मंशा पर ही शक हो रहा है.

    (४) जहाँ ग्राम-ग्राम गर्भ निरोधक निशुल्क सामान बांटने का अच्छा प्रबंधन किये जाने के समाचार आ रहे हैं, वहां गरीबों में अनाज वितरण का प्रबंधन सरकार के लिए बड़ी कठिनाई पैदा कर रहा है.

    (५) ज़रा विचार करिए. जनता सब समझती है.

    LAST BUT NOT THE LEAST

    (६) वैसे सविधान का क्या अर्थ है, इसका अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है, न कि स्पीकर या प्रधान मंत्री को.

    It is established that interpretation of the Constitution is with the Supreme Court.

    उच्चतम न्यायालय को कहना कि सविधान में क्या लिखा है यह सूर्य को रोशनी दिखाने जैसा है.

  11. बहुत ही तथ्यपरक लेख है………

    हमारी तो आँखे खुल गई……………….
    पर जो जबरदस्ती आँख बंद कर के बैठे हैं – उनके लिए क्या शंखनाद होना चाहिए.

  12. babdhu apka yeh sargarbhit lekh bhookh ke piche ke arthshashtra ko bakubi bayan ker raha hai ,nehru ka yeh nikamma khoon her morchey per kamjor hai

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