पैसा नही, बच्चो को वक्त दीजिये

आज हमारी युवा पी और छोटे छोटे बच्चो को न जाने क्या हो रहा है मॉ बाप और टीचरो की जरा जरा सी बातो और डाट फटकार पर खुदकुशी की खबरे बहुत तेजी से सुनने को मिल रही है। साथ ही साथ स्कूल कालेजो में अपने सहपाठियो के साथ कम उम्र युवाओ द्वारा हिंसक घटनाओ की तादाद भी लगातार बती जा रही है। आखिर ऐसा क्यो हो रहा है। एक ओर जहॉ इन घटनाओं से बच्चो के परिजन परेशान है वही ये घटनाए देश और समाज के लिये भी चिंता का विषय बनती जा है। दरअसल इन घटनाओ की वजह बहुत ही साफ और सच्ची है जो बच्चे ऐसी घटनाओ को अन्जाम दे रहे है उन के आदशर फिल्मी हीरो, हिंसक वीडियो गेम ,माता पिता द्वारा बच्चो को ऐश ओ आराम के साथ महत्वाकांशी दुनिया की तस्वीरो के अलावा जिन्दगी के वास्तविक यथार्थ बताये और दिखाये नही जा रहे है। संघर्ष करना नही सिखाया जा रहा। हा सब कुछ हासिल करने का ख्वाब जरूर दिखाया जा रहा है। वह भी कोई संघर्ष किये बिना। दरअसल जो बच्चे संघर्षशील जीवन जीते है उनकी संवेदनाए मरती नही है वे कठिन परिस्थि्तियो में भी निराश नही होते और हर विपरीत परिस्थि्ति से लडने के लिये तौयार रहते है। कुछ आत्महत्याओ के पीछे शिक्षा और परीक्षा का दबाव है तो कुछ के पीछे मात्र अभिभावको की सामान्य सी डाट ,अपने सहपाठियो की उपेक्षा अथवा अग्रेजी भाषा में हाथ तंग होना। मामूली बातो पर गम्भीर फैसले ले लेने वाली इस युवा पी को ना तो अपनी जान की परवाह है और ना ही उन के इस कदम से परिवार पर पडने वाले असर की उन्हे कोई चिंता है।
यदि हम थोडा पीछे देखे तो 9 फरवरी 2010 को कानपुर के चकेरी के स्कूल के0 आर0 एजुकेशन सेंटर के कक्षा 11 के छात्र अमन सिॅह और उस के सहपाठी विवेक में किसी बात को लेकर मामूली विवाद हो गया। मामला स्कूल के प्रिंसीपल तक पहुॅचा और उन्होने दोनो बच्चो को डाट कर समझा दिया किन्तु अगले दिन अमन सिॅह अपने चाचा की रिवाल्वर बस्ते में छुपाकर स्कूल ले आया और उसने क्लास में ही अपने सहपाठी विवेक को गोली मार दी। स्कूल या कालेज में इस प्रकार की घटना का ये पहला मामला नही हैं। 18 सितम्बर 2008 को दिल्ली के लाडो सराये में एक छात्र द्वारा एक छात्रा की हत्या गोली मार कर कर दी गई थी, 18 सितम्बर 2008 को ही मध्य प्रदेश के सतपाडा में एक छात्रा को उस की ही सहपाठिनीयो ने जिन्दा जला दिया था, 16 फरवरी 2008 को गाजियाबाद के मनतौरा स्थित कालेज में एक छात्र ने अपने सहपाठी को गोली मार दी थी, 11 फरवरी 2008 को दिल्ली ही के कैंट स्थित सेंट्रल स्कूल में एक छात्र द्वारा अपने सीनियर को मामूली कहासुनी पर चाकू मार दिया था। नवंबर 2009 में जम्मू कश्मीर के रियासी जिले में आठवी क्लास की मासूम छात्रा के साथ लगभग 18 साल की उम्र के आसपास के 7 स्कूली बच्चो ने रेप किया सब के सब आरोपी युवा बिगडे रईसजादे थे। बच्चो और युवाओ में दिन प्रतिदिन हिंसक दुष्प्रवृति बती ही जा रही है। अभिभावक हैरान परेशान है कि आखिर बच्चो की परवरिश में क्या कमी रह रही है। अपने लाडलो को समझाने बुझाने में कहा खोट है कहा चूक रहे है हम।ं
आज देशभर के शिक्षको, मनोचिक्ति्सको, और माता पिताओ के सामने बच्चो द्वारा की जा रही आत्महत्याए तथा रोज रोज स्कूलो में हिंसक घटनाओ से नई चुनौतिया आ खडी हुई है। आज बाजार का सब से अधिक दबाव बच्चो और युवाओ पर है। दिशाहीन फिल्मे युवाओ और बच्चो को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है। जब से हालीवुड ने भारत का रूख किया है स्थि्ति बद से बदतर हो गई है। बे सिर पैर की एक्शन फिल्मे सुपरमैन, डैकूला, ट्रमीनेटार, हैरीपौटर जैसी ना जाने कितनी फिल्मे बच्चो के दिमाग में फितूर भर रही है। वही वान्टेड, बाबर, अब तक छपपन, वास्तव, आदि हिंसा प्रधान फिल्मे युवाओ की दिशा बदल रही है। आज का युवा खुद को सलमान खान, शाहरूख खान, अजय देवगन, रिर्तिक रोशन, शाहिद कपूर, अक्षय कुमार की तरह समझता है और उन्ही की तरह ऐकशन भी करता है। ये तमाम फिल्मे संघर्षशीलता का पाठ पाने की बजाये यह कह रही है कि पैसे के बल पर सब कुछ हासिल किया जा सकता है, छल, कपट, घात प्रतिघात, धूतर्ता, ठगी, छीना झपटी ,कोई अवगुण नही है इस पी पर फिल्मी ग्लैमर ,कृत्रिम बाजार और नई चहकती दुनिया, शारीरिक परिवर्तन ,सैक्स की खुल्लम खुल्ला बाजार में उपलब्ध किताबे ,ब्लू फिल्मो की सीडी डीवीडी व इन्टरनेट और मोबाईल पर सेक्स की पूरी कि्रयाओ सहित जानकारी हमारे किशोरो को बिगाडने में कही हद तक जिम्मेदार है। इस ओर किशोरो का बता रूझान ऐसा आकर्षण पैदा कर रहा है जैसे भूखे को चॉद रोटी की तरह नजर आता है।
गुजरे कुछ वर्षा मे हमारे घरो की तसवीर तेजी से बदली है पिता को बच्चो से बात करने की उनके पास बैठने और पाई के बारे में पूछने की फुरसत नही। मॉ भी किटटी पॉिट्रयो ,शापिंग घरेलू कामो में उल्झी है। आज के टीचर को शिक्षा और छात्र से कोई मतलब नही उसे तो बस अपने टुयूश्न से मतलब है। फिक्र है बडे बडे बैच बनाने की एक एक पारी में पचास पचास बच्चो को टुयूशन देने की। शिक्षा ने आज व्यापार का रूप ले लिया है। दादा दादी ज्यादातर घरो में है नही। ज्यादातर हाई सोसायटी घरो में एक अकेला बच्चा है। अकेला बच्चा क्या करे किस से बोले किस के संग खेले। आया के साथ माली के साथ। पडोस और पडोसी से इन पॉश कालोनी वालो का कोई वास्ता नही होता। बच्चा अकेलेपन ,सन्नाटे ,घुटन और उपेक्षा के बीच बडा होता है। बच्चे को ना तो अपने मिलते है और ना ही अपनापन। लेकिन उम्र तो अपना फर्ज निभाती है बडे होते बच्चो को जब प्यार और किसी के साथ ,सहारे की जरूरत पडती है तब उस के पास मॉ बाप चाचा चाची दादा दादी या भाई बहन नही होते। होता है अकेलापन पागल कर देने वाली तन्हाई या फिर उस के साथ उल्टी सीधी हरकते करने वाले घरेलू नौकर।
ऐसे में आज की युवा पी को टूटने से बचाने के लिये सही राह दिखाने के लिये जरूरी है की हम लोग अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझे और समझे की हमारे बच्चे इतने खूंखार इतने हस्सास क्यो हो रहे जरा जरा सी बात पर जान देने और लेने पर क्यो अमादा हो जाते है इन की रगो में खून की जगह गरम लावा किसने भर दिया है। इन सवालो के जवाब किसी सेमीनार पत्र पत्रिकाओ या एनजीओ से हमे नही मिलेगे इन सवालो के जवाबो को हमे बच्चो के पास बैठकर उन्हे प्यार दुलार और समय देकर हासिल करने होगे। वास्तव में घर को बच्चे का पहला स्कूल कहा जाता है आज वो ही घर बच्चो की अपनी कब्रगाह बनते जा रहे है। फसल को हवा पानी खाद दिये बिना बयि उपज की हमारी उम्मीद सरासर गलत है। बच्चो से हमारा व्यवहार हमारे बुापे पर भी प्रशन चिन्ह लगा रहा है। आज पैसा कमाने की भागदौड में जो अपराध हम अपने बच्चो को समय न देकर कर रहे है वो हमारे घर परिवार ही नही देश और समाज के लिये बहुॅत ही घातक सिद्व हो रहा ह

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  1. शादाब ज़ाफर जी कहते हैं।===>”आज पैसा कमाने की भागदौड में जो अपराध हम अपने बच्चो को समय न देकर कर रहे है वो हमारे घर परिवार ही नही देश और समाज के लिये बहुत ही घातक सिद्व हो रहा है।”====
    बिलकुल सही कहा, शादाब ज़ाफर भाई। अमरिका जिस राह से आगे जाकर खाई में गिरा हुआ है, इससे कुछ पाठ तो निश्चित सीखा जा सकता है।यहां केवल २१ % माता-पिता अपने सगे (जिन्हें उन्हींने जन्म दिया हो ऐसे) बालकों के साथ रहते हैं। ५४% नारियां और ५०% मनुष्य जीवनमें एक बार भी विवाह नहीं करते।
    बाकी एक रात की दोस्ती से काम चला लेते हैं। यहां का मोटेल व्यवसाय इसीपर चलता है। शुक्रवारकी रात्रि डेटींग रात्रि मानी जाती है।
    बच्चे भी अपने आपको मां-बाप की रंगरलियों के बायप्रॉडक्ट मानते हैं, कोई आदर की बात नहीं।

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