मेरे क़ातिल कोई और नहीं मेरे साथी निकले
मेरे जनाजे के साथ बनकर वो बाराती निकले
रिश्तेदारों ने भी रिस्ता तोड़ दिया उस वक़्त
जब दौलत कि तिजोरी से मेरे हाथ खली निकले
मेरे किस्मत ने ऐसे मुकाम पर लाकर छोड़ दिया
ग़ैर तो गैर मेरे अपने साये भी सवाली निकले
मोहबात का गुलासनं वीरान हो गया गुल के बगैर
सैयाद कोई और नहीं खुद माली निकले
जो लूट लेते थे कभी गरीबों के कफ़न
आज वो जामने के नज़र में बड़े दानी निकले
इन पापियों के काफिला कहां निकला “आलम”
कुछ लोग क़ाबा तो कुछ लोग कासी निकले
जो लूट लेते थे कभी गरीबों के कफ़न
आज वो जमाने के नज़र में बड़े दानी निकले
सुन्दर ग़ज़ल.