सड़क के किनारे, छोटे-छोटे घरौंदों में
टिमटिमाती रोशनी के सहारे जीते हैं खानाबदोश
न समाज का फिक्र न ही सभ्यता की चाह
फकत दो वक़्त की रोटी है इनके जीने की चाह
दिन का उजाला हो या रात की तारीकी
सब दिन बराबर है इनकी जिन्दगी
कहीं संगतराशी तो कहीं बांस की कलाकारी
बेफिक्र, बेलौस हुनर की दिखाते हैं बाजीगरी
इंसान होकर भी इंसानी फितरतों, नफरतों से महरूम
बस लाचारी और बेबसी है इनके जिन्दगी का मजमून
सियासत, सरकार और सुविधा की उन्हे नहीं जरूरत
चिलचिलाती धूप में बहते पसीने की खुशबू से तर-बतर जीने की है आदत।।
एम. अफसर खां सागर
बहुत खूब ! सच्ची और मन को छू लेने वाली कविता ।