‘गैर-बराबरी’ आखिर अर्थशास्त्र का मुद्दा बना

 अरुण माहेश्वरी

नवउदारवाद के लगभग चौथाई सदी के अनुभवों के बाद मुख्यधारा के राजनीतिक अर्थशास्त्र को बुद्ध के अभिनिष्क्रमण के ठीक पहले ‘दुख है’ के अभिज्ञान की तरह अब यह पता चला है कि दुनिया में ‘गैर-बराबरी है’, और, इस गैर-बराबरी से निपटे बिना मुक्ति नहीं, अर्थात लगातार घटती अवधि के आर्थिक-संकटों के आवर्त्तों में डूबने से बचने का रास्ता नहीं है।

‘द इकोनामिस्ट’ पत्रिका के ताजा (13-19 अक्तूबर 2012) अंक में विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में उन्नीस पन्नों की एक विशेष रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। ‘इकोनामिस्ट’ में आम तौर पर किसी भी खास विषय पर चौदह पन्नों की विशेष रिपोर्ट प्रकाशित करने की अपनी परंपरा है। उसकी जगह इस रिपोर्ट का थोड़ा बढ़ा हुआ कलेवर मात्र इसके महत्व को नहीं बढ़ाता है। इसके अलावा विश्व-अर्थव्यवस्था को अपनी विशेष रिपोर्ट का विषय बनाना भी ‘इकोनामिस्ट’ के लिये कोई खास बात नहीं है। लेकिन, इस उन्नीस पन्नों की रिपोर्ट की सबसे खास बात यह है कि शायद पहली बार ‘इकोनामिस्ट’ के पृष्ठों पर सिर्फ ‘गैर-बराबरी’ की समस्या को केंद्र में रख कर विश्व अर्थ-व्यवस्था का सिहांवलोकन किया गया है।

1989 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के पराभव और ‘इतिहास के अंत’ के विचारों से तैयार हुई जमीन पर जब अमेरिका ने एक-ध्रुवीय विश्व कायम करने के उद्देश्य से अपने वैश्वीकरण का अश्वमेघ यज्ञ शुरू किया था, तब आईएमएफ, विश्वबैंक, और परवर्ती डब्लूटीओ से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह के सारे बहु-स्तरीय विश्व-संगठनों की बड़ी सी सेना पूरे दम-खम के साथ उसकी इस विश्व विजय की लड़ाई में उतर गयी थी। मान लिया गया था कि अब रास्ता पूरी तरह से साफ है, घोड़ा दौड़ाना भर बाकी है और सभी स्वतंत्रताओं के मूल, ‘वाणिज्यिक स्वतंत्रता’ के ध्वजाधारी अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया को संवरते देर नहीं लगेगी; जैसे अमेरिका के पास कभी साधनों की कोई कमी नहीं रही, उसी प्रकार अब पलक झपकते दुनिया की सारी समस्याओं के समाधान में कोई बाधा नहीं रहेगी। आनन-फानन में साल भर के अंदर ही, 1990 में ढेर सारी प्रतिश्रुतियों के साथ यूएनडीपी की ओर से पहली मानव विकास रिपोर्ट आई। ‘समाजवाद’ नहीं रहा तो उसका गम क्या? गरीबों के परवरदीगार और भी है! उल्टे, समाजवाद के नाम पर ‘विचारधाराओं’ का एक निरर्थक बतंगड़, शीतयुद्ध का झूठा तनाव था जिसके चलते अरबो-खरबों प्रभुत्व को खोने-पाने की थोथी आशंकाओं की भेंट चढ़ जाता था! इसीलिये कहा गया कि आर्थिक विकास को मानव विकास में बदलने का रास्ता किसी विचारधारा का मुहताज नहीं है, इसके लिये बस जरूरी है ठोस प्रश्नों की ठोस पहचान और उनके समाधान की ठोस कोशिशें। मानव विकास रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में उसी दिशा में उठाया एक महत्वपूर्ण कदम बताया गया।

1990 में मानव विकास की अवधारणा को परिभाषित करने और उसे मापने के मानदंडों को निर्धारित करने के उद्देश्य से जो पहली मानव विकास रिपोर्ट प्रकाशित हुई उसमें तत्कालीन दुनिया की ठोस परिस्थिति का जायजा लेते हुए पहली बात यह लक्षित की गयी कि पिछले तीन दशकों में विकासशील देशों ने मानव विकास की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। दूसरी, यह कि आमदनी के मामले में खाई बढ़ने पर भी मूलभूत आर्थिक विकास के मामले में उत्तर-दक्षिण के बीच का फासला काफी कम हुआ है। तीसरी, मानव विकास में प्रगति के औसत आंकड़ों से विकासशील देशों के अंदर – शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच, आदमी और औरत के बीच, धनी और गरीब के बीच – भारी विषमताओं पर पर्दादारी होती है। इसीप्रकार, उसका चौथा अवलोकन यह था कि कम आमदनी के बावजूद मानव विकास का सम्मानजनक स्तर प्राप्त करना संभव है। साथ ही यह भी कहा गया कि आर्थिक विकास और मानव प्रगति के बीच कोई स्वचालित संबंध नहीं है; गरीबों को सामाजिक क्षतिपूर्ति की जरूरत है; विकासशील देश इतने भी गरीब नहीं हैं कि वे आर्थिक विकास के साथ ही मानव विकास की कीमत न चुका सके; समायोजन के लिये मानव कीमत अनिवार्य नहीं, बल्कि चयन की बात है; मानव विकास की नीतियों की सफलता के लिये अनुकूल बाहरी परिवेश जरूरी है; कुछ विकासशील देशों, खास कर अफ्रीका के कुछ देशों को विदेशी सहायता की आवश्यकता है; विकासशील देशों में मानव क्षमताओं को बढ़ाने के लिये तकनीकी सहयोग देना होगा; मानव विकास के कामों में सफलता के साथ गैर-सरकारी संगठनों को शामिल करना होगा; आबादी में वृद्धि को रोकना जरूरी है; तेजी के साथ लोग शहरों में जमा हो रहे हैं तथा भावी पीढ़ियों की जरूरतों के साथ कोई समझौता किये बगैर आज की पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिये विकास की एक टिकाऊ नीति तैयार करनी होगी। इन्हीं, कुल सोलह अवलोकनों और निष्कर्षों के आधार पर मानव विकास की अवधारणा और उसको मापने के मानदंड तय किये गये।

आगे इसी अवधारणा और माप के मानदंड के आधार पर दुनिया की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के नाना पक्षों के बारे में पिछले 21 वर्षों से हर साल एक के बाद एक मानव विकास रिपोर्ट आरही है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, पहली रिपोर्ट ‘मानव विकास की अवधारणा और उसके आकलन’ के अलावा ‘मानव विकास के लिये जरूरी वित्तीय संसाधनों को जुटाने के बारे में’ थी, फिर ‘मानव विकास के वैश्विक आयाम’, ‘जनभागीदारी के सवाल’, ‘मानव सुरक्षा के नये आयाम’, ‘लैंगिक प्रश्न और मानव विकास’, ‘आर्थिक अभिवृद्धि और मानव विकास’,‘गरीबी निवारण’, ‘उपभोग’, ‘मानवीय चेहरे के साथ वैश्वीकरण’, ‘मानव अधिकार’, ‘नयी तकनीकों के प्रयोग’, ‘विखंडित विश्व में जनतंत्र की जड़ों को गहरा करने’, ‘नयी सहस्त्राब्दि के लिये मानव समाज से गरीबी को दूर करने का राष्ट्रों का संकल्प’, ‘आज के विविधतापूर्ण विश्व में सांस्कृतिक स्वतंत्रता’, ‘अन्तरराष्ट्रीय सहयोग’, ‘ऊर्जा, गरीबी और जल का वैश्विक संकट’, ‘बदलते मौसम की समस्या से निपटने’, ‘मानव गतिशीलता’, ‘राष्ट्रों की वास्तविक संपदा’, ‘सबके लिये बेहतर भविष्य के लिये टिकाऊ विकास और न्याय’ जैसे 21 विषयों पर क्रमश: एक के बाद एक, अब तक कुल 21 रिपोर्टें आचुकी हैं।

गौर करने लायक बात यह है कि इन सभी रिपोर्टों में किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से राष्ट्रों के बीच और राष्ट्रों के अंदर गैर-बराबरी से जुड़े ढेरों तथ्य प्रकाशित हुए हैं। लेकिन गैर-बराबरी का सवाल मानव विकास के भौतिक और आत्मिक, दोनों पक्षों के लिये एक सबसे अहम और केंद्रीय सवाल होने पर भी मजे की बात यह है कि आज तक मुख्यधारा के सामाजिक-आर्थिक विमर्श में इसे अलग से किसी विचार का विषय नहीं बनाया गया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की तर्ज पर ही दुनिया के और देशों में भी सरकारी स्तर पर मानव विकास संबंधी रिपोर्टें तैयार करने का सिलसिला शुरू होगया। खुद संयुक्त राष्ट्र ने भी क्षेत्र विशेष के लिये ऐसी अलग-अलग रिपोर्टें तैयार की। इन सबको एक प्रकार के नये दृष्टिकोण के आधार पर सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से रूबरू होकर उनके समाधान की नयी रणनीतियों की दिशा में बढ़ने का उपक्रम कहा जा सकता है। इन सांस्थानिक और सरकारी उपक्रमों के साथ ताल मिलाते हुए ही अर्थनीति के अध्येताओं की भी एक नयी फौज सामने आयी। इनमें विशेष तौर पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान के विशेष सलाहकार जैफ्री सैक्स की किताब ‘द एंड आफ पावर्टी’(2005) और 2011 में प्रकाशित अभिजीत वी. बनर्जी और एस्थर दुफ्लो की एक बेस्टसेलर किताब ‘पूअर इकोनामिक्स’ की चर्चा की जा सकती है। गरीबी में फंसे लोगों को उससे उबारने के लिये दुनिया के अलग-अलग कोनों की ठोस समस्याओं के ठोस उपायों को बताने वाली बनर्जी-दुफ्लो की इस बेहद आकर्षक और उत्तेजक किताब के पहले अध्याय में ही पूरे निश्चय के साथ इस किताब के मूल संदेश की इस प्रकार घोषणा की गयी है कि इस किताब का संदेश गरीबी के फंदों से कहीं परे जाता है। जैसाकि हम देखेंगे कि विशेषज्ञजन, राहतकर्मी अथवा स्थानीय नीति नियामकों में अक्सर तीन आई – आइडियोलोजी, इग्नोरेंश और इनर्शिया (विचारधारा, अज्ञान और अंतर्बाधा) – से इस बात को जाना जा सकता है कि नीतियां (अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में) क्यों विफल होती है और क्यों किसी सहायता का कांक्षित फल नहीं मिल पाता है।

यहां हमारे कहने का यह तात्पर्य कत्तई नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं अथवा अर्थशास्त्रियों की नयी फौज के इन अध्ययनों में कोई सचाई नहीं है और विश्व अर्थ-व्यवस्था के विकास की समस्याओं में इन अध्ययनों का कोई महत्व नहीं है। उल्टे, वास्तविकता यह है कि इस प्रकार के छोट-छोटे स्तरों तक जाकर नाना प्रकार के विषयों की ठोस और गहन अध्ययन की कमियों ने दुनिया में समाजवाद की पूरी परिकल्पना का जितना नुकसान पहुंचाया उसकी थाह पाना मुश्किल है। यहां तक कहा जा सकता है कि समाजवादी प्रकल्प की विफलता के मूल में ‘तथ्यों से सत्य को हासिल करने’ की वैज्ञानिक पद्धति की अवहेलना ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। छोटी-छोटी सचाईयों को विचारधारा के भारी-भरकम कालीन के नीचे दबा कर समाजवादी दुनिया की नौकरशाहियां अपना उल्लू सीधा कर रही थी।

इसीलिये, अर्थनीति का दुनिया के कोने-कोने की ठोस सचाइयों की ओर मुखातिब होना, सिर्फ सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिये ही नहीं, अर्थनीतिशास्त्र को भी अपनी आत्मलीनता से उबारने के लिये बेहद जरूरी है और इस दिशा में होने वाली हर कोशिश का स्वागत ही किया जाना चाहिए। इसके बावजूद, कोई माने या न माने, यह बात बेझिझक कही जा सकती है कि गैर-बराबरी को दूर करने अर्थात समानता का प्रश्न अन्तत: एक विचारधारात्मक प्रश्न ही है। इस विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य को गंवा कर मानव विकास की यात्रा किसी लंबी दूरी को तय नहीं कर सकती है, समाजवाद के पराभव के बाद के इन बाईस वर्षों के अनुभवों से इतना तो जाहिर है। पूंजीवादी परिप्रेक्ष्य से चिपक कर ‘गैर-बराबरी’ को खत्म करने की अपेक्षा करना एक प्रकार से अर्थनीतिशास्त्र से इच्छा-मृत्यु की अपेक्षा करने के समान है।

समाजवाद ने सभ्यता के विकास की प्रक्रिया में आदमी की अकूत सर्जनात्मकता के उन्मोचन के अलावा जिस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर मनुष्यता का ध्यान खींचा था वह समानता का प्रश्न था, गैर-बराबरी को दूर करने का प्रश्न था। यह प्रश्न आर्थिक आधार से लेकर अधिरचना के पूरे ताने-बाने, सबसे अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ प्रश्न है। फ्रांसीसी क्रांति के झंडे पर स्वतंत्रता और भाईचारे को जोड़ने वाली अनिवार्य कड़ी के तौर पर समानता की बात कही गयी थी, लेकिन कालक्रम में देखा गया कि समानता की लड़ाई सिर्फ समाजवाद की लड़ाई बन कर रह गयी। और, कहने की जरूरत नहीं कि समाजवाद के पराभव के बाद, इसी समानता के सवाल को, गैर-बराबरी को दूर करने के सवाल को आर्थिक चर्चाओं की किसी सुदूर पृष्ठभूमि में डाल दिया गया। गरीबी को दूर करने की बात होती है, पिछड़ेपन के दूसरे सभी रूपों से मुक्ति की चर्चा की जाती है, लेकिन जब गैर-बराबरी का सवाल आता है तो उसे लगभग एक ध्रुव और अटल सत्य मान कर उसके निवारण की चर्चा से सख्त परहेज किया जाता है। इसीलिये ‘इकोनामिस्ट’ जैसी मुख्यधारा की आर्थिक पत्रिका के ताजा अंक में गैर-बराबरी को अध्ययन का विषय बनाया जाना कुछ हैरतअंगेज, और कुछ विचारणीय बात भी लगती है।

‘इकोनामिस्ट’ ने अपनी इस पूरी चर्चा को ‘सच्चा प्रगतिवाद’ बताया है। इसके सार-संक्षेप में कहा गया है कि 19वीं सदी के अंत तक वैश्वीकरण के प्रथम युग और अनेक नये आविष्कारों ने विश्व अर्थ-व्यवस्था को बदल दिया था। लेकिन वह ‘सुनहरा युग’ (गिल्डेड एज)ˡ भी गैर-बराबरी के लिये प्रसिद्ध था जब अमेरिका के लुटेरे शाहों (रौबर बैरोन्स) और यूरोप के ‘कुलीनों’ (डाउनटन एबे)² ने भारी मात्रा में धन इकठ्ठा किया था : 1899 से ही ‘उत्कृष्ट उपभोग’ (कॉन्सपीक्यूअस कंजम्प्शन)³ की अवधारणा आगयी थी। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई (और समाजवादी क्रांति के भय) ने थियोडर रूजवेल्ट के ‘न्यास भंजन’ (ट्रस्ट बस्टिंग)4 से लेकर लॉयड जार्ज के जनता के बजट तक के सुधारों की एक धारा पैदा की। सरकारों ने प्रतिद्वंद्विताओं को बढ़ावा दिया, प्रगतिशील कर-प्रणाली लागू की और सामाजिक सुरक्षा के जाल के प्रथम धागों को बुना। ‘प्रगतिशील युग के रूप में अमेरिका में जाने जानेवाले इस नये युग का उद्देश्य था उद्यम की ऊर्जा को बिना कम किये एक न्यायसंगत समाज तैयार करना।

इसी संदर्भ में ‘इकोनामिस्ट’ का कहना है कि आधुनिक राजनीति को इसीप्रकार के एक पुनआर्विष्कार की, आर्थिक विकास को बिना व्याहत किये गैर-बराबरी को दूर करने के मार्ग के साथ सामने आने की जरूरत है।

सबसे गौर करने की बात यह है कि यह समूची चर्चा आज राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर अमेरिका की राजनीति का एक केंद्रीय विषय बनी हुई है। ओबामा समर्थक रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी को लुटेरा शाह कह रहे हैं, तो रोमनी समर्थक ओबामा को ‘वर्ग योद्धा’ कह कर कोस रहे हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रासवां सोलेड ने अमीरों पर आयकर की दर को बढ़ा कर 75 प्रतिशत कर देने की मांग की है। तमाम साजिशों को धत्ता बताते हुए समाजवाद की शपथ लेकर फिर एक बार वेनेजुएला के राष्ट्रपति चुनाव में शानदार जीत हासिल करने वाले शावेज कहते हैं कि अगर वे अमेरिका में होते तो आगामी राष्ट्रपति चुनाव में ओबामा का समर्थन करते।

अमेरिका और यूरोप की राजनीति और अर्थनीति के क्षेत्र में चल रहा यह उल्लेखनीय विमर्श राजनीति के किसी भी विद्यार्थी के लिये गहरी दिलचस्पी का विषय हो सकता है। नोम चोमस्की ने एकबार कहा था कि आज की विश्व परिस्थितियों में अमेरिकी सत्ता की नीतियों में मामूली परिवर्तन भी दुनिया की राजनीति में भारी परिवर्तनों का सबब बन सकती है। इसलिये भी इसओर खास नजर रखने की जरूरत है।

1.‘सुनहरा युग’ (गिल्डेड एज) अमेरिका में गृहयुद्ध (1877 से 1893) के बाद के काल को कहते है जब एक नये युग, ‘प्रगतिशील युग’ का श्रीगणेश हुआ बताया जाता है। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वैन और चाल्र्स डुड्ले वार्नर की पुस्तक ‘द गिल्डेड एज : अ टेल आफ टुडे’ से यह पद प्रचलन में आया था।

2.‘डाउनटन एबे’ एक बेहद प्रसिद्ध ब्रिटिश-अमेरिकी टेलिवीजन सीरियल का शीर्षक है जिसमें इंगलैंड के राजा एडवर्ड सप्तम के काल (1901-1910) के समय के ‘डाउनटन एबे’ के एक काल्पनिक स्थल यार्कशायर कंट्री एस्टेट में बसे हुए एक कुलीन परिवार की कहानी है।

3.‘कान्सपिक्युअस कंजम्प्शन’ पद को प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थोरस्ताईन वेबलेन ने अपनी पुस्तक ‘द थ्योरी आफ द लेजर क्लास : ए इकोनॉमिक स्टडी इन द इवोल्यूशन आफ इंस्टीट्यूशन्स’ (1899) में नवधनाढ्यों के व्यवहार को दर्शाने के लिये किया था जो अपनी ताकत और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करने के लिये अपने धन का महंगी और ऐश की चीजों की खरीद के लिये प्रयोग किया करते थे।

4.‘ट्रस्ट बस्टर’ : अमेरिका के 26वें राष्ट्रपति थियोडर रूजवेल्ट (1901-1909) की पहचान अमेरिकी इतिहास में एक प्रगतिशील सुधारक के रूप में की जाती है जो इजारेदारी के सख्त खिलाफ था और उसने अपने काल में 40 इजारेदार निगमों को भंग कर दिया था। उनके शासनकाल को ‘प्रगतिशील युग’ के नाम से जाना जाता है और रूजवेल्ट को ‘ट्रस्ट बस्टर’ अर्थात ‘न्यास भंजक’।

2 COMMENTS

  1. पता नहीं कैसे आपने गौर नहीं किया कि इस लेख में समाजवाद की विफलताओं की बात बहुत साफ तौर पर कही गयी है। लेख के इस पैरा पर ध्यान दीजिये :
    ‘यहां हमारे कहने का यह तात्पर्य कत्तई नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं अथवा अर्थशास्त्रियों की नयी फौज के इन अध्ययनों में कोई सचाई नहीं है और विश्व अर्थ-व्यवस्था के विकास की समस्याओं में इन अध्ययनों का कोई महत्व नहीं है। उल्टे, वास्तविकता यह है कि इस प्रकार के छोट-छोटे स्तरों तक जाकर नाना प्रकार के विषयों की ठोस और गहन अध्ययन की कमियों ने दुनिया में समाजवाद की पूरी परिकल्पना का जितना नुकसान पहुंचाया उसकी थाह पाना मुश्किल है। यहां तक कहा जा सकता है कि समाजवादी प्रकल्प की विफलता के मूल में ‘तथ्यों से सत्य को हासिल करने’ की वैज्ञानिक पद्धति की अवहेलना ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। छोटी-छोटी सचाईयों को विचारधारा के भारी-भरकम कालीन के नीचे दबा कर समाजवादी दुनिया की नौकरशाहियां अपना उल्लू सीधा कर रही थी।’ (जोर हमारा)
    जब हम ‘समाजवादी दुनिया की नौकरशाहियों’ की बात करते हैं तो इससे समाजवादी देशों में उभर कर सामने आने वाली सारी विकृतियां अभिहित होजाती है, जिनमें जनतंत्र को पहुंचाया गया नुकसान भी शामिल है। फिर भी इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि इतिहास ने समाजवाद को ही दुनिया में समानता की लड़ाई का पर्याय बना दिया है।

  2. अरुण जी, आपने विश्लेष्ण तो अच्छा किया ,पर आप भूल गए कि उसी साम्यवाद ने ज्यादातर तानाशाहों को जन्म दिया.रूमानिया का उदाहरण आप नहीं भूले होंगे.रूस और चीन को भी साम्यवाद को मजबूरन तिलांजलि देनी पडी थी. यह भी सही है कि पूंजी वाद भी इस गैर बराबरी का समाधान ढूँढने में असफल रहा है.मेरे विचारानुसार,ऐसे भी पूंजीवाद का विकास एक पेंडुलम की तरह एक निर्धारित पथ पर आगे और पीछे घूमता रहता है.विगत वर्षों में इन दोनों का खोखलापन सिद्ध हो चूका है.अब बात आती है विकास के लिए किसी अन्य पथ की तो मैं तोकोई अर्थ शास्त्री तो हूँ नहीं कि विश्व के लिए कोई रास्ता ढूंढ सकू,पर मेरे विचार से भारत केविकास के लिए और गैर बराबरी को कम करने के लिए एक ही रास्ता बचता है,जिसे महात्मा गांधी और पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने सुझाया था.वह है गांवों से विकास का प्रारंभ और वह भी अंतिम पिछड़े हुए आदमी से.

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