अहिंसा है सुखी समाज का आधार

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ahinsaगणि राजेन्द्र विजय-
हम सफल जीवन जी रहे हैं या असफल, सुखी हैं या दुःखी, आगे बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस दृष्टि से देख रहे हैं या नाप रहे हैं? हम सफलता का मापदण्ड इस बात से तय करते हैं कि जीवन के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया है। जिस चीज को हम अपना केन्द्र मानते हैं या धुरी बनाते हैं उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। जिस दृष्टिकोण से जीवन का लक्ष्य बनाया है उसको पाने मंे जीवन की अधिकांश ऊर्जा लगाते हैं। सुख या दुःख वस्तु के संग्रह से नापा जायेगा। इस दृष्टिकोण से सुख-दुःख सापेक्षिक शब्द बन जाता है। किसी एक कार्य को करने में या कुछ उपलब्धियों को प्राप्त करने में एक व्यक्ति सुख की अनुभूति कर सकता है लेकिन दूसरा दुःख की। अतः यह व्यक्तिगत अनुभूति है और इसके निरपेक्ष मापदण्ड नहीं हो सकते। अतः जैसा एक व्यक्ति अपने लिए लक्ष्य तय करेगा वैसा ही उसका मापदण्ड होगा और उसी से सुख-दुःख, सफलता-असफलता तय करेगा व सुख-दुःख का आभास करेगा। वास्तविक या निरपेक्ष सुख और सुखी जीवन वस्तु आधारित नहीं है बल्कि सिद्धांत या मूल्य आधारित है और इस प्रकार का सुख सबके लिए समान अनुभूतिपरक है।
व्यक्ति सुख की तलाश में सुख का आभास प्राप्त करता है और उसी प्राप्ति के लिए क्या-क्या धुरियां या लक्ष्य बनाता है। कोई अपने परिवार को धुरी बनाता है तो कोई अपनी पत्नी या प्रेमी को। कोई धन प्राप्ति को बनाता है तो कोई यश प्राप्ति को। कोई माता-पिता को धुरी बनाता है तो कोई स्वयं को। कोई कार्य करने को धुरी बनाता है तो कोई मौजमस्ती को। प्रत्येक व्यक्ति अपनी धुरी बनाकर कार्य करता है और उसी दृष्टि से जीवन की सफलता या असफलता
को आंकता है।
दुःख जीवन का शाश्वत या आर्यसत्य बताया है। दुःख का निवारण कैसे हो? इसकी खोज में अनंत काल से मनीषियों ने अपना जीवन लगाया और पाया कि दुख का कारण है और इसका निवारण भी है। दुख के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है चाह, इच्छा या कामना। चाहे का न होना और अनचाहे का हो जाना दुःख का मूल कारण है। हम जन्म से ही कुछ न कुछ चाहते हैं और चाह की पूर्ति न होने पर हम दुःखी होते हैं।
चाह का बदला रूप है आकांक्षा। हम जीवन में ऊंचा पद, यश, कीर्ति चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा नाम अखबार में छपे, टी.वी. पर आए। दुनिया का ऊंचे से ऊंचा पद या पुरस्कार पाने की लालसा प्रत्येक व्यक्ति में दिखाई देती है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, चित्ऱकार, संगीतकार, कलाकार, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी आदि सबमें होड़ लगी है। सफल तो एक होता है, शेष सभी दुखी होते हैं। आकांक्षा, प्रगति या विकास की जननी है परन्तु दुख का मूल भी है।
आकांक्षा अपने आप में बुरी नहीं है परन्तु जब यह ममत्व एवं संग्रह की प्रवृत्ति से जुड़ जाती है तो यह न केवल स्वयं के लिए दुख का कारण बनती है वरन् पूरे समाज में विग्रह और विषमता का कारण बनती है। संग्रह की प्रवृत्ति से पैदा होता है लोभ और कपट। निजी और सामाजिक व्यवहार में, व्यापार और उद्योग तथा सभी क्षेत्रों में प्रामाणिकता के स्थान पर जन्म होता है धोखाधड़ी, मिलावट, आपाधापी और जनविरोधी व्यवस्थाओं का। संग्रह करने वाला स्वयं तो दुखी होता ही है दूसरे भी दुखी होते हैं क्योंकि वे ही बनते हैं धोखाधड़ी व शोषण के शिकार।
आकांक्षा जन्म देती है अहं और लोभ को। अहं से पैदा होता है क्रोध और संघर्ष। विजयी बनने की आकांक्षा उचित-अनुचित की सीमा समाप्त कर देती है। संघर्ष जब हिंसात्मक हो जाता है तब मूक वर्ग (जिसमें गरीब समाज भी शामिल है) हिंसा के शिकार बनते हैं, भोग-उपभोग के साधन बनते हैं, शासित व दमित होते हैं। शासक बन जाते हैं शोषक और शासित बन जाते हैं शोषित या शोषण के साधन। जब तक आकांक्षा और संग्रहवृत्ति बनी है, शोषण का चक्रव्यूह बना रहेगा।
साधनों की प्रचुरता के बावजूद सुखी महसूस न करने पर आनंद की खोज में कुछ लोग अन्यत्र भटकते हैं। कुछ लोग यश-कीर्ति में आनंद खोजते हैं तो कलाकार, साहित्यकार, राजनेता, समाजसेवी आदि बनते हैं। जो इसमें भी सुखी नहीं होते वे अंतर की खोज प्रारंभ कर अध्यात्म में रमण करते हैं। परन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो अध्यात्म में सही जगह पर पहुंच जाएं। बीच में कई अटकाव व ठहराव आते हैं जो यशकीर्ति के लालच में मार्ग से पद्च्युत हो, ‘पंथ’ व ‘सम्प्रदाय’ के नाम पर हिंसा और संघर्ष की ओर ले जाते हैं।
अध्यात्म के नाम पर ‘पंथ’ और ‘सम्प्रदायों’ की स्थापना हुई और अपने-अपने अनुयायी बनाने की होड़ में हिंसा, युद्ध और ताकत का प्रयोग हुआ, इतिहास इसका साक्षी है। युद्ध और बल प्रयोग के लिए शासक वर्ग का सहयोग आवश्यक है। धार्मिक नेता अपने प्रचार-प्रसार के लिए शासक वर्ग का संरक्षण लेते हैं तो बदले में शासक वर्ग धार्मिक नेताओं से ऐसे नियमों का प्रतिपादन करवाते हैं जो उनका समर्थन करे और साधनवानों का वर्चस्व बनाए रखे।
शासक वर्ग की इच्छा रही कि समाज में विप्लव या आंदोलन न हो, व्यवस्था एवं यथास्थिति बनी रहे तथा दबे हुए लोग दबे ही रहे। धार्मिक नेताओं के माध्यम से यह व्यवस्था कर दी गई। धार्मिक नेताओं के उपदेश इसी दृष्टिकोण से प्रतिपादित हुए और उनको नैतिक नियम का जामा पहना दिया गया। कानून की पालना के लिए ‘राज्य’ की स्थापना हुई जिसके अंग बने पुलिस, न्यायालय आदि। इस तरह राज्य व धर्म के विभिन्न पंथ और सम्प्रदाय एक दूसरे के पोषक बन साधन-संपन्न लोगों के हितों के संरक्षक बने। राज्य व धर्म ने इस बात की व्यवस्था कर दी कि गरीब गरीबी में ही बना रहे और संपन्न वर्ग की सेवा करते रहे।
संपन्न वर्ग को धन संग्रह की चिंता है तो गरीब को पेट भरने की। मध्यम वर्ग के लोग पेट भरने के बाद संपन्न वर्ग की होड़ में लग जाते हैं। यह दौड़ सबको व्यस्त रखती है। इसी दौड़ में सब दौड़े चले जा रहे हैं और किसी को पता नहीं कि दौड़ का अंत क्या होगा? पर संग्रह के लिए की जा रही दौड़ को समाप्त किए बिना दुःख का अंत नहीं। जब तक दौड़ है सुख की मंजिल बहुत दूर है।
यह कथन उन पर लागू नहीं होता जो केवल रोटी के लिए सुबह-शाम संघर्ष कर रहे हैं। उनके सुख का पहला आधार है जीवन-यापन के पर्याप्त साधन होना और यह तब ही संभव है जब शोषण तंत्र का दबाव कम हो और व्यसन से मुक्ति हो।
शोषण विहीन समाज की रचना के लिए संग्रह स्पर्धा और उपभोग वृत्ति पर रोक आवश्यक है। इससे न केवल स्वयं के जीवन में संतुलन एवं संयम आएगा, समाज में भी संतुलन आएगा। शोषण की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी और इस चक्की में पिस रहे लोगों को राहत मिलेगी। इसलिए भगवान महावीर ने अपरिग्रह को धर्मयात्रा का अभिन्न अंग माना। अपरिग्रह का अर्थ है संग्रह पर सीमा लगाना। इससे शोषण की आधारशिला कमजोर होगी तब हिंसा का ताण्डव नृत्य भी कम होगा। अपरिग्रह के बिना अहिंसा की सही संकल्पना हो ही नहीं सकती और न इसकी सही अनुपालना हो सकती है।
दुख को व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य में न देखकर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो अहिंसा और अपरिग्रह जुड़वां रूप से सुखी समाज का मूल आधार है। दुख का मूल कारण है अभाव। समाज में वस्तुओं के अभाव का कारण है मनुष्य में संग्रह की वृत्ति और साधनों का असमान वितरण।
जब तक सीमित साधन कुछ ही व्यक्तियों के हाथ में संग्रहित है तो समाज का अधिकांश तबका अभावग्रस्त एवं तनावग्रस्त रहेगा। जब तक भूख, गरीबी, शोषण समाज में व्याप्त है शांति की स्थापना नहीं हो सकती और इसके बिना आध्यात्मिक प्रगति भी संभव नहीं है। व्यक्तिगत सुख एवं सामाजिक शांति के लिए संग्रहवृत्ति पर रोक व साधनों का समान वितरण आवश्यक है। अपरिग्रह के आधार पर समाज की संरचना से ही सभी प्राणी सुखी रह सकते हैं।

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