अहिंसक धर्म के उद्घोषक भगवान महावीर

भगवान महावीर का प्रादुर्भाव छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था । जैन धर्मग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर 24 वें तीर्थंकर हैं, किन्तु जैन धर्म का सर्वाधिक विस्तार भगवान महावीर के समय में ही हुआ।

महावीर का जन्म वज्जि राज्य संघ के अन्तर्गत ज्ञातृक गण में हुआ था। ज्ञातृक वर्ग के राजा सिद्धार्थ के वे द्वितीय पुत्र थे। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। उनकी मां वैषालिक राजकुमारी त्रिशला राजाचेटक की बहन थी। वर्धमान की शिक्षा राजवंश की मर्यादा के अनुरूप बचपन में ही प्रारम्भ हो गई थी। शीघ्र ही राजकुमार समस्त विद्याओं और षिल्पों में निपुण हो गये थे।

वर्धमान ने पिता की मृत्यु के बाद अपना घर छोड़ दिया था तथा जंगल की ओर चल पड़े ।वर्धमान ने भिक्षु बनते समय जो कपड़े पहन रखे थे वे जर्जर होकर उतर गये और वे नग्न विचरण करने लगे। समाधि के दौरान उनके शरीर पर जीव- जन्तु चलने- फिरने लगे। जीव जन्तुओं ने उनको विभिन्न स्थानों पर काट लिया किंतु उन्होंने तनिक भी परवाह नहीं की।कठोर तपस्या के बाद तेरहवें वर्ष में महावीर को अपनी तपस्या का फल प्राप्त हुआ। उन्हें पूर्ण सत्य ज्ञान की उपलब्धि हुई तथा उन्होंने केवलिन का पद प्राप्त कर लिया।

केवलिन की प्राप्ति होने के बाद उन्होंने जिस सम्प्रदाय की स्थापना की उसे निग्र्रन्थ के नाम से जाना जाता है। महावीर के शिष्य गण निर्ग्रन्थ या निगन्थ कहलाते थे। निग्र्रन्थ महावीर के विरोधी प्रायःउन्हें निग्रन्थ ज्ञातपुत्र के नाम से पुकारते थे।   भगवान महावीर ने अपने धर्म का प्रचार किया तथा अनेक शिष्य बनाये।

भगवान महावीर अन्तस चेतना के संवाहक एवं अहिंसक धर्म के उद्घोषक थे। उन्होंने अपने जीवन में मानव समाज के अनेक सत्यों एवं तथ्यों को उद्घाटित किया। उन्होंने प्राणिमात्र को जो भी संदेश दिये वे सभी आचरणात्मक थे। उनकी जीवनचर्या व चर्चा उच्चारण व आचरण में कहीं अन्तर नहीं था। भगवान महावीर ने उपर्युक्त पांच सूत्रों के माध्यम से शांति की मशाल जलाई । उन्होंने कहा धर्म अंधविश्वास नहीं जीवन का परम सत्य है। पूर्वाग्रह से मुक्त होकर साधना की गहराई में उतरने वाला व्यक्ति ही परम सत्य का दर्शन करता है।उन्होंने स्त्री व पुरूश दोनों को ही धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की तथा संयास का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने कहा कि व्यक्ति कर्म से ही महान बनता है। भगवान महावीर विश्व इतिहास के सर्वोत्कृष्ट महामानव थे जिन्होंने शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की गंगा को प्रवाहित किया।

भगवान महावीर ने कहा था कि, “वृक्ष के पत्ते पीले पड़कर समय आने पर झड़ जाते हैं उसी प्रकार मानव जीवन भी आयु होने पर समाप्त हो जाता है। अतः हे मनुष्य ! क्षण भर के लिए आलस्य न करें । अपने आप को जीतो, अपने आपको जीतना ही वास्तव में सबसे कठिन काम है। गुणों से मनुष्य साधु होता है अतः सद्गुणों को ग्रहण करो ।, हे पुरूषों!शत्रु और मित्रों को बाहर मत खोजो अपितु अपनी आत्मा को वश में करो। ऐसा करने से दुःखों से मुक्ति प्राप्त होगी। उन्होंने कर्मकाण्डों की जटिलता दूर करने और इसकी वजह से धर्म के मूल स्वरूप को विकृत हो जाने से रोकने के लिए कुछ सरल सिद्धान्त प्रतिपादित किये। उन्होंने अपने समस्त उपदेश लोकभाषा में दिये।वे जनभाषा को ही उन्नत करने के पक्षधर थे। अतः उनके उपदेश सरल एवं रूचिकर होने से आम जनों के अतिरिक्त षासकों में भी लोकप्रिय हुए। इस प्रकार उन्होंने तत्कालीन समाज में आजीवन धर्म चेतना का संचार किया।

महावीर स्वामी की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में तत्कालीन राजगृह के समीप पावा नामक नगर में हुई थी। यह स्थान जैन धर्म का आज भी एक प्रमुख तीर्थ स्थल है।

वर्तमान समय में भी भगवान महावीर के उपदेशों व उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग की महत्ता और अधिक बढ़ गयी है। महावीर जी के शांति व अहिंसा के उपदेशों का प्रचार -प्रसार करने के लिए ही इस दिन पूरे उत्तर भारत में मांस की बिक्री बंद रहती है और गोवध आदि न करने की अपीलें की जाती है। आज समाज में चारों ओर हिंसा अराजकता सहित ईष्र्या द्वेश व महिलाओं के प्रति अपराधों की भयंकर बाढ़ आयी हुई है। सामज में निराशा का वातावरण व्याप्त है। समाज में व्याप्त कुरीतियों व कलियुगी वातावरण को समाप्त करने में महावीर जी के उपदेश आज भी जनमानस की सहायता कर सकते हैं व लाभ पहुचा सकते हैं।

(भगवान महावीर जयंती 2 अप्रैल पर विशेष)

-मृत्युंजय दीक्षित

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