नार्वे के हमले:वैश्विक परिदृश्य में मजबूत होता राष्ट्रवाद

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प्रमोद भार्गव

नार्वे के एक कट्टर दक्षिणपंथी युवक द्वारा किए  लोमहर्षक हमलों ने दुनिया की सांस्कृतिक चेतना को झकझोरा है। आन्द्रेस बेहरिंग ब्रीविक युवक द्वारा किए ये हमले किसी जिहादी आतंकवाद का पर्याय नहीं हैं। ब्रीविक ईसाई कट्टरपंथी विचारधारा से जुड़ा है और दक्षिणपंथी विचारों का निष्ठावान अनुयायी है। वह बहुलतावादी संस्कृति और आव्रजन कानून के भी खिलाफ है। मसलन वह राष्ट्रवादी होने के साथ माक्र्सवाद और इस्लाम का सख्त विरोधी है। ब्रिविक की मनस्थिति को समझना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि उसने अपने ही देश में किसी आतंकवादी क्रिया की प्रतिक्रया स्वरूप ओस्लो में किए धमाकों को अंजाम नहीं दिया। बल्कि ये हिंसक घटनाक्रम उसके लिए स्वप्रेरित और स्वस्फूर्त थे। क्योंकि वह इस बात को लेकर चिंतित और भयभीत था कि उत्तरी अफ्रीका के देशों में चल रही उथलपुथल के कारण जिस तरह से मुस्लिम शरणार्थियों की संख्या में वॢद्धि हो रही है, वह कहीं एक दिन ऐसी समस्या का आयाम न ले ले कि नार्वे के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहचान को ही खतरा उत्पन्न हो जाए ? ब्रीविक की यह मानसिकता निश्चित रूप से एक ऐसी बहस को जन्म देने वाली है जो धर्म, नस्ल, जाति और भाषा के जन्मजात संस्कारों के चलते अनायास उपजने वाले खतरों को रेखांकित करने के लिए बाध्य करती है। इस त्रासदी की बौद्धिक पड़ताल योरोपीय देशों में घटी आतंकवादी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वहां प्रवासी मुसलमानों को राजनीतिक बहस और चुनाव का मुद्दा भी बनाया जा रहा है।

वैश्वीकरण को हम इस रूप में गुणात्मक मानते हैं कि इसकी बिना पर दुनिया की विलक्षण संस्कृतियों के उत्कर्ष और महत्व को समझने में आसानी हुई। संस्कृतियों का विनिमय हुआ। लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद खासतौर से अमेरिका और उसके मित्र देशों की कोशिश रही कि विश्व एक ध्रुवीय हो जाए और उसका नाभिकेन्द्र अमेरिका हो। कमोबेश ये हालात निर्मित हुए भी। अमेरिका ने इसे एक अनुकूल अवसर माना और वह भूमण्डलीय आदशो के बहाने अपने सांस्कृतिक परचम को विश्व फलक पर फैलाने में लग गया। प्रजातांत्रिक मूल्यों और बाजारवाद की ओट में वास्तव में ईसाई कट्टरपंथी (फंडामेंटलिज्म) ने दुनिया के अनेक देशों के सांस्कृतिक वैविध्य को अपनी चपेट में ले लिया। दूसरी तरफ जेहादी इस्लामिक आतंकवाद का हस्तक्षेप कई देशों में बढ़ा । जिसकी प्रतिक्रिया में भारत में जहां ‘हिन्दू आतंकवाद’ कहलें या ‘ भगवा आतंकवाद’ उभरा वहीं नार्वे में दहशतगर्दी की इबारत वहीं के नागरिक ब्रीविक ने लिख डाली। ब्रीविक ने एक दक्षिणपंथी वेब ठिकाने पर फरवरी 2010 में अपनी मंशा भी स्पष्ट की थी, कि योरोपीय देशों की परंपरा, संस्कृति, संप्रभुता और राष्ट्रराज्य की संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की दृष्टि से सांस्कृतिक बहुलतावाद की विचारधारा को अस्तिव में लाया गया है। इसका जल्दी अंत होना जरूरी है। इन देशों में स्थायी तौर से बस जाने वाले अप्रवासियों को भी उसने बेदखल करने की बात कही है। उसे ब्रिटेन में हुए उस सवेक्षण ने भी बेचैन किया हुआ था, जिसके निष्कर्ष में 15 से 25 वर्ष आयु समूह के अप्रवासी 13 प्रतिशत मुस्लिम युवा उग्रवादी संगठन अलकायदा की विचारधारा से सहमत थे। उसने 1500 पॢष्ठों का एक घोषणापत्र भी अपने वेब ठिकाने पर डाल रखा है। जिसमें योरोप को 2083 तक बहुसंस्कृति, जाति और भाषा से आजाद करने की बात कही गई है। इस मुक्तिसंग्राम में विजयश्री हासिल करने के लिए उसने दावा किया कि आतंक और हिंसा के बिना इस लक्ष्य को पाना संभव ही नहीं है। इस नाते वह इस्लाम की बजाय हिंदू राष्ट्रवादियों की बौद्धिक वैचारिकता से प्रभावित है।

तय है भूमण्डलीय जिन नमूनों को आदर्श मानकर दुनिया को एक ध्रुवीय बनाने की जो संरचना की जा रही है, वह खतरों से खाली नहीं है। एक तरफ लोगों में अपनी मूल अथवा पुरातन संस्कृति बचाने की जद्दोजहद है तो दूसरी तरफ पश्चिमी संस्कृति में ल जाने की होड़ है। लिहाजा नूतन और पुरातन के बीच संस्कृतियों में कश्मकश है। जो अपने जन्मजात जातीय संस्कारों से गहरे जुड़े हैं, वे पुरातन मूल्यों और जड़ों से जुड़ने में कहीं ज्यादा जातीय, नस्लीय, भाषाई और धार्मिक होने की कवायद में लगे हैं। सनातन धर्मग्रथों के मिथक और बिंबों की चकाचौंध व सम्मोहन उन्हें एक मायावी दुनिया से जुड़ने को विवश करता है। ऐसे में वैश्विक बाजारवाद का हिस्सा बन चुकी और मीडिया द्वारा परवान च़ढ़ाई गई धमो की कर्मकाण्डी संस्कृति भी उकसाने के काम में लगी है। फलस्वरूप धर्म के जो प्रेरक और बुनियादी तत्व हैं, उन्हें तो नेपथ्य में डालकर छिपाया जा रहा है, इसके विपरीत उनके आडंबरी पक्ष को प्रदर्शित कर पाखंड को ब़ढ़ावा दिया जा रहा है। ये स्थितियां व्यक्ति के जीवनदर्शन और सिद्घांत को विकृत करने वाली साबित हो रही हैं। जबकि धमो में वर्णित ध्यान, साधना, प्रार्थना और इबादत व्यक्ति में उदार भावों की स्थापना के साथ, निरंतर वैचारिक समन्वय और चेतना के विकास की अभिप्रेरणा होनी चाहिए। क्योंकि एक बहुसांस्कृतिक सरंचना में ला व्यक्ति सांस्कृतिक संतुलन बनाता हुआ अपनी पारंपरिक रीतिरिवाजों के साथ किसी भी देश में आसानी से जी लेता है। जैसे की दुनिया के तमाम देशों में भारतीय अपना गौरवशाली भविष्य बनाने के साथ उसे देश को भी समॢद्ध बना रहे हैं।

पश्चिम की समूची दुनिया में इस समय ‘राष्ट्रवाद’ और ‘बहुसंकृतिवाद’ विमर्श के विरोधाभासी रूप चर्चा में हैं। जब से विश्व के एक वैश्विक गांव होने का विचार पनपा है, राष्ट्रराज्य की अवधारणा को किसी न किसी रूप में चुनौती मिलती रही है। कुछ समय पूर्व ब्रिटेन के शिक्षकों का एक देशव्यापी सर्वेक्षण कराया गया। जिसमें तीनचौथाई शिक्षक बालकों को राष्ट्रभक्ति का पाठ प़ाए जाने को गलत मानने वाले थे। इनका मानना था कि पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को रखना बच्चों के मौलिक विचारों को जबरन बदलने ( ब्रेन वाशिंग ) का पर्याय है। लंदन विश्वविद्यालय द्वारा कराए इस सर्वेक्षण में 74 फीसदी शिक्षकों की राय थी कि उनका कत्तर्व्य बच्चों को ‘राष्ट्रभक्ति’ अर्थात ‘राष्ट्रवाद’ के खतरों से अवगत कराना भी है। सर्वेक्षण में शामिल कुछ शिक्षकों ने मशिवरा दिया कि देशभक्ति की बजाय ‘विश्वबंधुत्व’ का पाठ प़ाया जाना ज्यादा उचित है। देशभक्ति के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले अनेक शिक्षकों ने भी दबी जुबान में विश्वबंधुत्व का पाठ प़ाए जाने में रजामंदी जताई। एक शिक्षक ने तो शोधकर्ताओं से यहां तक कहा, कि देशभक्ति को ब़ावा देने का अर्थ गैरब्रिटिश छात्रों से दूरी बनाना भी है। जब हम बच्चों को उन मूल्यों के बारे में बताते हैं, जो असमानता और विषंगतियों को दूर करने वाले हैं, तब इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रभक्ति की बात करना, क्या छात्रों को जातीय, नस्लीय और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने का काम नहीं करेगी ? हम यहां यह कल्पना कर सकते हैं कि यदि राष्ट्रभक्ति की शिक्षा का पाठ्यक्रम पाठशालाओं में लागू न होता तो शायद आन्द्रेस बेहरिंग ब्रीविक और अजमल कसाव जैसे व्यक्तिचरित्रों का निर्माण होता ही नहीं ?

हालांकि ब्रिटेन में सर्वसमावेशी शिक्षा संभव है, क्योंकि वह वैसे भी योरोपीय संघ का अग्रणी देश है। वहां सदस्य देशों के बीच सरहदों को पहले ही लचीला बनाया जा चुका है। आज जब भूमण्डलीय आदर्श और वैश्चिक बाजार की जरूरतों के चलते विभिन्न देशों और संस्कृतियों के बीच अंतर और दूरियां कम हुए हैं तो जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रवाद को अपनेअपने देशों के संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित किया जाए। लेकिन क्या यह संभव है ? नहीं, क्योंकि इन मसलों पर बौद्धिक बहसें तो संभव हैं, लेकिन किसी लोकतांत्रिक देश के राजनीतिक अजेंडे में ऐसे मसलों को शामिल किया जाना नमुमकिन है। इसीलिए ब्रिटिश के तब के प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन ने इस सर्वेक्षण को नजरअंदाज कर सार्वजनिक घोषणा की कि पाठशालाओं के पाठ्यक्रमों में ‘ब्रिटिशनेस’ को ब़ढ़ावा देने पर जोर दिया जाए।

विश्वबंधुत्व की अवधारणा जिस तरह राष्ट्रवाद के विरूद्ध है, ठीक उसी तरह सांस्कृतिक बहुलतावाद की अवधारणा भी राष्ट्रवाद के खिलाफ है। क्योंकि संस्कृति के रीतिरिवाज, खानपान, वेषभूसा और लोक भाषाओं जैसे तत्वों के साथ धर्म की पैठ व्यक्ति में कहीं इन सबसे गहरी है। यही वजह है कि धर्म में विज्ञानसम्मत तार्किक हस्तक्षेप से स़त्ताएं बचती हैं। इसीलिए धमोर्ं में हिंसा का कोई स्थान नहीं होने के बावजूद मुस्लिम आतंकवाद इस्लाम का, भगवा उग्रवाद हिंदू धर्म का और ब्रीविक कमोबेश इन्हीं तजोंर पर ईसाइयत की ओट ले रहा है। दरअसल यह स्थिति आध्यात्मिक फासीवाद को ब़ावा देने वाली है। जो खतरनाक है। मिलीजुली संस्कृति का प्रचलन मुस्लिम राष्ट्रों में भी संभव नहीं है। क्योंकि ज्यादातर इन राष्ट्रों में न तो प्रजातांत्रिक सरकारें हैं और न ही धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था। एक मर्तबा पश्चिमी समाज तो अपनी रूयिों को उदार बनाने को तैयार है, लेकिन मुस्लिमों में यह नजरिया दिखाई नहीं देता। भारतीयों की तरह सहिष्णु और सर्व समावेशी अवधारणाएं उनके लिए गौण हैं। इस परिप्रेक्ष्य में ब्रीविक की आशंकाओं को नरपिचाश की क्रुरता कहकर नकारे जाने के प्रयत्न होंगे। लेकिन क्या ये आशंकाएं वाकई बेवजह और बेबुनियाद हैं.

 

2 COMMENTS

  1. नार्वे की घटनाएँ एक विशेष मानसिकता की अभिव्यक्ति है, एक विशेष मानसिकता से हुए कार्यों की प्रति क्रिया है. ……..
    मीडिया और ढोंगी धर्म निर्पेक्षतावादी कितने भी पर्दे डालें पर सच तो बार-बार उभर कर सामने आ ही जाता है. ईसाई आतंकवाद ने विश्व की संस्कृतियों को बड़ी चालाकी और निर्ममता से नष्ट किया और आज भी यही हो रहा है. यूरोप के करोड़ों औरतों, बच्चों, बूढों को यातनाये देकर उसी प्रकार मार डाला जिस प्रकार गोआ और केरल में अनेक दशकों तक मारते रहे. ….ईराक, अफगानिस्तान ही नहीं, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया , अमेरिका की भी यही कहानी है. वहाँ के करोड़ों मूल निवासियों को इन क्रुसेड वाले ईसाई पंथ प्रचारकों ने मार डाला, उनकी मूर्ति पूजक उन्नत संस्कृति को नष्ट कर दिया. आज भारत के अनेक प्रदेश भी वही सब भुगत रहे है. भारत ले उत्तर- पूर्वांचल में इतना देश द्रोह और ह्त्या कांड क्यूँ है ? केवल विदेशी चर्च के कारण. वहाँ की मूल संस्कृति को कौन नष्ट कर रहा है ? केवल चर्च. जब तक ये अल्प संख्यक होते हैं, तब तक अहिंसक रहते हैं और जैसे ही पर्याप्त संख्या में हो जाते हैं, हिसा से अपने पंथ का प्रचार शुरू कर देते है. इस बात में कहीं गलती हो तो कोई भी मुझे चुनौती दें. विश्व का इतिहास गवाह है कि जो ईसा करुणा, प्रेम और अहिंसा के साकार अवतार थे ; उनके यूरोपीय अनुयाईयों ने उन्ही ईसा के नाम पर करोड़ों का क़त्ल कर दिया. वास्तव में पश्चिम की प्रकृति ही असहिष्णु है, हिंसक है, दानवी है. इसमें ईसा का तो कोई दोष नहीं. दोष तो पश्चिम की प्रकृति का है जो अहिंसक पंथ का प्रचार व विस्तार भी हिंसा से करते हैं………………..सेमेटिक सभ्यता की उपज होने के कारण इस्लाम और साम्यवाद भी इसी स्वभाव का है. बेचारे हिन्दुओं को तो व्यर्थ ही कुटिलता लोग कारण बदनाम करते हैं. अपने करोड़ों पूर्वजों की हत्याओं और आज भी हो रही हत्याओं की प्रतिक्रया में हिन्दू कभी कोई छोटीमोटी प्रतिक्रया करदे तो उसे इस प्रकार बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है जैसे पूरा हिन्दू समाज आतंकी बन गया हो. ………….अरे किसी मुस्लिम देश में ज़रा कोई हिन्दू कर्म कांड करके दिखाओ, गुरुग्रंथ साहिब का पाठ करके देखो; तो पता चलेगा कि मुस्लिम बहुमत में क्या होता है. यदि हिन्दू असहिष्णु होता, आतंकी होता तो हम हिन्दुओं को अपमानित करने वाले, हमारे धर्म, संस्कृति को लांछित करने वाले एक भी जीवित बचते ? बेकार में हिन्दुओं को बदनाम किये जा रहे हैं. पर हर चीज़ की अति तो खराब होती है. धैर्य की कितनी परीक्षा लोगे.

  2. कुरआन को मानने वाले तो सारे विश्व में निजाम इ मुस्तफा के जेहाद में लगे हैं – हमारे विश्व बंधुत्व को वे ‘शरियत’ की तलवार से मिटाने पर तुले हैं. हिन्दुओं के विशव बंधुत्व की सनातन मान्यता को इस्लाम को मानने वालों ने किस प्रकार लहुलुहान किया ० इतिहास गवाह है. … उतिष्ठकौन्तेय

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