“शरीर से ही नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव से भी हमें मनुष्य बनना है”

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मनमोहन कुमार आर्य,
जिस किसी प्राणी के पास दो हाथ, दो पैर और मनुष्याकृति होने सहित मन, बुद्धि आदि ज्ञानियों, योगियों व ऋषियों के समान हो, उसे वास्वविक व आदर्श मनुष्य कहते हैं। मनुष्याकृति वाले सभी प्राणी मनुष्य अवश्य हैं परन्तु वह आकृति से ही मनुष्य हैं। आकृति के आधार पर उन्हें उत्तम व आदर्श मनुष्य नहीं कहा जा सकता। मनुष्य बनना पड़ता है और वह शिक्षा और अच्छे संस्कारों से मनुष्य बनता है। शिक्षा व संस्कार मनुष्य को कहां से प्राप्त होते हैं? यह प्रश्न विचारणीय है। शिक्षा का अर्थ केवल किसी भाषा कि वर्णमाला व व्याकरण पढ़कर उस भाषा को बोलना व उसमें अनेक प्रकार के साहित्य का अध्ययन करना मात्र नहीं है अपितु इसमें मनुष्य में सत्य का यथार्थ ज्ञान व उसका आचरण करने की तीव्र भावना व संकल्प का होना भी आवश्यक है। यह संसार में प्रचलित सभी शिक्षा पद्धतियों में सम्भव नहीं है। मनुष्य के अन्दर ज्ञान व सभी प्राणियों के प्रति दया व करुणा का भाव नहीं है तो वह अच्छा व पूर्ण मनुष्य नहीं कहा जा सकता। इसके लिये उसे मनुष्य की आत्मा के अज्ञान को अधिकांशतः व पूर्णतः दूर करना आवश्यक है। यह अज्ञान किस प्रकार से दूर हो सकता है। इसके लिये उसे वेद और वैदिक धर्म की शरण में आकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये एक अच्छा ईश्वरोपासक, यज्ञकर्ता और योगी बनना होगा। यदि मनुष्य ने जीवन में अपनी आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जाना और इसे जानने के साथ व इसके बाद वह ईश्वर को भी यथार्थ रूप में नहीं जानता और उसको प्राप्त करने अर्थात् उसका साक्षात्कार व प्रत्यक्ष करने के लिए येग व ध्यान आदि की शरण नहीं लेता, तो वह मनुष्य आधा-अधूरा मनुष्य रहता है। वह अपनी भी हानि करता है और समाज व देश की भी हानि करता है। हमारे देश व समाज को ज्ञानी व चरित्रवान् नागरिकों की आवश्यकता है। ऐसे मनुष्य किसी वेद के पूर्ण विद्वान सद्गुरु व आचार्य के शिष्यत्व में ही बन सकते हैं जैसे की ऋषि दयानन्द अनेक विद्वानों व मुख्यतः स्वामी विरजानन्द सरस्वती के शिष्यत्व में बने थे। अच्छा व पूर्ण पुरुष बनने सहित गुण-कर्म-स्वभाव में श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए मनुष्य का स्वयं भी संकल्पवान होना और इसके साथ उसे आदर्श आचरण व ज्ञानी गुरु का मिलना आवश्यक है। ऐसे ही आचार्यों व शिष्यों से देश व समाज उन्नत व उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं।

प्राचीन काल में सभी बालक व विद्यार्थी गुरुकुलों में योगी व ऋषि आचार्यों की पाठशालाओं में पढ़ते थे। यह आचार्य बहुत उच्च कोटि के चरित्रवान होने सहित ईश्वर के प्रत्यक्ष द्रष्टा, वेद और संस्कृत भाषा के उच्च कोटि के विद्वान, सत्य का पालन करने वाले व सत्यासत्य के मर्मज्ञ होते थे। इन्हें प्रायः सभी व अनेक विद्याओं का ज्ञान होता था। इनका प्रयास होता था कि उनके ब्रह्मचारी विद्यार्थी उन जैसे व उनसे भी उच्च स्थिति को प्राप्त करें। इसके लिये वह अपने ब्रह्मचारियों को माता के गर्भ में शिशु के समान अपने ब्रह्मचारी शिष्यों को रखकर उनका पालन पोषण सहित उन्हें विद्या सम्पन्न कराने के बहुत सावधान रहकर उनका निर्माण करते थे। ऐसा होने पर ही समाज को ऋषि, योगी, विद्वान, वेदाचार्य, काम-क्रोध-लोभ-मोह-इच्छा-द्वेष से रहित ज्ञानी व शिष्य, वीर व बल सम्पन्न राजनेता व राजा, कुशल देशभक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य व चरित्रवान् मनुष्य मिलते थे।

महाभारत युद्ध से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व देश व समाज में कुछ आसुरी प्रवृत्तियों का प्रभाव आरम्भ हुआ जो समय के साथ बढ़ता रहा और जिसका परिणाम महाविनाशकारी महाभारत का युद्ध हुआ। इस युद्ध ने शिक्षा देने वाले सभी गुरुकुलों व सामाजिक व्यवस्थाओं को कुप्रभावित किया जिससे समाज का धीरे धीरे क्षय होता रहा और वेदों के सत्यार्थ लगभग विलुप्त हो गये। उन अच्छे व श्रेष्ठ संस्कारों के स्थान पर वेदों के अनेक मिथ्यार्थ विचार, मान्यतायें व सिद्धान्त प्रचलित हो गये। यज्ञों में हिंसा भी ऐसा ही कृत्य था। यज्ञ के नाम पर अनेक अमानवीय कार्य किये जाने लगे। जो लोग ऐसा करते थे उन्हें सच्चा व अच्छा मनुष्य कदापि नहीं कह सकते। मनुष्य जाति का यह जो पतन होना आरम्भ हुआ था, वह आज तक होता आ रहा है। आज का मनुष्य भी थोड़ा बहुत ज्ञान व विद्याओं को तो जानता है परन्तु उसके जीवन में सत्य, कर्तव्य पालन, काम-क्रोध-राग-द्वेष-लोभ-परिग्रह आदि से विरक्तता देखने को नहीं मिलती।

आज का पढ़ा लिखा मनुष्य मांसाहार, अण्डो का सेवन, मदिरापान, धूम्रपान, अखाद्य पदार्थों का सेवन आदि अनेक प्रकार के अनुचित व्यवहार करता है। यह प्रवृत्ति वैश्विक है। अपनी जीभ के स्वाद के लिए आज का मनुष्य निर्दोष व मूक गाय, बकरी, मुर्गी आदि अनेक पशुंओं को मार व मरवा कर उनके मांस को पकाकर खाता है। ऐसा करना मनुष्योचित व्यवहार नहीं है अपितु यह मनुष्यता को कलंकित करने वाला व्यवहार है। वेदों में मनुष्य को श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करने की प्रेरणा की गई है। यह भी बताया गया है कि सत्य बोलना और वेद विहित विधानों को जीवन में धारण करना व उनका आचरण करना ही मनुष्य का सत्य धर्म है। इसके बावजूद भी लोग अविद्या पर आधारित जीवन को अमनुष्योचित बनाने वाले व्यवहारों को कर रहे हैं।

संसार के सभी मत-मतान्तरों में अविद्या पाई जाती है। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में मत-मतान्तरों की अविद्या को सप्रमाण प्रस्तुत भी किया है। ऐसा होने पर भी कोई मत-मतान्तर व उनके विद्वान आचार्य अपने अपने मत की अविद्या को दूर करने का किंचित भी प्रयास नहीं करते अपितु वह अपने कुतर्कों से उन्हें सत्य सिद्ध करने का मिथ्या व अनुचित उपाय व साधन करते हैं। कोई कितना भी कर ले परन्तु अविद्या को विद्या तथा असत्य को सत्य सिद्ध नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि मनुष्य का आत्मा सत्य और असत्य को जानने वाला होता है। ऐसा होने पर भी वह मनुष्य अपने प्रयोजन की सिद्ध (स्वार्थ), हठ, दुराग्रह (काम व अहंकार) तथा अविद्या आदि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। अतः सत्य, विद्या वा ज्ञान तथा सदाचरण की प्रतिष्ठा के लिये समाज में स्वार्थ को दूर करने सहित हठ, दुराग्रह के स्वभाव व अविद्या को शिक्षण, मौखिक व सत्यार्थप्रकाश आदि जैसी पुस्तकों के प्रचार द्वारा दूर करना आवश्यक है। ऐसा नहीं होगा तो मनुष्य कितनी भी वैज्ञानिक उन्नति कर ले, कितना धन संग्रह कर ले, समाज से कभी अन्याय व पक्षपात दूर न हो सकेगा। ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछ़डा, आर्थिक छुआछूत, अन्याय, शोषण व अत्याचार आदि सर्वत्र बना रहेगा। यह कार्य वैदिक धर्म व संस्कृति की शरण में जाने, वेद और वैदिक साहित्य को प्रतिष्ठित करने तथा आज के ज्ञान विज्ञान से पोषित होने सहित प्राचीन वेद और वैदिक संस्कृति के मूल्यों पर आधारित गुरुकुलीय प्राणी द्वारा सम्भव हो सकता है। हमें इसका दूसरा कोई उपाय दिखाई नहीं देता। पाठक इस विषय में स्वयं भी विचार कर अपने निर्णायक विचारों का प्रचार करें तो इससे समाज को लाभ होगा।

लेख का और विस्तार न कर ऋषि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के अन्त में दिये अपने मन्तव्यों में मनुष्य की जो परिभाषा दी है, उसे प्रस्तुत कर लेख को विराम देंगे। इतना बता दें कि इससे अच्छी व सारगर्भित मनुष्य की परिभाषा विश्व साहित्य में कहीं उपलब्ध नहीं होती। वह लिखते हैं ‘मनुष्य उसी को कहना (अर्थात् मनुष्य वही होता है) जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उसका (व उनका) नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस (मनुष्य) को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे।’

 

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