केवल अर्थव्यवस्था ही देश की रीढ़ नहीं ?

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प्रमोद भार्गव

संदर्भ :- स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री का भाषण –

प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह द्वारा देश की आजादी की 66वीं सालगिरह पर ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से दिया गया उदबोधन उदासीन और उबाउ रहा। इस उदबोधन ने तय किया कि नौकरशाह से प्रधानमंत्री बने व्यकित की सोच में उस व्यापक दृष्टि और समावेषी विकास की संभावनाओं का सर्वथा अभाव है, जो भूख, गरीबी, अशिक्षा, असमानता और अन्याय के दंष झेल रहे वंचितों को राहत के उपाय तलाशे। प्रधानमंत्री के पूरे भाषण में न केवल अर्थव्यवस्था पर जोर रहा, बलिक वह इसे ही ऐन-केन-प्रकारेण मजबूती देने के उपासों पर केंदि्रत रहा। यहां तक की उन्होंने विकास से जुड़ी प्रकि्रया को राष्ट्रीय सुरक्षा के मुददे से जोड़कर देखा और देश को चेताया कि इस दिशा में जरुरी उपाय नहीं हुए तो देश की सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा।

प्रधानमंत्री ने यह डर शायद विदेशी पूंजी निवेष में आ रहे अड़ंगों को हटाने के लिए दिखाया है। जाहिर है, प्रधानमंत्री की प्राथमिकता में न तो असम और मुंबर्इ के दंगे हैं और न ही पाकिस्तान में प्रताड़ना से तंग आकर पलायन कर रहे हिंदू और सिख हैं ? भूख की भयावहता से निपटने वाले खाध सुरक्षा अधिनियम, कालेधन की वापिसी, मंहगार्इ पर नियंत्रण और भ्रष्टाचार से मुकित के उपाय के रुप में देखे जा रहे लोकपाल को भी उन्होंने कोर्इ महत्व नहीं दिया। इसके उलट नौकरशाहों को बचाने की दलील देते हुए न्यायालयों को आगाह किया कि वे बेबुनियाद शिकायतों के बूते अधिकारियों के मनोबल को तोड़ने का काम न करें।

किसी भी देश के राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के भावों को प्रगाढ़ करने का काम करते हैं। देश के नाम राष्ट्रनायकों के संबोधन राष्ट्रीय एकता का वातावरण बनाने का काम करते हैं। लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था में आ रही अड़चनों को सभी समस्याओं की वजह मानते हुए, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे से भी जोड़ दिया। यह किसी सक्षम नहीं लाचार प्रधानमंत्री की आवाज है। ऐसी कमजोर आवाज से न ही उनके सहयोगी दलों की इच्छाशकित को मजबूती मिलने वाली है और न ही देश की अवाम को। यदि आर्थिक प्रगति में राजनीतिक दल बाधा बन रहे हैं, प्रत्यक्ष पूंजी निवेष में संप्रग के घटक दल रोड़ा अटका रहे हैं तो इस गतिरोध को दूर करने के लिए जिम्मेबार कौन है ? सप्रंग की अध्यक्ष सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह इस मुददे पर सहमति नहीं बना पा रहे हैं तो यह उनके राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व की अकुषलता है। यह संप्रग की आंतरिक समस्या है। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है ?

वैशिवक आर्थिक मंदी के चलते आर्थिक विकास दर और सकल घरेलू उत्पाद दर से केवल भारत ही प्रभावित नहीं हुआ है, तमाम यूरोपीय देशों की भी आर्थिक विकास दर आर्थिक उदारवाद के चक्रव्यूह में उलझकर दम तोड़ रही हैं। हमारे पड़ोसी और प्रतिस्पर्धी देश चीन में जो विकास दर 10 प्रतिशत थी, वह खिसककर सात पर आ टिकी है। लेकिन चीन या अन्य देशों ने तो नहीं कहा कि गिरती विकास दर उनके देश की राष्ट्रीय सुरक्षा व संप्रभुता के लिए संकट है। दरअसल प्रधानमंत्री अमेरिका के दबाव में हैं और वे यह भय इसलिए दिखा रहे हैं, जिससे खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेष को मंजूरी मिल जाए। और अमेरिकी कंपनियां देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले इस व्यापार को कब्जे में लेकर प्रत्येक उपभोक्ता के आर्थिक दोहन में लग जाएं। यह भय का सोच राष्ट्र हित में कतर्इ नहीं है। प्रधानमंत्री यदि वाकर्इ देश के वंचित तबकों क प्रति चिंतित होते तो वे आदिवासियों कि चिंता जताते दिखते क्योंकि आधुनिक विकास के चलते यदि किसी एक वर्ग ने सबसे ज्यादा अन्याय झेला है तो वे आदिवासी हैं।उनकी कोर्इ बुलंद राजनीतिक आवाज नहीं है। उनके आंदोलन अराजक हिंसा से अछूते है। चाहे बांग्लादेशी घुसपैठियें हों या केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा किये जा रहे आधुनिक विकास के लिए गढ़ी जा रही आर्थिक नीतियां हों, अपने मूल निवास स्थलों और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल बड़ी मात्रा में आदिवासियों को ही होना पड़ा है ? जाहिर है, अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की विद्वता चुक गर्इ है। उन्हें यह भी परवाह नहीं है कि कल लिखा जाने वाला इतिहास उन्हें किस नजरिये से परखेगा ?

मंहगार्इ के मुददे पर प्रधानमंत्री के जो बोल फुटे, उनसे सहज ही यह अर्थ निकाला जा सकता है कि मंहगार्इ पर काबू पाना तो उनकी प्राथमिकता में शामिल है ही नहीं, बलिक उन्होंने खराब मानसून पर अपनी कमजोरियों का ठीकरा फोड़ते हुए, इसे काबू में लेना और मुश्किल बता दिया। यहां हैरानी इस बात पर है कि 2011-12 में देश के अन्नदाता किसान ने 25.25 करोड़ टन सर्वाधिक खाधान्न का रिकार्ड उत्पादन किया है। इसमें अकेले गेहूं फसल की बंपर पैदावार 9.02 करोड़ टन हुर्इ है। सरकार ने भी समर्थन मूल्य पर गेंहू की सबसे ज्यादा खरीद 3.83 करोड़ टन की। यह गेहूं 1,285 रुपये प्रति किवंटल की दर से लेकर 1,460 रुपये प्रति किंवटल की दर तक खरीदा गया। अतिरिक्त राशि राज्य सरकारों ने किसानों को लाभ पहुंचाने की मंशा से बोनस के रुप में दी।

बावजूद इसके क्या कारण रहे कि गेहंू की जुलार्इ 12 में खरीद बंद होने के बाद गेंहू के दामों में एकाएक 200 से 400 रुपये प्रति किवंटल तक का इजाफा हो गया ? जो चीनी जून-जुलार्इ में 30-32 रुपये प्रति किलो थी, उसके एकाएक भाव बढ़कर 38 से 40 रुपये प्रति किलो कैसे हो गए ? जबकि केंद्र सरकार ने 4 लाख टन शकर खुले बाजार के लिए जारी की है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए चालू तिमाही में 51.66 लाख टन शकर का कोटा जारी किया है। बावजूद शकर के भाव उछाल पर हैं। इसके दो प्रत्यक्ष कारण हैं एक तो सरकार उधोगों के चक्रव्यूह में फंसी है, जो उपभोक्ताओं को उपलब्ध करार्इ शकर की काला बजारी कर निर्यात कर रहे हैं। दूसरे वायदा व्यापार शकर के मूल्यों से खिलवाड़ कर रहा है। सरकार में यदि वाकर्इ मंहगार्इ से निपटने की इच्छाशकित है तो उसे शकर के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की जरुरत तो है ही, वायदा व्यापार से भी शकर को बाहर करने की जरुरत है। तय है फिलहाल मंहगार्इ का मुददा न उत्पादन की कमी से प्रभावित है और न ही मानसून के निराशाजनक हालात से ?

जिस लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक को भ्रष्टाचार से छुटकारा के लिये रामबाण के रुप में देखा जा रहा है, उसे प्रधानमंत्री ने राजनीतिक दलों की मंशा के हवाले छोड़ दिया। हालांकि लोकपाल, लोकसभा से पारित हो गया है। वह किन परिसिथतियों में और किन जन दबावों के चलते पारित हुआ और उसे राज्यसभा से पारित होते-होते क्यों आधीरात को लंबित कर दिया गया, यह अलग से विचारणनीय मुददा है। लेकिन प्रधानमंत्री ने इसे राजनीतिक दलों के भरोसे छोड़ने का ऐलान करके यह जता दिया है कि वेे इस कमजोर लोकपाल को भी संवैधानिक स्वरुप देने के पक्ष में नहीं हैं। क्योंकि कमजोर लोकपाल भी यदि वजूद में आ गया तो भ्रष्टाचार में लिप्त मंत्री और नौकरशाह इसकी गिरफत में तत्काल आ जाएंगे। और प्रधानमंत्री यह कतर्इ नहीं चाहते कि उनके प्रधानमंत्री रहते हुए भ्रष्टाचारियों पर शिकंजा कसे।

शायद उन्होंने इसी मंशा के चलते लाल किले की प्राचीर से न्यायालयों को आगाह करते हुए कहा भी कि बेबुनियाद शिकायतें और बेवजह की अदालती कार्यवाइयों से अधिकारियों का मनोबल टूटता है। प्रधानमंत्री का यह कथन भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के उपाय जैसा लगता है। जो हास्यास्पद व शर्मनाक है। यहां लोकसभा से मंजूर लेकिन राज्यसभा में लंबित उस विधेयक का उल्लेख करना भी जरुरी है, जो अदालतों की जबावदेही से संबंधित है। ‘न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक नामक इस विधेयक में एक विवादास्पद प्रावधान है, जिसमें कहा गया है कि ‘कोर्इ भी न्यायाधीश किसी भी संवैधानिक और विधिक संस्थान या अधिकारी के विरुद्ध न्यायालय में मामलों की सुनवार्इ के समय अवांछित टिप्पणी नहीं करेगा। इस प्रावधान को न्यायविद न्यायालयों में न्यायाधीषों की आवाज को दबाने के उपाय के रुप में देख रहे हैं। इसी वजह से यह विधेयक राज्यसभा से पारित नहीं हो पा रहा है।

प्रधानमंत्री ने असम के दंगे, आतंकवाद और नक्सवाद जैसी ज्वलंत समस्याओं का अपने उदबोधन में उल्लेख तो किया लेकिन वे इन मर्जों की न तो कोर्इ दवा बता पाए और न ही इनके मूल कारणों पर प्रहार कर पाए। मुबंर्इ दंगों का तो उन्होंने उल्लेख तक नहीं किया। जाहिर है न तो उनकी प्राथमिकता बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं और न ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ! अब यहां विचार करने की जरुरत है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा घुसपैठिये आतंकवादियों से है अथवा कमजोर होती अर्थव्यवस्था से

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  1. आपलोग इतना कुछ हो जाने पर भी कठपुतली प्रधान मंत्री के भाषणों पर इतनी गंभीरता से विचार करते हैं,यह बहुत बड़ा आश्चर्य है.

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