बस्तर की स्थिति से देश ना-वाकिफ

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-रमेश पाण्डेय- naxals
छत्तीसगढ़ का बस्तर अपनी नैसर्गिक सुंदरता के लिए विश्व प्रसिद्ध यहां की अनूठी संस्कृति और प्राकृतिक सौन्दर्य किसका न मन मोह लें। पर यहां इन दिनों लाल आतंक से धरती लाल हो रही है। 12 अप्रैल 2014 को बस्तर जिले के दरभा क्षेत्र से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 80 वीं बटालियन के 10 जवान जिला मुख्यालय जगदलपुर की ओर जा रहे थे। इसी दौरान वह 108 संजीवनी एंबुलेंस में सवार हो गए। एंबुलेंस जब कामानार गांव के करीब पहुंची तब नक्सलियों ने बारुदी सुरंग में विस्फोट कर उसे उड़ा दिया। इस घटना में पांच पुलिसकर्मियों इंस्पेक्टर एन के राय, सहायक उप निरीक्षक कांति भाई, हवलदार सीताराम, हवलदार उमेश कुमार, हवलदार नरेश कुमार, सिपाही धीरज कुमार तथा एंबुलेंस चालक वासू सेठिया की मौत हो गई तथा पांच पुलिसकर्मी और एंबुलेंस टेक्निशियन घायल हो गए। बाद में एंबुलेंस टेक्निशियन ने इलाज के दौरान अस्पताल में दम तोड़ दिया। इसके पहले 11 मार्च 2014 को दरभा घाटी में ही नक्सलियों ने एम्बुश लगाकर पुलिस गश्ती दल पर हमला किया था, जिसमें 17 जवान शहीद हो गए थे। 25 नवंबर 2013 को भी दरभा घाटी में ही नक्सलियों के हमले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 कांग्रेस नेताओं की मौत हो गयी थी। एक के बाद एक हो रही नक्सली वारदातों ने दहशत का माहौल पैदा कर रहा है। यहां नक्सलियों से निपटने के लिए जो जवान तैनात किए गए हैं, उनकी अपनी समस्या है। उनकी बात को कोई सुनने वाला नहीं है। सच तो यह है कि इस इलाके में जो कुछ हो रहा है, उससे पूरा देश नावाकिफ है। सीआरपीएफ के जवानों का मानना है कि रणनीति का अभाव, बल की कमी तथा चौबीस घंटे ड्यूटी में नक्सलियों से मुकाबला संभव नहीं है। बल को आराम की भी जरूरत होती है। इसके अभाव में परिणाम नहीं आ पाता। निश्चित रणनीति के साथ काम करना चाहिए। देखा जाए तो केन्द्रीय सुरक्षा बल तीर है और जिला पुलिस बल धनुष। परन्तु रणनीति के अभाव के चलते सारे प्रयास कारगर साबित नहीं हो पातेे हैं। केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवानों ने बस्तर में चुनावी सेवा देने के पश्चात वापस लौट रहे सुरक्षाबलों से बात की गयी तो उन लोगों ने चौकाने वाली बात कही। सुरक्षाबलों की माने तो लालगढ़ से सौ गुना खतरनाक स्थिति है बस्तर की। यहां औसतन मरने वालों की संख्या (फोर्स और ग्रामीणों की संख्या) देश के अन्य राज्यों से अधिक है। नक्सली समस्या को समाप्त करने के लिए सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है और अधिकारियों में फैसला लेने की क्षमता हो। बड़े स्तर के अधिकारियों का अभियान हमेशा असफ ल होता है। जंगलो में कई किलोमीटर पैदल चलना होता है और इन अधिकारियों को पैदल चलने का अभ्यास ही नहीं है। जवानों को भरोसा होना चाहिए कि जंगल में उनकी मदद के लिए किसी भी समय फ ोर्स आ सकती है। इससे जवानों की कार्यक्षमता दुगुनी हो जायेगी और जवानों के मन में यह बात घर कर गई कि यदि हम फंस गए तो कोई बचाने नहीं आएगा। ऐसे विपरीत हालात में मनोबल आधा हो जाता है। वर्तमान में बस्तर में यही स्थिति बनी हुई है। केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवानों ने सलवा जुडूम की सराहना की, लेकिन जुडूम समाप्त होने से अब आपस की लड़ाई शुरू हो गई है। आदिवासियों का अपना आत्म सम्मान है। जुडूम शुरू होने पर अधिकांश गांव के लोग शिविरों में आ गए। जो गांव में रह गये, उन्हें नक्सली समर्थक बताया गया, जबकि वास्तव में ऐसा नही था, पर जुडूम के लोगों का मानना था कि गांव खाली हो जायेगा तो नक्सलियों की पहचान आसानी से हो जायेगी। अब यही गुटबाजी आपस की लड़ाई में तब्दील हो गई है। जुडूम के माध्यम से फोर्स को नक्सलियों की सूचना खूब मिलती थी। अब शिविरों से गांव लौटने के साथ ही ग्रामीण तटस्थ हो गये हैं। यह एक दुखद पहलू है कि यहां कि बड़ी-बड़ी घटनायें देश की राजधानी, राजनेताओं तथा प्रबुद्ध वर्गों तक नहीं पहुंच पाती, जो इस क्षेत्र का सबसे बड़ा नुकसान है। अगर यहां कि घटनायें लगातार देश के कोने-कोने तक पहुंचती तो नक्सलियों को समाप्त करने के लिए एक सशक्त जनसमूह बनता, जिससे आंतकियों के हौसले पस्त होते। यह काफी दुखद स्थिति है कि आम आदमियों को यह पता नही लग पा रहा कि बस्तर में क्या हो रहा है, जबकि सिर्फ गोली से नहीं बल्कि जनभागीदारी से ही इस समस्या से मुक्ति पाना संभव है।

 

 

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