प्रभुनाथ शुक्ल
लोकतांत्रिक व्यस्था में सरकारों के चयन का सबसे पारदर्शी तरीका वोटिंग का है। मताधिकार राज सत्ता की दशा और दिशा तय करता है। मतदान एक बेहद पारदर्शी और विश्वसनीय तरीका है। लेकिन आम चुनावों में ईवीएम की विश्वसनीयता भी राजनीतिक दलों के निशाने पर है। चुनाव आयोग इसकी विश्वसनीयता की सारी अग्नि परीक्षा भी दे चुका है। लेकिन पराजीत दलों को यह बात पचती नहीं है। राजनीतिक दल हार तो हार जीत के बाद भी ईवीएम मशीन पर सवाल खड़ा करते हैं। लेकिन इलेक्टानिक वोटिंग मशीन में नोटा का विकल्प सियासी दलों के लिए घातक साबित हो रही है। हाल के राज्य विधानसभा चुनावों ने यह बात पूरी तरह साफ कर दिया है कि राजनीतिक दल अगर अपना चाल, चरित्र और चेहरा नहीं सुधारते तो भविष्य बेहद मुश्किल और चुनौती भरा होगा। क्योंकि नोटा जीत की परिणति को पराजय में बदलने का काम करता दिखता है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, मिजोरम और तेलंगाना में हुए आम चुनावों के नतीजों पर गौर पर करें साफ दिखता है कि मतदाताओं नोटा का खुला प्रयोग किया। जिसका नतीजा रहा कि गुलाबी बटन ने राजनेताओं के गुलाबी सपनों को खाक कर दिया। सबसे अधिक खामियाजा मध्यप्रदेश में मामा यानी शिवराज का उठाना पड़ा है। जिसकी वजह मामा की लोकप्रियता बेदम साबित हुई और कांग्रेस की वापसी का रास्ता साफ हुआ। यहां तकरीबन 11 विधानसभाओं के चुनाव परिणामों पर नोटा सबसे अधिक प्रयोग किया गया। मतदाताओं की नाराजगी का आलम यह दिखा कि उम्मीदवारों के हार-जीत के अतंराल से अधिक नोटा के विकल्प को पंसद किया गया।
लोकतांत्रिक व्यवव्स्था के चुनावी इतिहास में सुप्रीमकोर्ट के निर्देश के बाद आयोग ने 2013 में इसे विकल्प के रुप में ईवीएम में शामिल किया। साल 2014 और 2017 के बीच बिहार में 9.47 पश्चिम बंगाल 8.31 यूपी में 7.57 मध्यप्रदेश में 6.43 राजस्थान में 5.89 तमिलनाडू में 5,62 और गुजरात में 5.51 फीसदी वोट नकारात्मक खाते में गए। मतलब साफ है कि यहां इतने प्रतिशत मतदाताओं ने राजनीतिक दलों की तरफ से खड़े किए गए उम्मीदवारों को साफ इनकार दिया। संबंधित दलों के उम्मीदवार उनकी पहली पसंद भले रहे हो, लेकिन वोटरों ने उन पर भरोसा नहीं जताया। जबकि गुजरात में विधानसभा चुनावों में 5 लाख से अधिक वोटिंग नोटा के पक्ष में हुई थी। जिसका कुल प्रतिशत 1.8 था। हाल के विधानसभा चुनावों में नोटा का एक दिलचस्प उदाहरण देखिए। इसके लिए हम राजस्थान राज्य की मिसाल आपके सामने रखते हैं। राजस्थान में विजयी उम्मीदवारों के जीत के अंतर से अधिक वोट नोटा में पड़े हैं। यहीं हाल मध्यप्रदेश में रहा। जमींनी सच्चाई यह है कि अगर नाराज मतदाता अपना गुस्सा नोटा पर न उतारा होता तो मध्यप्रदेश में शिवराज का राज आज भी कायम होता। वहां कांग्रेस के कमलनाथ का कमल नहीं खिलता। राजस्थान के पूर्व वंसुधरा राजे सरकार में चिकित्सा स्वास्थ्यमंत्री कालीचरण सराफ मालवीय नगर विधानसभा से कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ 1,704 वोटों से जीत दर्ज किया जबकि नोटा के खाते में 2,371 वोट मिले। दूसरी दिलचस्प बात आसींद विधानसभा की है जहां भाजपा उम्मीदवार जब्बार सिंह कांग्रेस के मनीष मेवाड़ा से 154 वोटों से जीत हासिल किया लेकिन नोटा के लिए 2,943 मतो का प्रयोग हुआ। राज्य के बांसवाड़ा के कुशलगढ़ विधानसभा में 11,002 मत नोटा पर गए। जबकि यहां जीत का अंतर 18,950 रहा। हालांकि इसका नफा-नुकसान कांग्रेस और भाजपा दोनों को हुआ है, लेकिन सबसे अधिक नुकसान शिवराज को उठाना पड़ा है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना में 13 लाख 56 हजार मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया। छत्तीसगढ़ में 2,82,744 लोगों ने नोटा का प्रयोग किया यह कुल वोटिंग का दो फीसदी है। जबकि पिछले चुनाव की अपेक्षा इस बार एक फीसदी लोगों ने इस विकल्प का उपयोग कम किया। दूसरी पायदान पर मध्यप्रदेश रहा यहां 5,42,295 लोगों ने अपना मत नोटा के खाते में डाले। इसका कुल प्रतिशत 1.4 है। राजस्थान में 4,67,781 यानी 1.3 फीसदी वोट इस गुलाबी बनट ने निगल लिए। जबकि तेंलगाना की राजनीति के लिए यह भी यह शुभ संकेत नहीं है। यहां अभी दूसरा आम चुनाव है। यहां 2,24,709 वोटरों ने इसका प्रयोग किया। यह कुल वोटिंग का 1.1 फीसदी है। टीआरएस को इस पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके अलावा पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम में कुल 2917 वोट इस खाते में गए। जिसका प्रतिशत 0.5 रहा है।मध्यप्रदेश पर गौर करें तो यहां नकारात्मक वोटिंग की वजह से शिवराज की सत्ता हाथ से फिसल गयी। क्योंकि राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे अहम हिंदी हर्टलैंड के राज्यों में अगड़ी जाति का वोटर दलित एक्ट पर मोदी ससकार की नीतियों से बेहद खफा था। इस वर्ग ने सोशल मीडिया पर नोटा की मुहिम चला रखी थी। जिसकी परिणति राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों पर साफ दिखी। अब यह बात केंद्र सरकार को खूब अच्छी तरह से समक्ष में आने लगी है। यहां कांग्रेस ने 114 जबकि भाजपा को 109 सीटों पर जीत हासिल किया। लेकिन नोटा ने सत्ता कांग्रेस के हाथ सौंप दिया। जमींनी हकीकत यह है कि अगर मतदाताओं का गुस्सा नोटा पर न उतरता तो कांग्रेस की वापसी वहां ख्वाब ही रह जाती, लेकिन नोटा ने इसे आसान कर दिया। मध्यप्रदेश के ग्यारह सीटों पर यह स्थिति रही कि कांग्रेस के उम्मीदवारों से भाजपा के उम्मीदवार जीतने मतों से पराजित हुए उससे कई गुना वोट नोटा के खाते में गए। इसका एक उदाहरण आपके सामने है जिसे आप आसानी से समझ सकते हैं। राज्य कि व्यावर सीट पर जीत का अतंर 827 रहा जबकि नोटा में 1481 वोट गए। बुरहानपुर में कांग्रेस उम्मीदवार 5120 वोट से विजयी हुए जबकि नोटा में 5726 पड़े। इसी तरह दमोह 798-1299 गुन्नौर में 1965-3734 जबलपुर उत्तरी में 578-1209 जोबट में 2057-5139 मांधाता में 1237-1575 नेपानगर 1265-12551 और पेटलावाद में 5000-5148 राजपुर में 932-3358 और सुवासरा में कांग्रेस उम्म्मीदवार की जीत 350 वोटों से हुई जबकि नोटा के लिए 2976 लोगों ने मतदान किया। अब सोच लीजिए नोटा किस प्रकार राजनीतिक दलों का खेल बिगाड़ने के लिए बेताब दिखता है।
इतिहास पर गौर करें तो नोटा का सबसे पहले प्रयोग अमेरिका में किया गया। भारत में 2013 में सुप्रीमकोर्ट के एक निर्देश के बाद चुनाव आयोग ने इसे बतौर विकल्प के रुप में शामिल किया। मतदाता अपने निर्वाचन क्षेत्र में अगर किसी भी उम्मीदवार को पसंद नहीं करता है तो वह नकारात्मक वोटिंग यानी नोटा का विकल्प अपना सकता है। हालांकि चुनाव आयोग ने मतदाता को नकारात्मक वोटिंग की सुविधा भले उपलब्ध करा दिया हो, लेकिन चुनाव सुधारों को लेकर इस पर कोई पारदर्शी नीति अब तक नहीं बन पायी है। निर्वाचन आयोग को यह तय करना चाहिए कि अगर अमूक उम्मीदवार को नोटा में निर्धारित फीसद वोटिंग मिलती है तो उसे चुनाव लड़ने पर आजीवन या कुछ सालों तक के लिए प्रतिबंधित किया जा सकता है। संबंधित दल उसे चुनाव में अपना उम्मीदवार नहीं बना सकते हैं। वह आयोग की तरफ से निर्धारित समय सीमा तक दल बदल नहीं कर सकता है। उसके खिलाफ नकारात्म वोटिंग लगातार तीन चुनावों में जारी रहती है तो उसे आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंधित किया जा सकता है। आयोग को इस तरह की विकल्पों पर विचार करना चाहिए। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि राजनीतिक दल गलत छबि के उम्मीदवारों को जहां चुनाव मैदान में उतारने से कताराएंगे वहीं राजनीति में गलत छबि के लोगों का प्रवेश भी वर्जित होगा। फिलहाल अभी इसका कोई असर नहीं दिखता है। अभी मतदाताओं के पास केवल यह भड़ास निकाले का माध्यम भर है। लेकिन बार के चुनावों से राजनीतिक दलों को सबक भी लेना चाहिए। आयोग को नोटा वोटिंग पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।