अब मात्र प्रस्ताव ही पर्याप्त नहीं

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kashmirनरेश भारतीय

भारत के संसद में सर्वसम्मति के साथ इन शब्दों में पारित किया गया प्रस्ताव कि “पाकिस्तान के अवैध अधिकार के भाग समेत सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है” महत्वपूर्ण है. यह प्रस्ताव भारत के जनसमाज को निश्चित ही आश्वस्त करता है कि भारत अपने आंतरिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेगा. लेकिन पाकिस्तान की बेहूदा हरकतों के लगातार जारी रहते, बाहरी विश्व को यह देख कर विस्मय और विदेशस्थ भारतवंशियों को घोर कष्ट होता है कि क्या भारत के पास अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए अब मात्र शाब्दिक मार्ग ही बचा है. राष्ट्रीय महत्व के ऐसे मामलों में सत्ता पक्ष और विपक्ष का एकजुट हो कर खड़े होना स्तुत्य है. लेकिन हमें इस कड़ुए सच को भी पचाना पड़ रहा है कि पाकिस्तान और उसके साथ खड़े पश्चिम के देश भारत के इस दावे के औचित्य को जानते हुए भी इसकी उपेक्षा करते दिखाई दिए हैं.

बरसों से भारत के द्वारा अपने पड़ोसी के साथ शांति स्थापना के प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान ने अपना आक्रामक व्यवहार बनाए रखा है. कश्मीर में घुसपैठ और विध्वंसक गतिविधियों को खुला समर्थन दिया है. भारत के विरुद्ध अपनी ख़ुफ़िया एजेंसी आई. एस. आई के माध्यम से अनवरत आतंकवादी षड्यंत्ररचना की है. फिदायीन हमले करवाए हैं और भारत विरोधी आतंकवादियों को प्रशिक्षण और संरक्षण दिया है. दिल्ली स्थित भारतीय संसद पर २००१ को हमले के दोषी पाए गए अफजल गुरु को मृत्युदंड दिए जाने के बाद पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली में भारत की आलोचना और पाकिस्तान में खुले घूमते हाफ़िज़ सईद जैसे भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों के सरगनाओं के द्वारा बदला लेने की घोषणाएं स्पष्ट करती हैं कि पाकिस्तान का असली सच क्या है. भारत के विरुद्ध १९४७ से ही सतत छद्मयुद्ध छेड़े हुए है पाकिस्तान. बार बार स्थायी शांति के लिए प्रयास किए जाने पर भी दोनों देशों के बीच शांति नहीं पनप सकी है. वह भारत के साथ मैत्री नहीं चाहता बल्कि वैरभाव से ग्रस्त है. कश्मीर को मुद्दा बना कर वह सीधे युद्धों में मार खा चुका है लेकिन अंतर्मन में भारत विध्वंस की द्वेषाग्नि को जलाए हुए है. जब तक उसकी ऐसी मानसिकता बनी रहेगी और उस देश की राजनीतिक दिशा और दशा नहीं बदलेगी उसके साथ भरोसे लायक शांति स्थापना की आशा करना व्यर्थ है.

इस सन्दर्भ में जहां तक बाहरी विश्व का सम्बन्ध है अनेक वर्षों से अमरीका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों के कूटनीतिक और रणनीतिक क्रियाक्रलाप का अध्ययन स्पष्ट करता है कि ये देश सर्वप्रथम अपने हितों को प्रश्रय देते हुए ही अपनी वैदेशिक भूमिका निर्धारित करते हैं. माना कि आजकल भारत और पश्चिम के बीच सम्बन्ध मजबूत होने का बार बार दावा किया जा रहा है, लेकिन इनका स्वरूप मुख्य रूप से व्यापारिक है. साँझा रणनीतिक दृष्टि शून्यसम है. भारत के विरुद्ध पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमलों और दोनों देशों के बीच संबंधों के मामले में पश्चिम की नीति भारत को समझा बुझा कर शांत रखने और पाकिस्तान को बचाए रखने की रही है. कश्मीर के मामले में यद्यपि भारत कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं चाहता इस पर भी पश्चिम का रुख और नीति भारत के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नहीं रही है. इसीलिए पाकिस्तान कश्मीर के मामले का अंतरार्ष्ट्रीय हस्तक्षेप से हल करने के प्रयास में रहा है जबकि भारत के लिए कश्मीर यदि कोई मुद्दा है तो सिर्फ और सिर्फ यह कि समूचा कश्मीर भारत के पास होना चाहिए. इस वक्त एक भाग पर पाकिस्तान काबिज़ है तो कुछ हिस्से पर चीन.

अमरीका और ब्रिटेन पाकिस्तान के दोहरेपन को बखूबी जान चुके हैं. ओसामा बिन लादेन के मारे जाने से पहले उसका पाकिस्तान में पाया जाना इसकी पुष्टि कर चुका है. इस पर भी पाकिस्तान को नाराज़ करने वे बचते हैं. ऐतिहासिक सत्य यह है कि शीतयुद्ध काल से लेकर अब तक अफगानिस्तान में स्थितियों को अपने नियंत्रण में बनाए रखने के लिए अमरीकी गठबंधन ने पाकिस्तान की उपयोगिता को अपने हितसाधन के लिए पनपाया है. उनके लिए उसकी उपयोगिता तब तक बनी ही रहने वाली है जब तक उपमहाद्वीप के इस भाग में पश्चिम अपनी रणनीतिक पैठ बनाए रखेगा. फिलहाल अमरीकी गठबंधन अपने सैन्यबल अफगानिस्तान से हटा लेने की प्रक्रिया में है लेकिन उसके बाद वहाँ तालेबान का प्रभुत्व पुन: कायम होते देखना भी उसे मान्य नहीं होगा. ऐसा होना भारत के हित में भी नहीं है. मजहबी कट्टरपंथ की लहर पाकिस्तान के सरहदी क्षेत्रों में चल रही है. तालेबान के हाथ मज़बूत होने से वह तूफ़ान का रूप ले सकती है. पाकिस्तान के परमाणु अस्त्रों के उनके हाथों में चले जाने का बहुत बड़ा खतरा है. इन स्थितियों में अमरीका चाहता है कि भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध के स्थान पर शांति के लिए प्रयास मजबूत हों. लेकिन यदि पाकिस्तान की भारत विरोधी हठधर्मिता बनी रहती है तो यह संभव नहीं होगा. इन स्थितियों में अमरीका के पास इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचेगा. इन्हीं परिस्थितियों का सामना करने के लिए भारत के पास भी स्वयं को सैन्य दृष्टि से अधिकाधिक मज़बूत करने और व्यवहार में कठोरता दिखाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है.

सब जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच कलह के मूल में कश्मीर है. हम यदि यह कहते हैं कि सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर वैधानिक रूप से भारत का है तो फिर जब कभी भारत पाक वार्ता होती है भारत को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने की बात दृढ़ता के साथ रखने की आवश्यकता है. आज तक कितने प्रयास हुए हैं इस दिशा में? यदि नहीं तो क्यों नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर इसलिए नहीं मिलते क्योंकि पिछले ६५ वर्षों में कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देकर उसे पाकिस्तान के शैतानी हाथों का खिलौना बनने दिया गया है. शेष भारत के साथ पूर्णरूपेण आत्मसात होने से रोके रखा गया है. हम जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं तो व्यावहारिक रूप से वैसा ही परिवेश वहाँ क्यों नहीं पनपने दिया गया जिसमें वह अन्य राज्यों की तरह ही शेष भारत के साथ एकजुटता प्रदर्शित करे? ऐसा क्यों है कि हर वर्ष २६ जनवरी को भारतीय गणतन्त्र दिवस पर भारतीय ध्वज वहाँ लहराने के मामले पर हंगामा होता है? ऐसा क्यों है कि भारत के विरुद्ध षड्यंत्र रचने के दोषी अफजल गुरु को फांसी दे दिए जाने के बाद कश्मीर जल उठता है और राज्य के मुख्यमंत्री महोदय भी विचलित होते हैं? पाकिस्तान से भेजे गए फिदायीन हमलावर भारत के निहत्थे बना दिए गए सुरक्षा सैनिकों की हत्याएं करते हैं?

विभाजन काल में कश्मीर के मामले में गंभीर भूलें हुईं जिनका परिणाम अब तक भारत को भुगतना पड़ रहा है. पाकिस्तान ने १९४७ में भारत विभाजन के तुरंत बाद कश्मीर को बलपूर्वक हथियाने के इरादे से कबाईलियों को आगे करके हमला किया था. कुछ हिस्सों पर उन्होंने कब्जा जमा लिया था जब जम्मूकश्मीर के महाराजा हरिसिंह अभी भारत के साथ विलयसंधि की प्रक्रिया पूरी कर रहे थे. लेकिन भारतीय सेनाओं को युद्ध में विजयी होते हुए भी युद्धविराम का आदेश देना भारत के तत्कालीन नेतृत्व की ऐतिहासिक भूल सिद्ध हुई. सरदार पटेल जैसे अपने दूरदर्शी सहयोगियों के विरोध के बावजूद देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री नेहरु के द्वारा कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना दूसरी भूल थी. इसके विपरीत यदि युद्धविराम की बजाए घाटी से दुश्मन को पूरी तरह से खदेड़ देने तक युद्ध चलता तो आज कश्मीर पूरी तरह भारत का होता. तब से लगातार समस्याओं को जन्म देती तथाकथित युद्धविराम नियंत्रण रेखा न खिंचती जो आए दिन पाकिस्तानी कारस्तानियों के कारण चर्चा का विषय बनती है.

इस पृष्ठभूमि में अलगाववाद के विषबीज अंकुरित होते चले गए. कश्मीर के पारंपरिक सर्वपंथ सहिष्णु और शांत सौहाद्रपूर्ण सामाजिक परिवेश को पाकिस्तान के द्विराष्ट्रपरक एकल मज़हब आधारित कट्टरपंथ का शिकार बनने दिया गया. १९८३ में कुछ दिनों के लिए मैं कश्मीर गया था. श्रीनगर से पहलगाम जाने के लिए बस लेने की चेष्ठा में था. पूछताछ करने पर जब किसी ने बताया कि अगली बस ‘इस्लामाबाद’ से होकर पहलगाम जाएगी तो घोर विस्मय हुआ था. इस पर भी बताई गई बस में जा कर बैठ गया. यात्रा के दौरान पता चला कि अनंतनाग का नाम बदल कर उसे ही इस्लामाबाद कहा और लिखा पढ़ा जा रहा है. सामने बोर्ड पर लिखा पाया था इस्लामाबाद (अनंतनाग). यह कालखंड कश्मीर में पाकिस्तानी कट्टरपंथ से अनुप्राणित आतंक के तेज़ उभार के संकेत दे रहा था. तब कुछ स्थानीय लोगों के साथ वर्तालाप में मैंने यही स्पष्ट महसूस किया था. इस एकल मज़हब परस्ती के आलम में न सिर्फ नामों को ही बदला गया बल्कि घाटी के हिदुओं को भी तरह तरह की यातनाएं देकर वहाँ से भागने पर विवश कर दिया गया था. तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के साए तले कश्मीर का ऐसा इस्लामीकरण किन्हीं राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के अतिरिक्त उसे पाक प्रोत्साहित अलगाववाद की दिशा में धकेलता ही चला गया. इस अतीत विवेचना का वर्तमान निष्कर्ष सत्य यही है कि यदि समय रहते भारत सम्पूर्ण जम्मूकश्मीर को समाहित करने की दूरदर्शिता दिखा देता तो संभवत: आज समस्याओं के इतना विकट स्वरूप लेने की स्थिति न आती. पाकिस्तान ने भारत के साथ अपने संबंधों में ‘चोर भी और चतुर भी’ की उक्ति को शुरू से ही चरितार्थ किया है. आज भी कर रहा है. जो गलत हो रहा है उसे रोकने के लिए यदि भारत सशक्त ढंग से उसे मुंहतोड़ जवाब नहीं देगा, विगत की भूलों का सम्यक निराकरण नहीं करेगा तो यह सिलसिला तब तक चलता ही रहेगा जब तक पाकिस्तान का वर्चस्व बना रहता है.

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