अंक जीवन में सब-के-सब और अंत नहीं हैं।

गहन-चिन्तन-मनन करना चाहिए कि क्या ये अंक बच्चों की प्रतिभा की निशानी मान लिए जाये

 डॉo सत्यवान सौरभ,   
पिछले दस दिनों से बहुत हैरान हूँ मैं, एक अंधी दौड़ देख रहा हूँ, दसवीं और बारहवीं कक्षा के नतीजे क्या घोषित हुए, मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा की हर बच्चे के 95 प्रतिशत से ज्यादा मार्क्स बड़े-बड़े फोटो और फिर बधाइयों की बौछार, एक प्रतियोगिता और शुरू, क्या ये संभव है कि इतने-इतने मार्क्स वो भी बोर्ड कि परीक्षाओं में, मुझे तो पूरी शिक्षा प्रणाली पर ही संदेह हो गया है और व्यवस्था पर सवाल कुलबुलाने लगे है कि आखिर क्यों हमारी शिक्षा प्रणाली  वास्तविक ज्ञान को परखने कि बजाय एक पोस्टर के लिए दौड़ रही है.

 इसी बीच सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक पोस्ट का शब्द-शब्द मुझे पूर्ण सत्य लगता है. 499 वाली एक बिटिया परेशान है कि उसका 1 नंबर कम रह गया क्यूँकी वो सोशल मीडिया पर अपना समय देती थी। उसे पूरी तरह से एंटीसोशल ना बन पाने का दुःख है। मुझे उससे सहानुभूति है। उसके रिश्तेदारों को उसे तुरंत एक चॉकलेट देनी चाहिए और सर पर हाथ फेरते हुए कहना चाहिए, “बेटा सब ठीक हो जायेगा”। आज सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि स्कूली परीक्षाओं से मेरिट लिस्ट निकाली जाए या नहीं।

कोरोना वायरस महामारी द्वारा बनाई गई असाधारण परिस्थितियों के कारण सीबीएसई और सीआईएससीई बोर्ड के साथ-साथ लगभग हर राज्य बोर्ड ने इस साल कक्षा 10 और कक्षा 12 के परिणाम घोषित किए। इस कदम को कुछ लोगों द्वारा प्रगतिशील के रूप में देखा जाता है और कुछ अन्य द्वारा प्रतिगामी, इसलिए, यह आकलन करना आवश्यक हो जाता है कि मेरिट सूची को स्कूल की परीक्षाओं से हटा दिया जाना चाहिए या नहीं।

जिस बोर्ड के अंतर्गत पढ़ रहे बच्चे 500 में से 499 अंक ले आएं उस बोर्ड के मेम्बरान को सोचना  चाहिए। जिस पेपर में बच्चों के 100 में से 100 अंक आएँ, उसकी पेपर सेटर समिति के हर सदस्य को गहन-चिन्तन-मनन करना चाहिए। क्या  ये अंक बच्चों की प्रतिभा की निशानी मान लिए जाये? मेरे विचार से  ये एक पूरी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते है। और  साथ ही कॉपी जांचने वाले शिक्षकों को भी सोचन होगा कि क्या वे अपना काम सही तरीके से कर रहें है ? आखिर ज्यादातर छात्र इतने अंक कैसे ले पा रहे हैं ?

पर दोष इन  मासूमों का नहीं है, दोष कमबुद्धि अध्यापकों, रट्टोत्पादी आंकलन व्यवस्था का है. इस  आंकलन व्यवस्था से निकले रट्टू कोचिंगो की लिफ्ट से रातों-रात गली मोहल्ले में छा जायेंगे और मेरिट लिस्ट से छात्रों को यह काल्पनिक अहसास करवा देंगे कि उपलब्धि का मतलब क्या है और उनकी बाहरी मान्यता क्या है। यह छात्रों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है। मुझे ये सूची, जो छात्रों को उनके परीक्षा के अंकों के आधार पर रैंक करती है, निरर्थक लगती है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमें एहसास होता है कि ये योग्यता सूची कितनी बेमानी है,सामाजिक रुतबे के लिए भी परीक्षा के अंक हो सकते है क्या? सोचना होगा। लेकिन कभी भी  कुल मिलाकर सफलता इससे निर्धारित नहीं की जा सकती है कि छात्र ने कितने अंक प्राप्त किए हैं।

इस तरह की सूचियों ने वर्षों से छात्रों पर अनावश्यक दबाव डाला है और हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में चूहे की दौड़ को तेज किया है। कम अंकों से जुड़ा कलंक, योग्यता सूचियों को दिया गया अनुचित महत्व वास्तव में इस बात का लक्षण है कि भारत में छात्रों को परीक्षाओं केअच्छे ग्रेड  कैसे प्रभावित करते है, और किस तरह यहाँ निम्न स्कोर वाले छात्रों को कलंक से जोड़कर देखा जाता है, जिसके चलते देश भर में हज़ारों छात्र परीक्षा परिणाम के दिनों में आत्म हत्या कर लेते हैं.

स्कूलों और हमारे अन्य शिक्षण संस्थानों को ये बात ध्यान में रखनी होगी कि आज के इस ओद्योगिक और प्रतियोगी युग में नियोक्ता प्रतिभाओं की तलाश करते हैं, टॉपर्स की नहीं.  नियोक्ताओं की भर्ती के मापदंड किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं जिसमें प्रतिभा, दृढ़ संकल्प, दूसरों के साथ काम करने की क्षमता, कौशल का सही सेट और एक हार्ड-वर्कर हो। ये कौशल दुर्भाग्य से हमारे शिक्षा प्रणाली के छात्रों में नहीं हैं। इतिहास के अध्यायों या रसायन विज्ञान के फॉर्मूले याद करने और अंकों पर अधिक ध्यान देने के बजाय, छात्रों को कौशल और ज्ञान प्राप्त करने का  ज्यादा से ज्यादा प्रयास करना चाहिए।

आज इस चूहा दौड़ की  प्रक्रिया में, स्कूल पाठ्यक्रम छात्रों को महत्वपूर्ण संज्ञानात्मक जीवन कौशल से वंचित करता है। इस माह परिणाम घोषित होने के ठीक बाद, सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कई लोगों ने इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए अपने पुराने बोर्ड परीक्षा के अंक साझा किए कि अंक जीवन में सब-के-सब और अंत नहीं हैं। आईएएस अधिकारी नितिन सांगवान ने ट्विटर पर लिखा कि वह 12 वीं कक्षा में अपनी रसायन विज्ञान की परीक्षा देने में मुश्किल से कामयाब रहे, लेकिन इससे उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। हालांकि, कुछ शिक्षाविदों और रैंक धारकों ने मेरिट सूची के महत्व पर जोर दिया:

एक बार मेरिट सूची में आ जाने के बाद, छात्र बोर्ड परीक्षा को गंभीरता से नहीं लेते। मेरिट लिस्ट में जगह बनाने की सोच छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा करती है। योग्यता सूची में एक रैंक हासिल करने के बाद प्राप्त प्रशंसा के टोकन से उन्हें  थोड़े समय की संतुष्टि मिलती है। यद्यपि मेरिट सूची छात्रों को बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित करती है, लेकिन हमे प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। योग्यता आधारित प्रणाली की कमियों को दूर करने के लिए बेहतर शिक्षा परिणामों के लिए नवीन विचारों को पाठ्यक्रमों में लागू करना चाहिए।

परियोजना टीमों में एक साथ काम करना और प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा निर्देशित करना, छात्र समूहों में सहयोग, भावनाओं को प्रबंधित करने और संघर्षों को हल करने के कौशल सीखना अंकों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। छात्र शक्ति और कमजोरियों की एक विस्तृत, निरंतर प्रोफ़ाइल के लिए मूल्यांकन को सरल परीक्षण स्कोर से परे विस्तारित किया जाना चाहिए। शिक्षक, माता-पिता और व्यक्तिगत छात्र अकादमिक प्रगति की बारीकी से निगरानी का तरीका ढूंढना चाहिए हैं और उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनमें सुधार की आवश्यकता है।

इसलिए मेरिट लिस्ट को स्क्रैप करना एक प्रगतिशील दृष्टिकोण है क्योंकि यह छात्रों के दिमाग से अच्छा प्रदर्शन करने के अनावश्यक बोझ को कम करता है। लेकिन साथ ही कुछ अन्य विधियां  तैयार की जानी चाहिए ताकि प्रत्येक छात्र का समग्र एवं सर्वांगीण विकास हो सके. जब एप्पल का कोफाउंडर  ये कह देता है कि ‘भारत के छात्रों में रचनात्मकता नहीं है’ तो हमें थोड़ा दिन अवश्य देना चाहिए और जहां हमारी शिक्षा व्यस्था कमजोर दिखे वहां उसे दुरुस्त करने की जिम्मेवारी उठानी चाहिए ताकि  देश का भविष्य सही हाथों में सुरक्षित रह सके और तभी होगा जब शिक्षा ठीक होगी.

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