नुनदा– ट्रैजिक हीरो

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पिछले कुछ दिनों से नुनदा की यह तस्वीर मन को घेरे हुए हैं।  इस तस्वीर से कई एक तस्वीरें उभड़ने लगती हैं। नुनदा के बारे में सोचते हुए मुझे याद आता है।  पुपल जयकर श्रीमती इन्दिरा गाँधी की एक बात का हवाला देती हैं, मैं चाहती हूँ कि आप मुझसे भले सहमत न हों, पर यह जरूर चाहूँगी कि आप मुझे समझें।

अपने जीवन में महत्वपूर्ण रहे लोगों से हम सहमत होते हैं, असहमत होते हैं, पर कदाचित ही हम उन्हें समझने की  कोशिश करते हों, समानुभूति (empathy) रखते हों।

नुनदा मुझे शेक्सपियर के उपन्यासों के ट्रैजिक हीरो की याद दिलाते हैं।  नुनदा हम आठ भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उन दिनो सहोदर भाई बहनों का आठ-दस की संख्या में एक छत के नीचे होना असामान्य बात नहीं थी। आज  सहोदर भाई बहन की बात अप्रासंगिक सी लगती है । क्योंकि अधिकतर परिवारों में सन्तान एक या दो की संख्या में ही होते हैं। सहोदरों के बीच के सरोकार और इन सरोकारों के असर में सहयोग और प्रतिद्वन्द्विता के समीकरण की समझ की अपेक्षा इनसे करना ज़्यादती होगी।

हमारे पिता एक स्कूल में अध्यापक थे। खेत महाजन के पास गिरवी थे। नुनदा जब कमाने लगे तो हमारे परिवार को  महाजन के पास से खेतों को मुक्त करने की क्षमता आई।  बाकी भाई अभी स्कूल स्टेज में ही थे।  नुनदा ने हमारे पिता के मना करने के बावजूद खेती का जिम्मा सँभाल लिया। पिताजी का कहना था कि खेती हमारे लिए  लाभकारी नहीं होगी, पर नुनदा नहीं माने। तब हमारा परिवार कृषिभित्तिक पारंपरिक समाज के नीति बोध पर आधारित था। जब हम छोटे थे तो हमारी  रोजमर्रा की जरुरतें नुनदा के जरिए ही पूरी होती थीं। उनके स्नेहशील, सरल और  व्यापक(inclusive) स्वभाव के थे।  जब हम छोटे थे और वे बड़े हो गए थे, उन्हंने हमारी जरूरतों को अपनी जरुरत के आगे रखा। वे कठिन परिश्रम किया करते थे। पर होशियार, चतुर नहीं होने के बावजूद अपने को चतुर समझने की ग़लतफ़हमी उन्हें थी। जिसके कारण वे समय समय पर असुविधाजनक स्थितियों में पड़ जाया करते थे।

 

बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध  भारतीय समाज को हिलोरने वाला  काल-खंड था। सन 1947 में विदेशी  हुक़ूमत से आजादी हासिल करने के बाद जवाहरलाल नेहरु के विकास मॉडल के क्रियान्वयन के फलस्वरूप औद्योगिक समाज की नींव पड़ी। परंपरागत कृषि आधारित परिवारों में टूट आने लग गई।  पारंपरिक परिवारों ने बदलाव की आँधी में अस्थिरता और तनाव झेला। सदियों से स्थिर मूल्य बोध तथा आचार संहिता तहस नहस हो गए। हमारे पिता के परिवार की नियति विकास के  टूट की इस यन्त्रणा से गुजरने की थी।

हम इसी कालखंड में बड़े होते रहे।  हमारी दो छोटी बहनों की शादी हुई. बड़ी दीदी तो ननुदा की भी दीदी थीं पर उनके असामयिक निधन ने नुनदा की छाँव छीन ली थी। दोनो बहनो की शादियों में  हमारे पिताजी को बड़े बेटे का पूरा सहयोग मिला था। हम चार भाई  पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी में लगे। हममें से प्रत्येक की अपनी अपनी इकाइयाँ बनीं। व्यावहारिक स्तर पर अब हम पाँच भाइयों के अलग अलग परिवार हो गए थे।  खेती अलाभकारी होती जा रही थी। नुनदा की कठिनाइयाँ बढ़ती गईं। बाकी चार भाई निश्चित और आश्वस्त आय वाली  सरकारी नौकरियों में थे। हमारा परिवार आधुनिकता के मूल्य-बोध से युक्त होता गया था । हर किसीकी आय अपनी और जिम्मेदारियाँ भी अपनी। फिर भी साझापन का तामझाम।  पारम्परिक परिवार आधुनिकता के मूल्य-बोध से संचालित होने लगा था। नुनदा की ट्रैजेडी इसी संक्रमण का नतीजा है।

वे इस सवाल से जूझते रहे कि उनकी कमाई सभी भाइयों ने साझा की तो भाइयों की कमाई  के समय साझा  क्यों नहीं। मुझसे एक बार उन्होंने यह सवाल किया भी था। मैं उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर पाया था।  परिवर्द्धन और विकास( Growth & Development)की प्रक्रिया की अपनी ही युक्ति होती है।

 

       अरस्तु के अनुसार शेक्सपिरियन ट्रैजिक हीरो के लक्षण निम्मलिखित हैं।

●      उसकी  हैसियत रही हो, वह अच्छा व्यक्ति हो। वह हमारे लिए महत्वपूर्ण रहा हो और हम उसे किसी काम का आदमी समझते हों।

●      उसकी हैसियत की वजह से उसके काम का दूरगामी असर हो.

●      उसका चरित्र ऐसा हो जो सामान्य स्थिति में सद्गुण माना जाता हो पर वह जिस खास स्थिति में पड़ गया हो, उसके कारण वह ऐसा घातक दोष हो जाता है जो उसके पतन की राह हमवार करता है।

●      वह अपनी एक गलती के बाद और भी गलत फैसले करता जाता है।

●      अक्सर वास्तविकता का उसका विकृत नजरिया होता है।

●     वह अन्दर  और बाहर दोनो ही  स्तर पर अकेलापन, अस्वीकृति और विरोध सहता है।

●      वह लोगों की दया और डर का पात्र हो जाता है।

●      सामान्यतः अन्त में उसे अपनी ग़लतियों की समझ होती है।

●      उसकी मृत्यु हो जाती है।

 

नुनदा को गए हुए ग्यारह साल हो गए। हम उनके बारे में अब बात भी नहीं करते। शायद वे और दस व्यक्तियों की ही तरह एक रहे हों। कोई खास बात उनमें आरोपित करना महज भावुकता और  फुरसताह व्यक्ति की विलासिता हो। हमेशा से हर युग में पारिवारिक बदलाव के मोड़ पर कोई नुनदा रहता हो, रहेगा। शरत चन्द्र ने कितने ही नुनदाओं को प्रस्तुत किया है।।

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