– प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
बराक ओबामा का अमरीका का राष्ट्रपति बनना अपने आप में एक विशेष घटना थी, क्योंकि वे अश्वेत हैं व उनके पुरखों की एक धारा इसाई नहीं है। श्वेत और इसाई बाहुल्य अमेरिका में यह घटना अपने आप में अद्वितीय है। परन्तु ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हैं इसलिए अमेरिका ही उनके लिए सर्वोच्च है। हाल की भारत यात्रा में ओबामा अमेरिकी जनता के लिए तो बहुत कुछ कर गए परन्तु भारत के लिए क्या हुआ इसका आकलन आवश्यक है।
अमेरिका में राष्ट्रपति बनने के लिए अच्छी सूरत और वाकपटुता होना जरूरी है। इसी संवाद कौशल का भरपूर प्रयोग ओबामा ने भारत में किया और भारतीय जनता का दिल जीत लिया। नमस्ते, धन्यवाद आदि कहने का अभ्यास और ऐसी अनेक तैयारियां करके वे भारत आए। वे आए, बोले, और विजयी हुए। उनकी जीत में अमेरिका ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के उपाय किए। उन्होंने भारत की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और जब उनके दौरे के पहले दिन के बाद उनके द्वारा पाकिस्तान का जिक्र न करने पर भारतीय मीडिया में प्रश्न उठे तो उन्होंने इसकी भी भरपाई की। परन्तु कुछ सीमा तक ही। एक विद्यार्थी द्वारा पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित न करने के प्रश्न का वे समुचित उत्तर नहीं दे पाए, क्योंकि कहीं न कहीं अमेरिकी प्रशासन का पाकिस्तान के प्रति भारत से अधिक प्रेम जगजाहिर है।
ऐसा लगता है कि सद्भावना दौरे की आड़ में ओबामा भारत के साथ विशाल व्यापारिक सौदा करने में सफल हुए। भारत में ओबामा की नजरें दो मुद्दों पर थीं। पहला, भारत की ऊर्जा शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता और दूसरा भारत में अप्रत्याशित रूप से बढ़ता हुआ मध्यवर्ग का बाजार। दोनों ही क्षेत्रों में अमेरिका, भारत से सब कुछ लेने में और कुछ न देने में सफल हुआ है। सरकारी और निजी क्षेत्र में न्यूक्लियर व अन्य प्रौद्योगिकी को अमेरिका ने भारत को बेचा है। यह इसलिए नहीं हुआ है कि यह सब भारत की आवश्यकताओं की सूची में सबसे ऊपर था। परन्तु इसलिए हुआ कि यह अमेरिकी प्रौद्योगिकी विश्व में बिक नहीं रही थी और भारत जैसा खरीददार और कोई था नहीं। अमेरिका में 50 हजार से अधिक नौकरिया इस सौदे से उत्पन्न होने वाली है। इसके कारण से भारत में कितनी नौकरियो का ह्रास होगा, या कितनी नौकरियां नई नहीं बन पाएगीं इसका आंकलन अभी तक भारत में नहीं हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व नाभिकीय विस्फोट के पश्चात जब अमेरिका ने भारत को कुछ टैक्नालॉजी के हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाया था तो भारत के वैज्ञानिकों ने प्रयास करके उन प्रौद्योगिकों का निर्माण अपने ही देश में किया था। जिसके कारण न केवल यश की प्राप्ति हुई परन्तु कई लोगों को काम भी मिला। परम कम्प्यूटर, इसका साक्षात उदाहरण है। आज जब अमेरिका वैसी ही टैक्नालॉजी को भारत को बेचने का एहसान जताता है, तो यह सदभावना नहीं है, कोरा व्यापार है, वह भी एकतरफा। क्या बेचना है वह भी अमेरिका तय करेगा और दाम क्या होंगे वह भी भारत की बजाय अमेरिकी कम्पनियॉ ही तय करेंगी क्योंकि वे ही एकमात्र निर्माता और विक्रेता हैं।
एक तथ्य जो भारतीय लोगों को कम मालूम है परन्तु विदेशी ताकतों और व्यापारियों के अधिक संज्ञान में है, वह यह है कि भारत शीघ्र ही दुनिया का सबसे बड़ा युवा देश होने वाला है। जितनी संख्या 15 से 35 वर्ष के लोगों की भारत में अगले पांच वर्ष में हो जाएगी ,उतनी चीन में भी नहीं है। यह एक बहुत बड़ी शक्ति तो है ही परन्तु एक अत्यन्त विशाल बाजार भी है। जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत को अपना बाजार खोलने के लिए मजबूर करते हैं तो यही युवा समूह उनके ध्यान में है। यह जनसंख्या प्रगतिशील है और इसकी क्रय शक्ति दिन दोगुनी और रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। अमेरिकी वस्तुओं के प्रति इसका आकर्षण भी है। भारतीय उत्पादक भी वैसा ही या उससे अधिक गुणवत्ता वाला उत्पाद बना सकने की क्षमता रखते हैं परन्तु जब अमेरिकी माल बाजार में पहुंचेगा तो वही बिकेगा। प्रश्न यह है कि यदि ये अमेरिकी माल बिका तो कौन सा माल नहीं बिकेगा, किसका उद्योग बंद होगा और किनकी नौकरियां जाएंगी ? अनुमान है कि हर अमेरिकी नौकरी के काम को यदि भारत में किया जाए तो एक चौथाई खर्च आता है अर्थात् यदि ओबामा ने जिन अनुबंधों पर हस्ताक्षर किए उनसे अमेरिका में 50 हजार नौकरियां नई बनती हैं तो भारत में दो लाख नौकरियों के बनने की संभावना समाप्त होती है। क्या खोया और क्या पाया का यदि हिसाब किया जाए तो स्पष्ट है कि ओबामा ने तो अपने देश के लिए आशा से अधिक लाभ प्राप्त कर लिया परन्तु डॉ. मनमोहन सिंह ने जाने-अनजाने बहुत कुछ खो दिया।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ हो। पूरे विश्व में अमेरिकी सरकार एक व्यापारी सरकार है यह सर्वमान्य है। हर अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने प्रवास में व्यापार ही किया है। परन्तु क्या अपने देश को इससे कुछ सीखना नहीं चाहिए ? पिछले एक वर्ष में अमेरिकी फैसलों के कारण अमेरिका में रह रहे अनेकों प्रवासी भारतीयों का व्यापार बंद हुआ है और कितने ही भारतीयों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। हमारी सरकार ओबामा के इस सख्त रवैये में ढील करवाने में पूरी असफल रही है। पाकिस्तान और चीन भारत के सामने सबसे बड़े राक्षस बनकर खड़े हैं, परन्तु राष्ट्रपति ओबामा की इस विषय में चुप्पी को तोड़ने में हमारी कूटनीति की असफलता सबके सामने है। पाकिस्तान आतंकवाद को प्रोत्साहित करे और अमेरिका उसको सैनिक सहायता दे, ये दोनों विरोधाभासी है और हमारा देश राष्ट्रपति ओबामा से इस गुत्थी का समाधान नहीं ले पाया है। चीन ने हमारे देश की हजारों एकड़ जमीन पर अनाधिकृत कब्जा किया हुआ है और इससे अधिक भूमि पर अपना आधिपत्य जता रहा है। यदि ओबामा वास्तव में भारत के मित्र हैं तो क्या उन्हें इस विषय में भारत का पक्ष नहीं लेना चाहिए। चीन और पाकिस्तान की बढ़ती हुई मैत्री पूरे विश्व के लिए खतरनाक है परन्तु ओबामा की भारत यात्रा के समय चीन के विषय में पूर्ण चुप्पी रहस्यमयी है।
ओबामा का भारतीय संसद में भाषण अत्यंत सराहनीय है, और ऐसा लगता है कि अमेरिका के लिए भारत एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य सहयोगी और मित्र है।परन्तु सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लिए ओबामा की शब्दावली ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहीं भी नहीं कहा कि अमेरिका भारत को वर्तमान में सुरक्षा परिषद की सदस्यता सुनिश्चित कराएगा। उन्होंने कहा कि वे सोचते हैं कि विस्तृत सुरक्षा परिषद में भारत को होना ही चाहिए। शब्दों का खेल है, जो न समझे वह अनाड़ी है।
भारत विश्व की बड़ी शक्ति है और अमेरिका के लिए अनिवार्य सहयोगी व मित्र है, ऐसा कह कर भारतीय मन को छल कर यह काम ओबामा अत्यन्त कुशलता से कर गए और जब हम अपने पड़ले में देखते हैं तो वह पहले से भी हल्का है। इस बात को ओबामा ने सिद्ध किया कि जब भारत यात्रा के तीसरे दिन जी-20 की बैठक के बाद उन्होंने यह वक्तव्य दिया ‘‘मैं ऐसे व्यापारी अनुबंध चाहता हूं जो दो-तरफा लाभ दें, परन्तु मेरा मुख्य कार्य अमेरिकी जनता, अमेरिकी कर्मियों और अमेरिकी व्यापार के हितों का संरक्षण करना है।’’ भारत के प्रधानमंत्री इसी स्पष्टता से राष्ट्रीय हितों की घोषणा क्यों नहीं करते, यह विचारणीय विषय है।
श्रीमान प्रो. बृजकिशोर कुठियाला जी ने बहुत ही तथ्यपरक लेख लिखा है.
वाकई अमेरिका हमसे बहुत कुछ लेकर गया है और हमने बहतु कुछ को दिया है. हमारे देश में भरपूर रोटी है, कपडा है, पानी है, खनिज है, सम्पदा है, शक्ति है, साधन है, यांत्रिकी है – सबकुछ है फिर भी क्यों अमेरिका के पीछे घूम रहे है. जैसे हमारे घर में अनाज नहीं है और अमेरिका कुछ किलो अनाज हमारी झोली में डाल जायेगा. …….
100 pratishat sahi
sahi kaha aapne