बुढ़ापा नहीं है ‘अंत’

हिमांशु प्रभाकर

अक्सर लोग बूढ़े व्यक्ति की अवस्था देखकर उसे इच्छा विहीन समझ लेते हैं और ऐसी व्यवस्था बनाते हैं जिनकी खुशियों के उत्सव में उसकी भागीदारी का कोई अर्थ नहीं बचता । वैसे देखे तो हमारी प्राचीन परंपरा भी इसी दिशा की ओर इशारा करती है जो बूढ़े को गृह-त्याग और सन्यास जैसी अवस्था से गुजारती है परंतु आज के समाज में जहां ना तो ब्रह्मचर्य है और ना ही गृहस्थ जीवन का सुखद सार ही बचा है वही बदले स्वरूप में गृह त्याग और सन्यास पर जोर समाज के लिए विघटनकारी ही होगा क्योंकि आज हमारी आवश्यकताएं तथा कर्तव्यनिष्ठा दोनों पूर्णतः बदल चुकी हैं । अब समाज में समरसता तो दूर परिवार भी विघटित होकर व्यक्तिवादी होता जा रहा है जहां केवल और केवल खुद का अस्तित्व ही सर्वोपरि समझा जाता है ।
चूंकि बुढ़ापा वास्तव में शारीरिक अवस्था से दिखता है और शारीरिक अवस्था व्यक्ति की संपूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है इसीलिए चाहे लोग जितना अपने को जवान समझ कर दूसरे को बूढ़ा करार दे । उत्साह, अभिव्यक्ति और अनुभूति में दोनों एक ही अवस्था में होते हैं अंतर है तो केवल क्रियाकलाप में ऊर्जा का जो शारीरिक अवस्था से प्रभावित होती है इसीलिए बूढ़ा उत्सव में किरकिरी करने वाला समझ लिया जाता है और इसी कारण उसे सबसे अलग कर दिया जाता है । वास्तव में देखे तो गृह-त्याग और सन्यास की अवस्था आज भी व्याप्त है परंतु उसका स्वरूप बदल गया है कथित बूढ़ा घर में तो रहता है परंतु घर उसमें नहीं रहता इसी प्रकार वह सन्यासी बन दर-दर नहीं भटकता परंतु वह अपने खालीपन में मानसिक रूप से इतना भटकता है कि जल्द ही काल के गाल में समा जाता है ।
सवाल यह है कि जन्म के उपरांत और बुढ़ापा से पहले वाली अवस्थाओं में परिवार तथा समाज क्यों अपना प्यार और लगाव व्यक्ति के ऊपर बनाए रखता है ? और बुढ़ापा वास्तव में केवल शारीरिक अवस्था परिवर्तन है मात्र आते ही सब बिफर जाते हैं क्यों ? साफ जाहिर होता है कि ‘आज हमारा समाज शारीरिक अवस्था की स्वीकृति देता है मन की तो कहीं कोई भी स्वीकारोक्ति नहीं है’ इसलिए हम आज सुंदर-सुंदर भौतिक सामग्री बनाते हैं और इसी में सब लिप्सित हैं । हम न ही कोई गूढ़ विचार, साहित्य सामग्री तथा समरसता से भरे सृजन की ओर आकर्षित होते हैं और ना ही इसके निर्माण में उत्साह दिखाते हैं ।
गौर से देखें तो परिवार में बच्चे से लेकर बूढ़े का महत्व बिल्कुल समान है क्योंकि आज जो बूढ़ा है वह भी कभी बच्चा था और जो आज बच्चा है वह कभी बूढ़ा होगा अतः इन दोनों का आपस में मिलना अति आवश्यक है परंतु मां-बाप जो पहले ही कथित बूढ़े के प्रति नकारात्मक हो चुके हैं उसकी इच्छा और शारीरिक अवस्था की क्षीणता के चलते । बच्चों को दूर कर देते हैं उससे और इस प्रकार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सभी प्रकार के सार्थक प्रवाह अवरुद्ध हो जाते हैं । चूंकि मां-बाप तो संक्रमण की अवस्था में होते हैं अतः बच्चा भी उनकी ही अवस्था तक जुड़ पाता है अर्थात अपूर्ण अवस्था तक ही मात्र ।
यदि देखे तो आज हम प्रतिस्पर्धी दुनिया में इतने मशगूल हो गए हैं कि बस सर्वोच्चता ही अंतिम सत्य दिखता है जिसे किसी भी तरह प्राप्त करना है । इस रास्ते कुछ लोग सफल तो होते हैं परंतु अधिकतर पीछे छूट जाते हैं जिनमें असफलता की भावना के चलते अलगाव, मानसिक विक्षिप्तता तथा हृदयाघात जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है । चूंकि वह इन कारणों से शारीरिक तथा मानसिक अवस्था में क्षीण हो जाते हैं परंतु मानसिक रूप से संतुलित कथित बूढ़ा इनका मार्गदर्शक बन सकता है जिसके पास जीवन का अभूतपूर्व अनुभव है परंतु शर्त है कि हमें अपने बच्चों तथा खुद को इनसे जोड़ना होगा जो वास्तव में ज्ञान और अनुभव का भंडार हैं । यह सही है कि हमारी आज की समस्याएं पहले की अपेक्षा काफी बदली हुई है तथा पहले से विकट भी हैं परंतु यह भी सत्य है कि सभी समस्याएं व्यक्ति को अंतिम रूप से एक ही प्रकार तोड़ती हैं या मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न करती है जिनके लिए अनुभवी व्यक्ति का अनुभव बेहद कारगर साबित हो सकता है ।
हम जहां परेशानी में महंगे-महंगे कंसलटेंट खोजते हैं उन पर समय और धन दोनों खर्च करते हैं । उसके दिए सुझाव सुन प्रभावित तो होते हैं परंतु उनको पूर्णतः आत्मसात नहीं कर पाते क्योंकि उसमें कुछ ऐसा अधूरापन लगता है जो उससे जुड़ाव न होंने के कारण है क्योंकि हो सकता है कि कोई आपको अपना सर्वश्रेष्ठ न दे । परंतु वही अपना संबंधी हमेशा आपके लिए अपना सर्वश्रेष्ठ ही देगा खासतौर पर आपका कथित बूढ़ा आप उनसे राय लेकर तो देखें । उसकी शारीरिक अवस्था पर न जाएं क्योंकि कहा गया है ‘व्यक्ति शरीर से बूढ़ा होता है, मन से नहीं।’ अतः हमें मन की माननी पड़ेगी क्योंकि ‘मन की मानें तो जीत, न माने तो हार’ प्रसिद्ध उक्तति है

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