व्यंग्य/ हम सबके पूर्वज एक नहीं

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अशोक गौतम

शादी के बाद से उनके तन मन पर जो छटपटाहट देख रहा था आज वह एकाएक गायब थी। चेहरा साठ की उम्र में भी यों खिला हुआ मानों अभी उनकी शादी की बात ही हो रही हो। या कि मर्दों वाली फेस क्रीम लगाने के लिए बीवी से छुपाकर पेंशन में से पैसे जोड़ पा गए हों। उनके रिलैक्सिले चेहरे को देख बड़ी ईर्ष्‍या हुई। पर मुझे इस ईर्ष्‍या से कुछ खास न मिला जैसे दुनिया के तमाम ईर्ष्‍या करने वालों को अपने को जलाने के सिवाय आज तक कुछ हासिल न हुआ हो।

वे आते ही अपना खुशबूदार चेहरा और बदबूदार औने पौने दांत दिखाते देवानंद के इस्टाइल में बोले,‘ यार! आज बड़ा खुश हूं ! उन्होंने कहा तो आज फाइनल हो ही गया कि हमारे वंशज बंदर ही थे। मैं बड़े दिनों से पसोपेश में था कि मैं हूं किसकी संतान? मन कोई हरकत करता तो लगता कि मेरे ये वंशज होने चाहिएं। मन वो करता तो फिर दुविधा में पड़ जाता कि ये नहीं, मेरे वंशज तो वो होने चाहिएं। पर अब जाकर पहेली सुलझी! मत पूछ यार, आज मैं कितना खुश हूं ! इतने खुश तो इस देश में वे भी नहीं होंगे जो इस देश को अपना पुश्‍तैनी माल समझ डटे हुए हैं,’ कह वे ऐसे सोफे पर पसरे कि मुझे अपने खोई जवानी के दिन याद आ गए! इस खोई जवानी को पाने के लिए कहां कहां नहीं भटका भाई साहब! जहां भी खोई जवानी का विज्ञापन देखा, हवा हो लिया। पर एक बार जो गई तो कम्बखत लौट कर नहीं आई।

अति रिलैक्साने मूड में उनके सोफे पर यों घोड़े बेचकर पसरना मुझे कतई बरदाश्‍त न हुआ तो मैंने मन ही मन भाड़ में भुनते चनों सा उनसे कहा,‘ यार! देखा न! हम भी पढ़े लिखे कितने बड़े मूर्ख हैं? पता तो हमें सब होता है पर जब तक वे नहीं कहते कि… तब तक हमें विश्‍वास ही नहीं होता। इस देष की जनता के पास और तो सबकुछ है पर अपने पर विश्‍वास नहीं। सब जानते हैं कि देष खतरे में हैं, पर नहीं ! जब तक वे लाल किले से नहीं कहते कि देश संकट में है, हमें लगता ही नहीं कि देश संकट में हैं। वे जब तक नहीं कहते कि हमें भाई चारे में रहना चाहिए तब तक हमें लगता है ही नहीं कि हमें भाई चारे में रहना चाहिए। असल में हमें हर बात के लिए उनका चेहरा देखने की आदत जो हो गई है। मानो हमारा अपना कोई चेहरा जैसे हो ही नहीं। लगता है,इस अक्खी इंडिया में रहने वालों के पास और तो सबकुछ है पर दिमाग नहीं है। मुझे तो पहले ही पता था कि कम से कम तुम्हारे वंशज तो बंदर ही थे पर तुम ही उलझन में थे कि….’ कह मैंने अपने भीतर की जितनी भड़ास मैं निकाल सकता था, निकाल ली।

‘ तो अपनी हरकतों से तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हारे वंशज कौन हैं?’ कह वे मेरा मुंह ताकने लगे तो मैं अजीब से कोमा में चला गया! फिर बड़ी शिद्दत के साथ अपने को सेफ पैसेज देते कहा,‘ देखो मित्र! हम सबके असल में बंदर वंशज नहीं। वास्तव में देखा जाए तो कुछ के वंशज कोई और हैं तो कुछ के कोई और! तुम बंदरपना करते हो तो तुम्हारे वंशज बंदर हुए। वे हरपल रंग बदलते हैं तो मेरे हिसाब से उनके वंशज गिरगिट हैं। जो डार्विन आए तो यही कहे। जो हर कदम पर दस दस छल करते हैं तो मेरे हिसाब से उनके वंशज बंदर नहीं, सियार लगते हैं। जो चौबीसों घंटे देश को खाते रहते हैं उनके वंषज किसी भी हाल में बंदर नहीं हो सकते, हाथी होने चाहिएं। मेरी बात पर विश्‍वास न हो तो जाकर डार्विन से पूछ लो। और जो सरकार के खाने पर हल्ला करते रहते हैं, न अपने आप सोते हैं और न सरकार को सोने देते हैं मेरे हिसाब से उनके वंशज…… और जो मुफ्त की खाने में ही अपनी शान समझते हैं उनके वंशज भला बंदर कैसे हो सकते हैं? गीदड़ होने चाहिएं! बंदर जिनके वंशज हैं वे तो कभी इस दल में तो कभी उस दल में छलांग लगाते रहते हैं, जैसे तुम घुटनों तो घुटनों गरदन की ग्रीस सूख जाने के बाद भी कभी इस प्रेमिका के यहां तो कभी उस प्रेमिका के यहां कुलांचे मारते रहते हो, भले ही वे घास तो दूर की बात, तुम्हें तूड़ी भी न डालें।’

‘ तो मेहनत करने के बाद भी भूखे सोने वालों के वंशज कौन होंगे?’

आप ने कहीं पढ़ा हो तो जरूर बताएं! कम से कम इस देश में एक गुत्थी तो सुलझ हो जाएगी।

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