अधिकांश अखबारों में वर्गीकृत, डिस्प्ले क्लासिफ़ाईड विज्ञापनों की भरमार होती है। इनमें आवश्यकता, टयूशन-शिक्षा, ज्योतिष, वास्तुकर, मशीन उपकरण, मोबाईल, खरीदना-बेचना, व्यापारी, ब्यूटी पार्लर-पिटनेस आदि के वर्गीकरण के साथ विज्ञापन प्रकशित किए होते हैं।
इन विज्ञापनों में की विज्ञापन ऐसे होते हैं, जिन पर पृथम दृष्टा ही विश्वास नहीं किया जा सकता है और कहा जा सकता है कि ये फर्जीवाडे़ को फैला रहे हैं।
इन विज्ञापनो में से किसी में नौकरी के विज्ञापन होते हैं, तादाद बहुत होती है, पेमेन्ट बहुत ज्यादा लिखी होती है, जिन पर सहज विश्वास नहीं किया जा सकता है। कोई विज्ञापन बाबाओं, तांत्रिकों के होते हैं। तो कोई मसाज पार्लर, ब्यूटिपार्लर के होते हैं, जिनमें मसाजर की जरूरत है और पेमेन्ट 10 से 15 हजार रोजाना कमाने की बात होती है। कहीं व्यापार के लिए आमंत्रण होता है, तो कहीं सेक्स समस्याओं को दूर करने के दावे…. कहीं नेटवर्क माकेर्टिंग के लालच, तो कहीं कुछ और…
कुल मिलाकर अखबार के पन्नो के विज्ञापनों से पटे होते हैं, जिन पर सहज विश्वास नहीं होता है और विश्वास करता है, तो ठगे जाने की पूरी संभावना होती है। इन विज्ञापनों को देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये किसी किस्म के होते हैं।
‘पाठकों को सलाह दी जाती है कि किसी भी विज्ञापन पर कर्रवाई करने से पूर्व आवश्यक/संपूर्ण जानकारी कर लेवें। यह समाचार पत्र विज्ञापनदाता द्वारा दिए गए किसी भी प्रकार के दावे/प्रस्तुतिकरण के लिए जिम्मेदार नहीं है।’ ऐसी या इस आशय की पन्नो पर कहीं प्रायः मिल जाया करती हैं। साफ जाहिर है विज्ञापनों के दुष्परिणामों अगर सामने आते हैं, तो इनके प्रकाशन की जिम्मेदारी से बचने के लिए इस प्रकार की लाईन लगा दी जाती है।
यहां सवाल उठता है कि क्या इस प्रकार के विज्ञापनों के संबंध में समाचार-पत्र की, अखबार की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है? जवाब में इस आशय के जवाब होते हैं कि ये तो विज्ञापन है, लोग पैसे देते हैं और हम(अखबार वाले) विज्ञापन लगा देते हैं। ये तो बिजनेस है….
तो क्या बिजनेस के लिए जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा जा सकता है? नहीं कतई नहीं। रुपए-पैसे देकर अखबार में यदि किसी भी प्रकार के विज्ञापन छापा जा सकता है, तो कल ये आतंकवादी, नक्सलवादी विज्ञापन छपवाना चाहेंगे, तो क्या अखबार वाले छाप देंगे? ….और जिम्मेदारी से मुक्ति के आशय को इंगित करती लाईन लगा देने से क्या जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऐंगे? जवाब न में ही होगा।
…. तो फिर आम रूप से प्रथम दृष्ट्या ही फर्जी लग रहे विज्ञापन के माध्यम से कोई ठगी के शिकार होता है, तो अखबार वालों की जिम्मेदारी नहीं है?
यहां गौर करने लायक बात यह है कि अखबार के बिजनेस, विज्ञापनों के बिजनेस अन्य बिजनेसों से अलग है। जिस प्रकर खबरों के असर समाज पर पड़ता है, वैसे ही विज्ञापनों के भी असर समाज पर पड़ता है और एक लाईन लिख भर देने से विज्ञापनों से पड़ने वाले असरों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। अगर मुंह मोड़ रहे हैं, तो यह जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना है। आपक क्या कहना है?
पंकज व्यास, रतलाम
बहुत बढ़िया आलेख लिखा है। धन्यवाद।
मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी. अर्थ का लोभ-संवरण त्याग कर अपनी मर्यादाओं और नैतिकता पर भी विमर्श करना होगा. अर्थतंञ के मकड़जाल में उलझा मीडिया इन दिनों सर्वञ निंदा ही पा रहा है. बहरहाल लेख उम्दा है. बधाई.