सिर्फ पैसों से साक्षरता नहीं बढ़ती

मदन मोहन झा

हाल ही में योजना आयोग ने उस प्रस्ताव को मंजूर किया है जिसमें राष्‍ट्रीय औसत से कम साक्षरता दर वाले बिहार समेत कुछ राज्यों को सर्व शिक्षा अभियान के तहत केंद्र और अधिक कोष उपलब्ध कराएगा। इन राज्यों को मौजूदा 65:35 के मुकाबले 75:25 के अनुपात में राशि उपलब्ध कराई जाएगी। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में साक्षरता की दर 63.8 प्रतिशत है। जो न सिर्फ राष्‍ट्रीय औसत 74.04 प्रतिशत से कम है बल्कि यह देश में सबसे कम औसत भी है। दरअसल बिहार समेत कुछ राज्य यह मांग कर रहे थे कि केंद्र सर्व शिक्षा अभियान में दी जाने वाली राशि को बढ़ाए क्योंकि वह अपने हिस्से की पूरा कर पाने में असमर्थ हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में बिहार में साक्षरता की दर बढ़ी है लेकिन इसके बावजूद यह राष्‍ट्रीय औसत से अब भी काफी पीछे चल रहा है। बिहार सरकार शिक्षा के संबंध में काफी कुछ दावे भी कर रही है। कहा जा रहा है कि शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति भी की जा रही है। लेकिन हाल के दिनों में नियुक्त शिक्षकों द्वारा मुख्यमंत्री के खिलाफ नारेबाजी और प्रदर्शन से तो यही लगता है कि शिक्षा को बढ़ावा देने का जो प्रयास किया जा रहा है उसकी नीति में कुछ खामियां हैं।

शिक्षा के औचित्य से किसी को इंकार नहीं हो सकता है। वास्तव में शिक्षा ही वह ताकत है जो इंसान को अन्य जीवों से अलग श्रेणी में बांटता है। जिसके माध्यम से मनुष्‍य अच्छे और बुरे के बीच फर्क को महसूस करता है। जहां से वह अपने अधिकार और समाज के प्रति कर्तव्य को सीखता है। जिस देश के नागरिक जितना अधिक शिक्षित होंगे वह देष उतनी ही तेजी से पूर्ण विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा। यही कारण है कि दुनिया के सभी देश जातपात के भेदभाव से उपर उठकर सभी नागरिकों की शिक्षा पर जोर देते हैं। हमारे देश में भी शिक्षा को सदैव प्राथमिकता दी जाती रही है। केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारें शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर अधिक ध्यान केंद्रित करती रही हैं। केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार कानून इस दिशा में एक एतिहासिक पहल है। परंतु कानून बना देने से ही हर समस्या का समाधान नहीं हो जाता है। इसके लिए जरूरी है उसका उचित क्रियान्वयन जो शायद इन राज्यों में नहीं हो रहा है।

बिहार में कोई शक नहीं है कि साक्षरता को बढ़ावा देने के काफी उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है सतत नीति की। एक ऐसी पॉलिसी की जिसमें सभी की आवष्यकताएं पूरी हों। न केवल बेहतर स्कूल हों बल्कि वहां का शैक्षणिक वातावरण भी ऐसा हो कि अभिभावक उसकी उपयोगिता को समझें। यही कमजोर नीति यहां की साक्षरता दर को बढ़ने में रूकावट बनती रही है। बिहार में अब भी ऐसे कई स्कूल हैं जहां शिक्षकों की नियुक्ति भी नहीं हुई है। यदि है तो स्कूल भवन का अभाव है। स्कूलों में सुविधाएं नग्णय हैं। स्कूलों में इतने कमरें नहीं हैं कि सभी क्लासें चल पाएं। भवन के अभाव में मजबूरन बच्चों को खुले आसमान के नीचे पढ़ना पढ़ता है। ऐसे में बारिश के मौसम में कितनी क्लासें लगती होंगी अंदाजा लगाना कोई मुष्किल नहीं है। बात केवल गांव के स्कूलों की नहीं है बल्कि ब्लॉक स्तर पर ऐसे स्कूल हैं जो सुविधाओं के अभाव में चल रहे हैं। राज्य के मधुबनी जिला के बिस्फी ब्लॉक का राजकीय उच्च विद्यालय का ही उदाहरण लीजिए। यह स्कूल ब्लॉक मुख्यालय के ठीक सामने है। दो मंजिला इमारत में संचालित यह स्कूल दूर से देखने में किसी आदर्श विद्यालय की तरह लगता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि न तो इसमें कोई खिड़की है और न ही किसी क्लासरूम में कोई दरवाजा। इस स्कूल में करीब एक हजार बच्चे शिक्षा की प्राप्त करते हैं जिनमें करीब 400 लड़कियां हैं। इसके बावजूद इस स्कूल में लड़कियों के लिए विशेष रूप से किसी प्रकार के षौचालय की व्यवस्था नहीं है। स्कूल में विज्ञान, भूगोल और उर्दू के टीचर का पद पिछले कई सालों से खाली पड़ा है। इन विषयों की पढ़ाई स्कूल के पीटी टीचर के माध्यम से कराई जाती है। शिक्षकों की कमी के कारण ही यहां अबतक 10वीं से आगे की पढ़ाई शुरू नहीं कराई जा सकी है जबकि 2009 में ही इसका दर्जा बढ़ाकर 12वीं तक कर दिया गया है। इसके पीछे तर्क यह है कि स्कूल के प्रिंसिपल का पद भी कई सालों से खाली पड़ा है। फिल्हाल प्रिंसिपल की भूमिका स्कूल के वरिष्‍ठ शिक्षक ही अदा करते हैं। चैंकाने वाली बात यह है कि स्कूल में एक लाइब्रेरियन की नियुक्ति जरूर हुई है लेकिन स्कूल में कोई लाईब्रेरी है ही नहीं। यही अजूबा उस स्कूल में है जो ब्लॉक ऑफिस के ठीक सामने है जहां से रोजाना ब्लॉक शिक्षा अधिकारी का गुजर होता है। यह मुद्दा बिहार के केवल एक स्कूल का नहीं हैं बल्कि राज्य में कई ऐसे स्कूल हैं जिसकी स्थिति इससे अलग नहीं है। प्रश्‍न यह उठता है कि आखिर शिक्षा की योजनाओं को जमीनी स्तर पर क्रियान्वित करवाने के लिए कोई ठोस नीति क्यूं नहीं बनाई जाती है? उच्च शिक्षा को अधिक से अधिक मजबूत बनाने के लिए कई स्तरों पर विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। नए तकनीकि विश्‍वविद्यालयों की स्थापना पर जोर दिया जा रहा है। ऑनलाइन परीक्षा की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। छात्रों को कम से कम कीमत पर लैपटॉप उपलब्ध कराएं जा रहे हैं ताकि सारा आकाश उनकी मुट्ठी में हो। परंतु जबतक बुनियादी स्तर कमजोर रहेगा तो हमारे लिए इस क्षेत्र में कामयाबी की आशा करना हवा में महल बनाने से अधिक नहीं होनी चाहिए। साक्षरता दर को बढ़ाने के लिए केवल पैसे मिल जाने से मसले का हल नहीं निकल जाता है। (चरखा फीचर्स)

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