परेशान सिर्फ गरीब होता है

देश इन दिनों ऐसे आर्थिक संकट से जूझ रहा है जो बड़े-बड़े अर्थशास्त्री को नजर नहीं आएगा। क्योंकि जो भाषा अर्थशास्त्रीयों को समझ में आती है, वो भाषा एक गरीब मजदूर और किसान की समझ से बहुत दूर है। हाल फिलहाल भाजपा सरकार में रहे पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने वित्त मंत्री अरूण जेटली की अर्थनीति पर कई सवालिया निशान खड़े किए हैं। पार्टी के अंदर से ही उठी आवाज को लेकर विपक्ष एक बार फिर से लामबंद हो गया है। परन्तु अर्थव्यवस्था के इस पक्ष-विपक्ष के झगड़े से आम जनता का क्या नफा और क्या नुकसान है, यह सवाल विचारणीय है। सरकार ने अमीरों को निशाना बनाया, तो अमीरों ने गरीबों के मुंह से निवाल छीन लिया। क्योंकि जिन अमीरों को सरकार ने निशाना बनाया था, वही लोग हैं जो देश के गरीब और मजूदर तबके के लोगों को रोजगार देने का काम करते हैं।
नोटबंदी की वो शाम गरीब हो या अमीर किसी से भुलाई नहीं भूलती। अमीर यह सोच में पड़ गया कि अब इस माल खजाने का क्या होगा जो वर्षों से दबा-दबाकर रख रखा था। वहीं गरीब इस बात को सोचकर खुश था कि अब अमीर भी उनकी बराबरी पर आ जाएंगे। बडे़ ही उत्साह के साथ गरीबों ने सरकार के इस फरमान को सिर-माथे पर लिया और बैंकों की कतरों में लगकर भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रहे इस महायज्ञ में अपना पूर्ण सहयोग दिया। वहीं दूसरी ओर जिनके पास अथाय सम्पत्ति थी वो अपनी काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए गरीब और मजदूर का इस्तेमाल करने लगे। मजदूरों को भी बैंकों की लाइन में लगने की पूरी मजदूरी दी गई। लगने लगा की नोटबंदी के बाद देश की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। परन्तु ऐसा हुआ नहीं।
देश में काली कमाई से कारोबार करने वालों ने अपने संस्थानों को बंद करना शुरू कर दिया। जिसके पास करोड़ों की सम्पत्ति है अगर उसकी आधी से ज्यादा सम्पत्ति भी नष्ट हो जाए तो उससे क्या फरक पड़ने वाला था। फरक तो उसे पड़ने वाला था, जो सुबह मजदूरी करने निकलता था और शाम को उस मजूदरी के पैसे से अपना घर चलाता था। ये बात सही है कि नोटबंदी से बड़े-बड़े नेता जो चुनाव में करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाने वाले थे, उनकी कमर टूटी। उद्योगपति जो कालाबाजारी करते थे उनकी कमर टूटी, लेकिन ये बात भी सच है कि इन्हीं नेता, कालाबाजारी करने वाले व्यापारी, उद्योगपतियों से एक गरीब मजदूर की रोजी-रोटी चलती थी। जो अब संकट थी।
सरकार का फैसला सही था और उसने चोट भी सही जगह की थी, लेकिन देश में हर जोड़ का तोड़ निकाल लिया जाता है और वही हुआ। चंद नेता, चंद उद्योगपति ने मिलकर सरकार को नीचा दिखाने की रणनीति बनाई। यह बात जगजाहिर है कि हमारे देश की जनता अगर किसी को शिखर तक पहुंचा सकती है तो वह उसे धरातल पर भी गिरा सकती है। जिसके व्यापारी के पास दस करोड़ रूपये हों और उसमें से उसे नौ करोड़ रूपये नुकसान हो जाए तब भी वह एक करोड़ रूपये का आसामी होगा। परन्तु जिस मजदूर के पास केवल हर दिन की मजदूरी ही है, और वो मजदूरी भी उसे मिलनी बंद हो जाए तो यह बात माथे पर चिंताओं की लकीरें खींचने के लिए काफी है।
नोटंबदी के बाद से ज्यादातर कालाबाजारी करने वाले कारोबारियों ने सरकार से बदला लेने के लिए गरीब, मजदूर और किसान को निशाना बनाया। कारोबारी, ठेकेदारों और बड़े-बड़े उद्योगपतियों से लेकर छोटे-मोटे दुकानदारों ने अपने यहां काम करने वाले लेवर वर्ग के लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया। उनके वेतन में कटौती, वेतन समय पर न देना, प्रतिष्ठानों को लम्बे समय तक बंद रखना जिससे मजदूर तबके का व्यक्ति परेशान होने लगा और जब वह किसी अच्छे काम के लिए देश की सरकार की वाहवाही करता है, तो अपने मुंह का निवाला छिनने पर देश की सरकार की ही बुराई करने लगा। और आलम है कि आज सरकार विरोधी स्वयं देश के हर गरीब के मुख से सुनाई देने लगा।
लेकिन अभी यह अंत नहीं शुरूआत थी। देश की जनता को तो अभी और परेशान होना था। जनता की परेशानी बढ़ाने के लिए सरकार का एक और फैसला सामने आया, वो था जीएसटी। अभी तक व्यापारी चीजों के दाम अपने मनमुताबिक वसूलते थे, अब उन्हें भी जीएसटी के नाम पर पूरा लेखा-जोखा बनाकर तैयार रखना होगा। अब तक कपड़े के कच्चे माल पर कोई टैक्स नहीं था, लेकिन कपड़ा व्यापार को भी सरकार ने जीएसटी के दायरे में ले लिया गया। हालांकि इस बात से उद्योगपतियों को फरक नहीं पड़ना चाहिए था, पर उन्हें फरक पड़ा, क्योंकि उनकी काली कमाई पर एक लगाम लगी थी। जिसका खामियाजा भी एक बार फिर गरीब जनता को ही भुगतना पड़ा। जिस व्यक्ति को जीएसटी, जीडीपी जैसे शब्दों के मायने नहीं पता उन्हें दुकानदारों ने जीएसटी का खौफ दिखाकर सरकार को कोसना शुरू कर दिया।
देश में अवैध करोबारियों को लाइन पर लाने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम सराहनीय हैं, लेकिन इन फैसलों से परेशान आम अदमी को होना पड़ा है। फिर चाहे वह बिल्डरों के अवैध करोबार पर लगाम लगाने का काम है, रेत माफियाओं पर शिकंजा कसा गया हो, सर्राफा व्यापारियों पर टैक्स लगाया हो या फिर हाईवे के किनारों से शराब के ठेकों को उखाड़ फैका हो। इन सभी से कहीं न कहीं एक आम आदमी जुड़ा था, जिनका रोजगार इन अवैध कारोबारियों से ही चलता था।
जितेन्द्र कुमार नामदेव

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