उफ़ ! जब माँ गंगा भी रोई होंगी…?

                  प्रभुनाथ शुक्ल

भारत कोविड-19 संक्रमण को लेकर संकट काल से गुजर रहा है। यह महामारी इतनी भयंकर रुप लेगी इसकी कल्पना न तो कभी सरकारों को थीं और न नागरिकों को। हलांकि चिकत्साविेशेषज्ञों ने इसकी चेतावनी दे दिया था कि इसकी दूसरी लहर भी आ सकती है। अब तीसरी लहर के और अधिक भयानक होने की बात भी आ रही है। फिर सरकारों ने क्यों नहीं चेता। दुनिया के साथ भारत को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। लाखों की संख्या में आम से लेकर खास नागरिक इस महामारी का शिकार हुआ और हो रहा है। अभी यह कब तक चलेगा इसका कोई अंदाजा नहीं है। देश की 130 करोड़ जनता अब तक की सभी सरकारों से यह सवाल पूछ रहीं है कि हमने आपको सत्ता, रुतबा, अधिकार और सांविधानिक शक्तियां दिया, लेकिन आपने आजाद भारत में हमें क्या दिया ? यह आप अपने गिरेबाँ में झांक कर देखें। जहाँ ऑक्सीजन और इलाज के आभाव में लाखों लोग दमतोड़ देते हैं, उस देश के नागरिक किस सत्ता और सरकारों पर गर्व करेंगे ? लाख सरकारें हों जब सिस्टम गांधारी बन जाएगा तो कुछ नहीं होगा।

कोविड-19 की पहली लहर तो किसी तरह गुजर गयी थी। जिस तरह के दृश्य लोगों के आंखों के सामने गुजरे थे उसकी पीड़ा आज भी ताजा है। बेगुनाह लोग पालायन की वजह से बेमौत मारे गए। हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर गाँव पहुंचे और सरकारें असहाय बनी रहीं। लोग उस त्रासदी को आहिस्ता आहिस्ता भूल रहे थे। प्रवासियों की मौत और सरकारों की नाकामियों को भी लोगों ने भूला दिया था। अर्थव्यस्था पटरी पर आने लगी थी। कामगार शहरों को लौट गए थे लेकिन दूसरी लहर ने देश को तबाह कर दिया है। शहरों के साथ इस बार ग्रामीण इलाकों में इसका प्रकोप अधिक है। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में मानव पूंजी का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। महामारी की डर की वजह से इंसानियत खत्म हो गई। अपनों ने भी दूरिया बना लिया। गंगा हजारों लाशों से पट गयी। शवों का अंतिम संस्कार करने के बजाय लोगों ने सीधे गंगा में प्रवाहित कर दिया।

देश में सबसे अधिक बदतर हालात स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर हुई है। न्याय व्यवस्था की अहमपीठ यानी अदालतों को सरकारों के खिलाफ तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। चिकित्सा सुविधा को लेकर सरकारों को कटघरे में खड़ा होना पड़ा। सोशलमीडिया पर भुक्तभोगियों ने जिस तरह अपनी पीड़ा के वीडियो शेयर किए वह मरती हुई इंसानियत को बताने में काफी है। हमारा मसशद किसी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का नहीं है, लेकिन सरकार क्यों है यह भी अहम सवाल है। हमारी स्वास्थ्य व्यस्था जिस तरह बदहाल है उसे देख कर तो यही लगता है कि हम दूसरे हिस्सों में चाहे जो प्रगति कर लिया हो लेकिन स्वस्थ्य सुविधाओं को लेकर अभी हमें बहुत कुछ करना होगा।फिलहाल हम यह नहीं कहते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं का विकास नहीं हुआ या सरकारों ने काम नहीं किया हमारा सवाल बस इतना है कि अगर सबकुछ हुआ है तो ऑक्सीजन और चिकित्सा सुविधओं के अभाव में लोगों की मौतें क्यों हुई।

चिकित्सा सुविधा के अभाव में इंसान तो बेमौत मारे गए, लेकिन लाखों युवा और दूसरे लोग इस दुनिया से रुख्सत हो गए। उनकी मौत परिजनों को जिंदगी भर की टींस दे गयी। क्योंकि उनकी बाकि बची हुई जिंदगी सरकारों और व्यवस्था की नाकामियों की वजह से ऑक्सीजन और इलाज के अभाव में खत्म हो गई। परिजनों के सपने खत्म हो गए, जीवन की उम्मींदे टूट गयी। निजी अस्पतालों में जिस तरह लूट और सरकारी अस्पतालों में जिस तरह लापरवाही की खबरें आयीं वह शर्मसार करने वाली हैं। जिन भगवान स्वरुप चिकित्सकों के लिए देश की जनता ने तालिया और दीये जलाए थे उन्हीं में तमाम ने अपने कर्तव्य और नैतिकता को तिलांजलि दे दिया। हम सभी चिकित्सकों पर सवाल नहीं उठाते, लेकिन इस तरह की हरकत करने वाले बहुतायत हैं जिनकी वजह से देश और समाज शर्मसार हुआ। जिन पर हमें गर्व करना चाहिए उन्होंने इंसानियत को ताख पर रख दिया।

सरकारों से यह सवाल तो जनता पूछेगी। क्योंकि आप नागरिक अधिकार की रक्षा क्यों नहीं किया। जनता ने आपको चुना फिर आप उसकी उम्मीद पर खरा क्यों नहीं उतरे। आपने उसे क्या दिया ? क्या सिर्फ सत्ता ही आपका धर्म और कर्म है। सरकारें निश्चित रुप से अपनी नैतिक जिम्मेवारी से नहीं बच सकती। सरकारों से कहीं न कहीं भूल हुई है जिसकी भरपाई वे कभी नहीं कर सकती हैं। जिस तरह के कदम आज उठाए जा रहे हैं वह पहले क्यों नहीं उठाए गए। एक महामारी ने हमारी नीति, नैतिकता और व्यवस्था को नंगा कर दिया। जिस परिवार में जवान बेटा, बेटिया, पति और पत्नी मर गए क्या उनकी वेदनाएं हमें कभी माफ करेंगी। यह अपने आप में विचारणीय प्रश्न है।

विपक्ष आज सत्ता को कटघरे में खड़ा कर रहा है, लेकिन कल जब वे सत्ता में थे तो उन्होंने क्या किया इसका भी उन्हें हिसाब देना होगा। उन्हें भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। बेगुनाह लोगों की मौत के लिए जितनी वर्तमान सरकारें जिम्मेदार और जबाबदेह हैं उससे कहीं अधिक विपक्ष है। क्योंकि अगर उनकी सरकारों ने स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किया होता तो इस महामारी में शायद देश को यह पीड़ा न देखनी पड़ती।

एक संप्रभु राष्ट्र की जनता ने आपको सत्ता सौंपी लेकिन आपने उसे क्या दिया। हम उन्हें एक अदत अस्पताल और ऑक्सीजन की बॉटल तक उपलब्ध नहीं करा पाए। क्या कभी सरकारों ने इसका मूल्याकंन किया। हमने सिर्फ सत्ता के लिए लोगों को धर्म, जाति, और संप्रदाय में बांट कर सियासी उल्लू सीधा कर भावनात्मक शोषण किया। देश की जनता को हमने इस तरह उलझाए रखा कि वह कभी अपने अधिकार की बात ना करे। हमने नागरिक अधिकारों को भेंड़ बकरियों से भी कम समझा। आजाद भारत में नागरिकों के लिए ऑक्सीजन अस्पताल तक मुहैया नहीं करा पाए। अस्पताल मिला तो डाक्टर नहीं। डाक्टर हैं तो ऑक्सीजन और दवाएं नहीं। सबकुछ है तो कुछ डाक्टरों की मरी हुई संवदनाओं ने जिंदा लोगों को मार डाला। संक्रमित मरीजों को अस्पतालों में भर्ती नहीं किया जा रहा। नागरिकों को पीएमओ, सीएमओ और मंत्रीयों से गुहार लगानी पड़ी, लेकिन कुछ भी काम नहीं आया, सबकुछ लुट गया।

देश की चिकित्सा व्यवस्था पर अदालतों ने किस तरफ की टिप्पणीयां की वह भी किसी से छुपी नहीं है। आखिर यह सब क्यों हुआ और हो रहा है। हमारा सिस्टम आँखों पर पट्टी बाँध गंधारी की भूमिका में क्यों बैठा रहा। श्मशान लाशों से पटता रहा। अंतिम संस्कार को लकड़ियां खत्म हो गईं। लाशों से गंगा अट गईं और हम मौन होकर देखते रहे। सिस्टम को भले न कोई फर्क पड़ा हो लेकिन मानवीय शवों के ढेर को देख माँ गंगा की आँखे भी नम हो गईं होंगी और वह आँचल से आसूंओं को पोछ जरूर रोई होंगी। सत्ता विपक्ष तो विपक्ष सत्ता पर आरोप लगता रहा, लेकिन दमतोड़ते लोगों को ऑक्सीजन नहीं उपलब्ध करा पाया। हम क्या इस तरह की घटनाओं से सबक लेंगे। क्या देश में अब तक सरकार नाम की संस्थाएं रहीं हैं, अगर रहीं हैं तो उन्होंने क्या किया। जब हम देश नागरिक प्राणवायु के लिए लड़ रहा हो और हम चुनावों में लगे हों क्या यही हमारा दायित्व है। क्या अडालातों की नसीहत के बाद ही हमारी नैतिकता और दायित्वबोध जागते हैं। अब तक की सरकारों को लिए यह बेहद शर्म की बात है। स्वास्थ्य सुविधाओं का सवाल अब भी हासिए पर है। इस संक्रमणकाल में इस पर गंभीरता से मंथन होना चाहिए।

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