ओम थानवी के नाम खुला पत्र / प्रेम जनमेजय

1
216

प्रिय भाई

यह पत्र ‘ताकि कुछ गर्द हट’ के संदर्भ में लिख रहा हूं। आप तो जानते ही हो कि साहित्य में धूल भरी आंधियों का मौसम सदा से रहा है, आप कितना भी बुहार लें गर्द हटकर फिर अपने अस्तित्व के साथ उपस्थित हो जाती है। कह सकते हैं कि गर्द का स्थानांतरण होता है।

मैं इस बहस को लगातार फॉलो कर रहा हूं, ट्विटर या फेसबुकीय स्टाईल में नहीं अपितु एक भुक्तभोगी के रूप में । जानता हूं मेरे जैसे अनेक भुक्तभोगी हैं। (कृपया भुक्त को भुक्त ही पढ़े मुक्त नहीं) आपने जो मुद्दे उठाए हैं उनसे हर स्वतंत्र लेखक साहित्यकार का सामना होता रहा है। अपने-अपने गढ़ों और मठों में सुरक्षितों पर जब आक्रमण होता है वे तभी अपने हथियारों से लैस लेकर मैदान में कूदते हैं। अन्यथा अपने-अपने कवचयुक्त गढ़ों में सीमित देवताओं की तरह अपनी श्रेष्ठ दुनिया रचते रहते हैं। जैसे संत और सीकरी का संबंध शाश्वत है वैसे ही साहित्यकार का साहित्य की दुनिया में, मठों और गढ़ों से पुराना संबंध है। जो संत सत्ता के गलियारों में चहलकदमी, आवाजाही एवं चूहा दौड़ के आदि होते हैं वे सीकरी किसी की हो अपना मठ स्थापित कर ही लेते हैं। यह स्थापन अपना दल हो तो तत्काल होती है और दूसरे का दल हो तो कुछ समय लगता है। कुछ लोग विरोध इसलिए करते हैं कि उनको उनके ‘फल’ से वंचित न कर दिया जाए। ऐसे एक अग्रज ने तो मुझे मेरे एक साहित्यिक मित्र के बारे में यह कहकर सावधान किया कि वह हंसोड़ हैं अतः तुम जैसे गंभीर के लिए अछूत। पर वही अछूत जब सत्ता के गलियारे में प्रतिष्ठित पढ़ पा गया तो मेरे अग्रज संत चारण भाट बन गए। आप तो जानते ही हैं कि समाज में से ‘अछूत’ विचारधारा का विरोध करने वाले वैचारिक आदान-प्रदान के मामले में कितने संकीर्ण होते हैं।

सारा मसला उदारवाद एवं संकीर्णता के बीच बहस का है। पर इसमें बहुत बड़ी विसंगति है। हम दूसरों से तो अपने प्रति उदार होने की अपेक्षा करते हैं, परंतु स्वयं अपने दरवाजे बंद रखते हैं। हम संकीर्णतावाद के विरुद्ध उदारवादी हैं और उदारवाद के विरुद्ध संकीर्ण।

वस्तुतः हम आधे कबीर हैं हम यह तो कह सकते हैं-

जो तूं ब्राह्मण ब्राह्मणी का जाया, और द्वार ते क्यों नहीं आया

अथवा

पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।

पर हम कबीर की तरह यह नहीं कह सकते हैं –

कांकर पाथर जोड़ि के मस्जिद लई बनाए

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय।

हम कबीर की तरह ये कहने का साहस भी नहीं कर पाते हैं- बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।’ हमारा ‘कमाल’ तो यह है कि हम अपने ‘कमाल’ को पढ़ने नौकरी करने उसके भौतिक विकास के लिए अमेरिका भेजते हैं। पर आपने हमारा साहस नहीं देखा। हमारा साहस कबीर से भी बढ़कर है। हम ‘कमाल’ को अमेरिका भेजते हैं पर उसी अमेरिका को भरपूर गालियां भी दे लेते हैं।

आपने लिखा है- जो ही, लोकतंत्र में आस्था रखना संपादकीय दायित्व निर्वाह की पहली शर्त है। इसलिए समर्थन से ज्यादा विरोध को जगह देना मुझे अधिक जरूरी जान पड़ता है।’’ आपको लगता ही है कि आपकी लोकतंत्र में आस्था है, परंतु आपको तो लोकतंत्र का सही ‘प्रयोग’ करना ही नहीं आता, आप डरपोक हैं। यहां तो लोकतंत्र में अपने विरोधियों को स्थान देना तो दूर रास्ते से ही हटा देने का प्रावधान है। आप किस उदारता के चक्कर में पड़ गए हैं श्रीमान। आप तो स्थान दे रहे हैं, उनका बस चला तो आप रास्ते से हटा दिए जाएंगे।

आप आवाजाही की बात कर रहे हैं पर जानते हैं कि इस मार्ग में कुछ लोगों को ही यह अधिकार है, सुविधा है। वे जब चाहें अपनी सुविधा के लिए आवाजाही कर सकते हैं। ऐसे में अपना खून खून और दूसरे का खून पानी जैसा होता है।

आपने लिखा है – वैचारिक प्रतिबद्धता का हाल तो यह है कि बड़े लेखक के मरने पर शोकसभा तक मिलकर नहीं कर पाते हैं। श्रीलाल शुक्ल का उदाहरण हाल का है।’’ यहां प्रतिबद्ध और गैर प्रतिबद्ध का विभाजन नहीं है, यहां तो प्रतिबद्ध और अतिप्रतिबद्ध के बीच भी विभाजन है। संकीर्णता की यह सीमा रेखा अनेक वर्गों में खिंची हुई है। मुझे याद है कि श्रीलाल शुक्ल की एक शोकसभा में डॉ. नामवर सिंह ने साहित्य अकादमी में कहा था- कोई लेखक समर्थन से, यशोगान से बड़ा नहीं होता, विरोध से बड़ा होता है। श्रीलाल जी की इस श्रद्धांजलि सभा का एक यह भी संदेश है कि वैचारिक संकीर्णताओं से मुक्त हों, जैसे श्रीलाल थें …श्रीलाल जी प्रलेस, जलेस आदि के सदस्य तो नहीं थे बावजूद इसके उनके जो विचार थे, उनकी रचनाएं बोलती हैं। सदस्यता महत्वपूर्ण नहीं है। वामपंथी लेखन लगता हैं सुधर रहा है। . . .ये घटना महत्वपूर्ण है, हम संकीर्णताओं से उठकर ऐसे लोगों से भी अपना मानसिक नाता जोड़ रहे हैं।’’ श्रीलाल के संदर्भ में तो हम संकीर्णताओं से मुक्त हो गए पर कितने हिंदी साहित्य के लाल हैं जिन्हें ये सब ‘नसीब’ हो पाता है?

मेरा दृष्टिकोण निरंतर अपने मन से काम करने का रहा है। किसी पार्टी या व्यक्ति का कार्यकर्ता बनकर नहीं। मैं अपना काम कर रहा हूं, एक खुलेमन के साथ, वो काम किसी को अच्छा लगता है , तो मैं उसका स्वागत करता हूं। जो नहीं करता है उससे दुश्मनी नहीं तय करता कयोंकि मुझे विश्वास है कि उसे मेरा कोई और काम अच्छा लगेगा। मैं दूसरे का मार्ग देखकर अपना रास्ता छोड़ उसका मार्ग तय करने में विश्वास नहीं करता हूं। मैं यह भी नहीं मानता कि मात्र मेरा ही मार्ग सही है, मैं दूसरे के मार्ग में भी चलकर उसे परखना चाहता हूं। संत नहीं हूं फिर भी सार ग्रहण करने का प्रयत्न करता हूं।

आपने इस बहस के माध्यम से स्वतंत्र चेता साहित्यकारों को एक संबल दिया है। अब ये संबल कितनों की सहायता कर पाता है, वे जाने। मेरी तो इस खुली सोच पर आपको बधाई। जहां एक ओर अखबारों के पन्नों पर साहित्य दम तोड़ रहा है, वहां आप साहित्यिक बहसें आयोजित कर रहे हैं, कैसे अव्यवहारिक संपादक हैं।

0 प्रेम जनमेजय

(जनसत्ता में प्रकाशित)

Previous articleधर्म आधारित आरक्षण गलत
Next articleलोकतंत्र में संघ का कु-संग और कम्युनिस्टों का सत्संग / जगदीश्वर चतुर्वेदी
प्रेम जनमेजय
प्रेम जनमेजय व्यंग्य-लेखन के परंपरागत विषयों में स्वयं को सीमित करने में विश्वास नहीं करते हैं। व्यंग्य को एक गंभीर कर्म तथा सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विध मानने वाले प्रेम जनमेजय आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं । जन्म 18 मार्च, 1949 , इलाहाबाद, उ.प्र., भारत। प्रकाशित कृतियां: व्यंग्य संकलन- राजधानी में गंवार, बेर्शममेव जयते, पुलिस! पुलिस!, मैं नहीं माखन खायो, आत्मा महाठगिनी, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं, शर्म मुझको मगर क्‍यों आती! डूबते सूरज का इश्क, कौन कुटिल खल कामी । संपादन: प्रसिद्ध व्यंग्यपत्रिका 'व्यंग्य यात्रा' के संपादक बींसवीं शताब्दी उत्कृष्ट साहित्य: व्यंग्य रचनाएं। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन ' श्रीलाल शुक्ल के साथ सहयोगी संपादक। बाल साहित्य -शहद की चोरी , अगर ऐसा होता, नल्लुराम। नव-साक्षरों के लिए खुदा का घडा, हुड़क, मोबाईल देवता। पुरस्कारः 'व्यंग्यश्री सम्मान' -2009 कमला गोइनका व्यंग्यभूषण सम्मान2009 संपादक रत्न सम्मान- 2006 ;हिंदी हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान -1997 अंतराष्ट्रीय बाल साहित्य दिवस पर 'इंडो रशियन लिट्रेरी क्लब 'सम्मान -1998

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here