संदर्भ:- कुडनकुलम परमाणु संयंत्र को शीर्श न्यायालय की मंजूरी
प्रमोद भार्गव
तमिलनाडू के कुडनकुलम परमाणु विधुत संयंत्र को सर्वोच्च न्यायालय की हरी झण्डी मिलने के बाद लगता है कि देश में परमाणु बिजली की उपलब्धता का रास्ता खुल जाएगा। अदालत का फैसला आते ही केंद्र सरकार ने भी परमाणु उर्जा आधारित बिजली संयंत्रों के निर्माण में गति लाने का निर्णय लिया है। सरकार मान रही है कि अब इन संयंत्रों के भविष्य को लेकर अनिश्चितता खत्म हो गर्इ है। क्योंकि न्यायालय ने साफ तौर से कहा है कि देश में परमाणु उर्जा की बड़ी मात्रा में जरुरत है। इन संयंत्रों के परिप्रेक्ष्य में सुरक्षा की गारंटी दी जा रही है, तो महज खतरों की संभावित आशंकाओं से बेवजह चिंतित होने की जरुरत नहीं है। इस फैसले से काकरापुर, जैतापुर और राजस्थान परमाणु उर्जा परियोजनाओं के भी जल्द शुरु होने की उम्मीद बढ़ गर्इ है। ये परियोजनएं लगभग पूरी हैं, लेकिन राजनीतिक और तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों के विरोध के चलते इन पर ग्रहण लग गया था।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से उत्साहित परमाणु उर्जा विभाग 17,400 मेगावाट क्षमता की परमाणु परियोजनाओं पर काम शुरु करने जा रहा है। सरकार 2015 के अंत तक 4,800 मेगावाट परमाणु विधुत उत्पादन का लक्ष्य लेकर चल रही है। यदि परमाणु उर्जा उत्पादन में गति आती है तो अगले 7-8 वर्षों के भीतर 27,080 मेगावाट क्षमता की बिजली इन संयंत्रों से उत्सर्जित होने लगेगी। मौजूदा परमाणु संयंत्रों की उर्जा क्षमता 4780 मेगावाट है जो देश की कुल बिजली उत्पादन क्षमता का महज 3.6 फीसदी है। देश में कुल 2 लाख, 23 हजार 344 मेगावाट बिजली उत्पादित होती है।
कुछ विदेशी सहायता प्राप्त स्वैचिछक संगठन कुडनकुलम परियोजना के खिलाफ थे। इसे रोकने के लिए उन्होंने जन-आंदोलन के सहारे के साथ अदालत में जनहित याचिका भी दायर की थी। याचिका पर दो टूक फैसले के बाद कुडनकुलम में अब परमाणु उर्जा का उत्पादन शुरु हो जाएगा। दरअसल दो साल पहले खुद प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने ‘सांइस पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘कुछ एनजीओ भारत की उर्जा जरुरतों की कद्र नहीं कर रहे हैं। ये अमेरिका व पश्चिमी से मिलने वाली आर्थिक मदद का इस्तेमाल कुडनकुलम परियोजना के विरुद्ध कर रहे हैं। यहां गौरतलब है कि कुडनकुलम संयंत्र रुस के सहयोग से स्थापित किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री की आशंका बेवजह नहीं थी। हालांकि इसी समय नर्इ दिल्ली सिथत रुस के राजदूत एलेक्जेंडर काडलिन भी अमेरिकी एनजीओं की साजिश की ओर इशारा कर चुके थे। रुसी प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन ने भी यही आशंका जतार्इ थी।
वैसे भी पश्चिमी देशो से आर्थिक मदद लेने वाले संगठनों का मुख्य उददेश्य भले ही जन कल्याण रहता हो, किंतु इनकी पृष्ठभूमि में अंतत: अमेरिका के व्यावसायिक हितों को ही सुरक्षित करना होता है। जाहिर है, ये वैचारिक आग्रह अमेरिकी नीतियों से प्रेरित थे। लिहाजा इनका मकसद हर हाल में इस विचार को प्रचारित करना था कि परमाणु उर्जा अनिवार्य रुप से खतरनाक ही होती है। देश में कुछ संगठन ऐसे भी हैं, जो कोयला, वायु, सौर और पन बिजली परियोजनाओं को भी खतरनाक मानकर चल रहे हैं। इन सब दलीलों और तर्कों को मान लिया जाए तो भारत बिजली संकट से उबर ही नहीं पाएगा।
हालांकि परमाणु उर्जा से उत्पन्न खतरों की आशंकाएं भी एकदम बेबुनियाद नहीं है। इसलिए परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण मुददा है। रुस के चेरनोबिल और जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में हादसे के बाद इस तरह की चिंताएं लाजिमी हैं। क्योंकि वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद प्राकृतिक आपदाओं के सामने हम बौने हैं। जापान में महज दस सेकेंड के लिए आर्इ सुनामी नामक विराट आपदा ने फुकुशिमा की वैज्ञानिक उपलबिधयों को चकनाचूर कर दिया था। सृष्टि को संजीवनी देने वाले तत्व हवा, पानी और अगिन जब न्यूनतम मर्यादाओं की सीमा लांघकर भीषण विराटता रचते हैं तो दशों दिशाओं में सिर्फ और सिर्फ विनाशलीला का मंजर दिखार्इ देता है।
परमाणु बिजली संयंत्रों में ग्रेफाइट माडरेट के रुप में प्रयोग होता है। जिसमें पानी की बहुत थोड़ी मात्रा विलय करने से हाइडोजन और आक्सीजन के विखण्डन के समय बहुत अधिक तापमान के साथ उर्जा निकलती है। इस उर्जा का दबाव टर्बाइन को तीव्रतम गति से घुमाने का काम करता है। नतीजतन बिजली उत्पन्न होती है। रिएक्टरों के इस उच्चतम तापमान को एक सेंटीग्रेट तक काबू में रखने के लिए रिएक्टरों पर ठंडे पानी की निरंतर प्रबल धाराएं छोड़ी जाती हैं। हालांकि प्राकृतिक अथवा अन्य आपदा की स्थिति में ये परमाणु संयंत्र अचूक कंप्यूटर प्रणाली से संचालित व नियंत्रित होने के कारण खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं। लेकिन इस अवस्था में विरोधाभासी स्थिति यह होती है कि जल से हाइडोजन और आक्सीजन का नाभिकीय विखण्डन तो थम जाता है, किंतु रासायनिक प्रकि्रयाएं और भौतिक दबाव एकाएक नहीं थमते। गोया, जलधारा का प्रवाह बंद होते ही रिएक्टरों का तापमान 5000 डिग्री सेंटीग्रेट से बढ़कर 10,000 डिग्री सेंटीग्रेट तक पंहुच जाता है। यह तापमान जीव-जंतुओं को तो क्या स्टील जैसी ठोस धातु को भी पल भर में गला देता है। इस लिहाज से इन संयंत्रों के संभावित खतरों को एकाएक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
हालांकि न्यायालय भी इन खतरों प्रति सचेत थी। इसीलिए न्यायमूर्ति के एस राधाकृश्णन व दीपक मिश्र की खंडपीठ ने विषेशज्ञों की रिपोर्ट भी तलब की थी। इस रिपोर्ट में केंद्र सरकार, तमिलनाडू सरकार और परियोजना को संचालित कर रही संस्था भारतीय परमाणु उर्जा निगम लिमिटेड द्वारा अदालत में सुरक्षा का भरोसा देते हुए कहा गया कि ‘यह संयंत्र प्राकृतिक हादसा अथवा आतंकवादी हमला बर्दाश्त करने में सक्षम है।’ इस भरोसे के बाद ही अदालत ने अपने फैसले में कहा कि ‘देश’ को व्यापक सार्वजनिक हित में बनी राष्ट्रीय नीति का सम्मान करना चाहिए। और संयंत्र को चालू करने की स्वीकृति दे दी। जाहिर है, अब अन्य परमाणु संयंत्रों के निर्माण संबंधी बाधाएं भी दूर हो गर्इ हैं।
दुनिया में पानी, कोयला और तेल भण्डारों में लगातार कमी आते जाने के कारण पूरी दुनिया के समुद्रतटीय इलाकों में बिजली की कमी दूर करने के लिहाज से परमाणु रिएक्टरों का जाल फैलाया जा रहा है। हमारे देश के भी कर्इ तटीय इलाकों में परमाणु संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं। दरअसल अब तमाम आशंकाओं को नजरअंदाज करते हुए परमाणु उर्जा जनकल्याण के लिए जरुरी हो गर्इ है। जिससे बिजली की कमी को कम से कम किया जा सके। हालांकि समुद्रतटीय परियोजनाओं को लेकर आजीविका के सवाल भी उठ रहे है। कहा जा रहा है कि परमाणु उर्जा के ताप से समुद्री पानी का तापमान असाधारण रुप से बढ़ेगा। जिससे मछलियों व अन्य समुद्री खाध जीवों के पलायन की स्थिति निर्मित होगी। समुद्री जल में जो परमाणु विकिरण फैलेगा, उसके चलते इन जीवों की आहार प्रणाली व प्रजनन क्षमता प्रभावित होगी, नतीजतन धीरे-धीरे समुद्री खाध जीव दुर्लभ होते जाएंगे और समुद्र तटीय लोगों के लिए आजीविका का संकट खड़ा हो जाएगा। हालांकि आपदा और आजीविका से जुड़े सभी सवालों के जवाब में कहा जा रहा है कि कुडनकुलम भारत एवं रुस के संयुक्त उपक्रम से जुड़ी एक ऐसी निरापद परियोजना है, जो आपदा और आजीविका के स्तर पर अंतरराश्टीय सुरक्षा मानदण्डों का पालन कर रही है। इस सबके बावजूद सोचनीय पहलू यह भी है कि यूरोपीय देशो में पिछले 25 सालों से कोर्इ नर्इ परमाणु परियोजना नहीं लगी तो क्यों ? हमारे पड़ोसी देश चीन ने 28 परियोजनाएं स्थगित कर दीं तो क्यों ? जर्मनी ने अपनी सभी परमाणु परियोजनाओं को बंद करने की कार्रवार्इ शुरु कर दी है तो क्यों ? ये ऐसे चंद उदाहरण हैं जो परमाणु बिजली से जुड़े खतरों के प्रति चिंता जगाते हैं। इन्हें एकाएक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
प्रमोद भार्गव जी दोहरी बातें कह रहे हैं, लेख के शुरू में स्पष्ट कह दिया कि पामाणु ऊर्जा सुरक्षित है और देश के लिए ज़रूरी है. अंत में कह दिया कि विश्व के अनेक देश परमाणु संयत्र गत २५ वर्ष से नहीं लगा रहे.
कारणों के बारे में कुछ नहीं कह रहे. ऐसे अधूरे, भटकाने और भ्रमित करने वाले लेख का उद्देश्य क्या है ?
# ज्ञातव्य है कि दुनिया के सभी देशों ने परमाणु ऊर्जा से तौबा करली है. अपनी कंडम हो चुकी पामाणु तकनीक को भारत को बेच कर अकूत धन लूट रहे हैं और भारत के इये स्थाई बर्बादी का प्रबंध कर रहे हैं. जो तकनीक सारे संसार के लिए अहितकर है वह भारत के इये उपयोगी कैसे हो सकती है ? सरकार तो पूरी तरह वीदेशी कंपनियों की बंधक है, जनता को ही इस खतरे के बारे में सचेत होना होगा.