सुरेश हिन्दुस्थानी
देश के सबसे बड़े पद राष्ट्रपति के लिए भारतीय जनता पार्टी ने बिहार के वर्तमान राज्यपाल रामनाथ कोविद का नाम आगे करके एक प्रकार से झूठ पर आधारित राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों के मुंह बंद कर दिए हैं। हालांकि राजग की ओर से रामनाथ कोविंद का नाम तय करने के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों की ओर से विरोधी बयान आना स्वाभाविक ही था। लेकिन जैसे जैसे समय निकल रहा है, स्थितियां राजग के अनुकूल होती जा रही हैं। विपक्ष की ओर से एक स्वर ऐसा भी सुनाई दिया कि रामनाथ कोविद को जानता ही कौन है? ऐसा कहने वालों की बुद्धि पर तरस आता है। क्योंकि जो व्यक्ति लम्बे समय से भारतीय राजनीति में सक्रिय रहा हो और जो राजनीतिक दृष्टि से प्रभावी बिहार जैसे राज्य में राज्यपाल के पद पर हो, उसे नहीं जानने का मतलब कहीं न कहीं राजनीतिक अज्ञानता का ही प्रदर्शन करता है। जिस प्रकार से विरोध करने के लिए विरोध करना विपक्ष का स्वभाव बन गया है, नीतीश कुमार ने राजग उम्मीदवार को समर्थन देकर इस परिभाषा को बदलने का प्रयास किया है। वास्तव में एक परिपक्व नेता के तौर पर नीतीश कुमार के इस कदम की पूरी तरह से सराहना हो रही है। नीतीश ने एक ही झटके में विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया है। पूर्व में सपा मुखिया मुलायम सिंह और अब अखिलेश के समर्थन में आने के बाद विपक्षी दलों के पास कोई गुंजाइश भी नहीं बची है। ऐसे में भी अगर कांगे्रस अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर अलग प्रत्याशी सामने लाते हैं तो वह महज एक खानापूर्ति के अलावा और कुछ नहीं होगा। कांगे्रस के हाथ से अवसर निकल चुका है, फिर भी चूंकि कांगे्रस और वामपंथी दलों को केवल विरोध करना है, इसलिए उनके पास अब कोई चारा भी नहीं है। बिलकुल कुछ इसी प्रकार के हालात अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भी दिखाई दिए, उन्होंने देश के महान वैज्ञानिक भारत रत्न डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर सबको उनका समर्थन करने के लिए बाध्य कर दिया। विपक्ष ने उस समय राजनीतिक लाभ हानि का गणित लगाकर कलाम को समर्थन दिया। अब सवाल यह आता है कि जब भाजपा हमेशा विपक्ष को भी स्वीकार होने वाला सामने लाती है, तब कांगे्रस सहित अन्य राजनीतिक दल इस प्रकार की कार्यवाही क्यों नहीं करती। कांगे्रस जब सत्ता में थी, तब उसने केवल अपने संकेत पर चलने वाले नामों को ही प्रमुखता दी। कौन नहीं जानता कि कई व्यक्ति पद पर बैठने के बाद भी अपने आपको कांगे्रस और उसके नेताओं के वफादार होने की भाषा बोल चुके हैं। क्या ऐसी भाषा बोलने वालों को पूरे देश का राष्ट्रपति माना जा सकता था। वास्तव में देखा जाए तो जिस प्रकार से विपक्ष बयानबाजी कर रहा है कि कम से कम राष्ट्रपति पद की गरिमा को तो ध्यान में रखा जाता, उसमें यही कहना तर्कसंगत होगा कि कांगे्रस ने कभी भी राष्ट्रपति की गरिमा का ध्यान नहीं रखा। इतना ही नहीं कांगे्रस के जो नेता सरकार में शामिल नहीं थे, उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को भी कुछ नहीं समझा।
विपक्षी राजनीतिक दलों में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर असहज की स्थिति पैदा हो गई है। जिस प्रकार एक एक करके विपक्षी दल राजग प्रत्याशी के समर्थन में आते जा रहे हैं। उससे यह तो तय हो ही गया है कि अब रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना लगभग तय हो गया है। इसको तय करवाने में एक प्रकार से विपक्षी दलों का भी योगदान माना जा सकता है, क्योंकि रामनाथ कोविंद का नाम जैसे ही राजग की ओर से घोषित किया, वैसे ही विपक्ष और मीडिया ने उनको दलित कहना प्रचारित कर दिया, जिसका लाभ राजग को मिल रहा है। विपक्ष के कारण ही आज पूरे देश को यह पता चल गया है कि भविष्य के राष्ट्रपति रामनाथ जी दलित वर्ग से आते हैं। हालांकि यह सच है कि रामनाथ जी भले ही इस वर्ग से संबंध रखते हों, लेकिन उन्होंने बहुत पहले ही अपने आपको राष्ट्रीय राजनीति का धुरंधर प्रमाणित कर दिया है। इसलिए उन्हें दलित के रुप में प्रचारित करना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। हां वे निश्चित ही इस पद के योग्य हैं।
अभी तक देश को प्रधानमंत्री देने वाला उत्तरप्रदेश राज्य पहली बार देश को राष्ट्रपति देने जा रहा है। जो उत्तरप्रदेश का सौभाग्य ही कहा जाएगा। भारतीय जनता पार्टी के नेता रहे रामनाथ कोविंद का मार्ग अब पूरी तरह से सफलता के पायदान पर जाता हुआ दिखाई देने लगा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस प्रकार से रामनाथ कोविन्द को समर्थन दिया है, उससे विपक्ष की हालत पतली होती हुई दिखाई दे रही है। पहले विपक्ष की ओर से यह भी संकेत मिल रहे थे, कि विपक्ष भी अपना उम्मीदवार उतारेगा, जैसे समय निकलता जा रहा है, विपक्ष कमजोर होता जा रहा है, क्योंकि राजनीतिक कारणों को ध्यान में रखते हुए कोई भी राजनीतिक दल रामनाथ कोविंद का खुलकर विरोध करने की स्थिति में नहीं है। विपक्षी दल भी राष्ट्रपति पद के लिए दलित चेहरा को सामने लाने पर विचार कर रहा है, इसके लिए वह पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को आगे करके दाव लगाना चाहती है। रामनाथ कोविद और मीरा कुमार दोनों ही काफी योग्य हैं। अगर आप दोनों का जाति के हिसाब से आकलन करेंगे तो उनकी प्रतिभा के साथ खिलवाड़ ही माना जाएगा। हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि विरोध की राजनीतिक करने का स्वभाव ही बन गया है। वास्तव में केवल विरोध करना ही राजनीति नहीं कही जा सकती। वर्तमान में बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविद भारतीय राजनीति के जाने पहचाने चेहरा हैं। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में गरीबों के लिए मुफ्त में लड़ाई लड़ी। बेहद सादगी से जीवन जीने वाले रामनाथ जी अपने कुशल व्यवहार के चलते जनता में अत्यंत प्रिय रहे हैं। जो भी उनसे एक बार मिला, वह उनका ही हो गया। इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए भी कई प्रेरणादायी काम किए हैं। कोविद की उम्मीदवारी के बाद विपक्षी दलों की राजनीति में एक तूफान सा आया हुआ दिखाई दे रहा है। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि अब क्या किया जाए। एक दलित को रोकने के लिए दूसरे दलित को मैदान में उतारना केवल राजनीति के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। विपक्ष का यह कदम दलित को रोकने जैसा ही कहा जाएगा। रामनाथ कोविद के उत्तरप्रदेश से होने के कारण दलितों के सहारे राजनीति करने वाली बसपा प्रमुख मायावती को करारा झटका लगा है। अब वह यह नहीं कह सकती कि भाजपा दलित विरोधी है। एक प्रकार से उनकी राजनीति करने का हथियार उनके हाथ से जाता हुआ दिखाई दे रहा है। खैर जो भी हो, भाजपा ने अपनी सोच के आधार पर राष्ट्रपति का नाम घोषित कर दिया है, अब विपक्षी दल किसको सामने लाती है, यह समय बताएगा।