जैविक कृषि एवं पंचतत्व

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organicविद्वानों का मानना है कि सम्पूर्ण सृष्टि पंचतत्वों से बनी है। पंचतत्व यानि धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश। मानव हो या पशु-पक्षी या फिर पेड़-पौधे, सबमें इन पंचतत्वों का वास है। किसी में कोई एक तत्व प्रधान है, तो किसी में कोई दूसरा। जैसे मछली के लिए जल तत्व प्रधान है, तो पेड़-पौधों के लिए धरती। इसके बिना वे जीवित नहीं रह सकते। मानव भी वायु के बिना कुछ मिनट, जल के बिना कुछ दिन, अन्न के बिना कुछ महीने, अग्नि अर्थात ऊर्जा और आकाश अर्थात खालीपन के बिना भी कुछ दिन ही चल सकता है; पर इसके बाद उसे भी यह संसार छोड़ना पड़ता है।

जैविक कृषि का अर्थ है पंचतत्वों से संतुलन बनाकर चलना। अन्न, सब्जी, फल, ओषधीय पौधे या कुछ और; सबको इन पांचों की जरूरत है। भूमि पर ये सब उगते हैं। समय-समय पर इन्हें पानी चाहिए। कुछ वर्षा से संतुष्ट हो जाते हैं, तो कुछ को सिंचाई द्वारा अतिरिक्त पानी देना पड़ता है। हवा तो सबको चाहिए ही। नोबेल विजेता डा. जगदीश चंद्र बसु ने सिद्ध किया है कि पेड़-पौधे भी जीवित इकाई हैं। रात में पेड़ कार्बन छोड़ते हैं, इसलिए उनके नीचे सोना मना है। वायुविहीन निर्वात क्षेत्र में कोई पौधा नहीं उग सकता।

अग्नि अर्थात सूर्य की गर्मी से ही वनस्पतियां पकती हैं। कुछ को अधिक गर्मी चाहिए, तो कुछ को कम। बाजार की मांग के कारण आजकल ग्रीन हाउस बनाकर कृत्रिम गर्मी पैदा की जाती है; पर इन बेमौसमी फल और सब्जियों में वह स्वाद और पौष्टिकता नहीं होती, जो प्राकृतिक वातावरण में उपजे फल और सब्जियों में होती है।

पांचवा तत्व आकाश अर्थात खालीपन है। सभी पेड़-पौधों को एक निश्चित दूरी पर लगाया जाता है, जिससे वे अपनी क्षमता के अनुसार बढ़ सकें। केले के पेड़ों के बीच जितनी दूरी चाहिए, उतनी दूरी से आम का काम नहीं चलता। बरगद दादा को इससे भी कई गुना जगह चाहिए। गेहूं, धान, सब्जियां या दालें कम जगह में ही काम चला लेती हैं; पर बिल्कुल सटकर पौधे नहीं पनपते। उन्हें खाली स्थान की जरूरत होती ही है।

प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलना मानव का स्वभाव है। इसी से उसके अस्तित्व की रक्षा संभव है। प्रख्यात अर्थशास्त्री ‘माल्थ्स’ के जनसंख्या सिद्धांत के अनुसार जब धरती पर बोझ बहुत अधिक हो जाता है, तो बाढ़, तूफान, अकाल, महामारी जैसी किसी आपदा से प्रकृति स्वयं उसे संतुलित कर लेती है; पर मानव समझता है कि विज्ञान द्वारा वह प्रकृति को काबू कर लेगा। वह नहीं जानता कि भगवान अपने काम में एक सीमा तक ही हस्तक्षेप सहते हैं। जब उनकी चक्की चलती है, तो वह इतना महीन पीसती है कि यह पता करना कठिन हो जाता है कि गेहूं कहां है और चना कहां ?

इसलिए मानव जाति के हित में यही है कि वह प्रकृति से मिलकर चले; पर पिछले कुछ समय से यह तालमेल बिगड़ गया है। इसका एक कारण है धरती पर जनसंख्या का बढ़ता बोझ और दूसरा है हमारा बढ़ता हुआ लालच। अंग्रेजी में कहावत है – Nature is able to fullfil everyone’s need. But it is unabel to fulfill a single person’s greed.

कहते हैं कि एक व्यक्ति के पास हर दिन एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी। उसने लालच में आकर मुर्गी का पेट चीर दिया; पर उसके हाथ केवल मुर्गी का शव ही आया। जो सोने का अंडा उसे हर दिन मिल रहा था, वह भी हाथ से गया।

पानी के बारे में हमारी यही स्थिति है। पहले कुंए और बावड़ी थीं। फिर हत्थू नल आये। फिर सरकारी नल और अब हर घर में टिल्लू या बोरिंग है। दिल्ली में इन दिनों साफ पानी 300 फुट पर मिलता है। बोरिंग के बाद तो सिर्फ बिजली का बटन दबाना है। फिर एक हजार लीटर पानी लें या एक लाख लीटर, कौन देख रहा है ? कोढ़ में खाज की तरह अब कई तरह के फिल्टर भी आ गये हैं, जो एक लीटर साफ पानी देने के लिए चार लीटर पानी नाली में बहा देते हैं। जिनके पास पैसे की अति है, ऐसे लोग तो मुंह भी फिल्टर के पानी से ही धोते हैं। अंग्रेजी शौचालय भी खूब पानी पीते हैं।

इस कारण पानी की प्रति व्यक्ति खपत बढ़ रही है, जबकि भूजल का स्तर लगातार घट रहा है। इस दौड़ का अंत कहां होगा, कहना कठिन है ? लोग कहते हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। युद्ध की बात तो नेता जानें; पर गलियों में पानी के लिए होने वाले झगड़े कोई भी देख सकता है। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ेगा, ये झगड़े बढ़ेंगे। सरकार शहर तो बना सकती है; पर पानी नहीं।

पानी की बात अभी अधूरी है। चूंकि जो पानी उपलब्ध है, वह भी प्रदूषित है। दुनिया की सभी सभ्यताएं नदी तटों पर विकसित हुई हैं। सभी बड़े शहर नदियों के पास ही बसे हैं; पर अब नदियों का पानी पीना तो दूर, आचमन करना भी कठिन है। सीवर और नालों ने गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी गटर बना दिया है। दिल्ली की यमुना में लगातार नहाने वाला चर्म रोगी हो ही जाएगा। कई उद्योग अपना अपशिष्ट बिना उपचारित किये नदी में डाल देते हैं। भगवान की तरह सर्वव्यापी भ्रष्टाचार सब रास्ते निकाल लेता है।

यह गंदा जल जब खेत में जाता है, तो उससे उत्पन्न अन्न, सब्जी और फल भी प्रदूषित हो जाते हैं। अब तो सब्जी और फल इंजैक्शन से बड़े किये जा रहे हैं। फिर उन्हें रंगा भी जाता है। इसीलिए विज्ञान एक रोग का इलाज ढूंढता है, तो दूसरा आ जाता है। सरकारी विज्ञापन कहते हैं कि फल और सब्जी को नमक वाले गरम पानी में कुछ देर डुबो कर रखें। उनके छिलके उतारकर ही उन्हें प्रयोग करें। सेब, अमरूद आदि के छिलके उतारना भी अब मजबूरी हो गयी है।

जनसंख्या वृद्धि के कारण अन्न की उपज बढ़ाना जरूरी था। अतः ‘हरित क्रांति’ के नाम पर साल में दो के बदले तीन फसल लेने के तरीके खोजे गये; पर इससे पानी की खपत भी कई गुनी हो गयी। पहले लोग मक्का, बाजरा जैसे मोटे अन्न खूब खाते थे। ये सस्ते और मौसम के अनुकूल अन्न कम पानी में उपजते हैं। अतः कम पानी में ही पच जाते हैं; पर अब दूसरों की देखादेखी गेहूं और चावल का प्रयोग बढ़ रहा है। सरकार इनके लिए समर्थन मूल्य जारी करती है। अतः किसान भी इन्हें ही उपजा रहे हैं। शासन को कम पानी वाले मोटे अन्न को भी प्रोत्साहित करना चाहिए।

अब हवा की बात करें। तीव्र वाहन और उद्योग जो जहरीला धुआं उगल रहे हैं, वही हमें और पेड़-पौधों को मिल रहा है। पिछले दिनों दिल्ली में एक न्यायाधीश ने सरकार से पूछा कि हम अपने बच्चों को लेकर कहां जाएं, जिससे गंदी हवा और शोर से बच सकें ? अब हर गाड़ी वातानुकूलित (ए.सी.) ही आ रही है। गर्मियों में किसी लाल बत्ती पर जब ये गाड़ियां रुकती हैं, तो वहां खड़े साइकिल, रिक्शा, स्कूटर, मोटर साइकिल या पैदल चलने वालों की हालत खराब हो जाती है। अब पानी के फिल्टर की तरह हवा के फिल्टर भी आने लगे हैं। पैसे वाले अपने घर, कार्यालय और गाड़ियों में इन्हें लगा रहे हैं; पर आम आदमी और पेड़-पौधे भगवान की दया पर निर्भर हैं।

मिट्टी के प्रदूषण का तो कहना ही क्या ? हरित क्रांति के नाम पर जो रासायनिक खाद खेतों में डाली गयी, उसने कुछ समय तक तो लाभ पहुंचाया; पर अब वही मुसीबत बन गयी है। कहावत भी है ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ जैसे नशे में आदमी कुछ अधिक काम कर लेता है; फिर वही नशा उसकी आदत बन जाता है। उसके बिना वह काम नहीं कर पाता। नशे की खुराक भी उसे क्रमशः बढ़ानी पड़ती है। यही स्थिति रासायनिक खाद की भी है।

खाद का अर्थ ही है खेत का खाद्य अर्थात भोजन। प्राकृतिक रूप से गोबर, कूड़ा, छिलके, बासी अन्न आदि से बनी खाद धरती को पर्याप्त पोषण देती हैं। जो चीज एक जगह बेकार है, वह दूसरी जगह काम देकर प्रकृति का चक्र पूरा करती है। गोबर, गोमूत्र तथा अन्य प्राकृतिक कीटनाशक प्रभावी होने के साथ ही कोई दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट) भी नहीं छोड़ते; पर अब तो रासायनिक खाद और कीटनाशकों का ही जोर है। इनमें से अधिकांश पर विदेशी कम्पनियों को पेटेंट प्राप्त है। अतः बिना परिश्रम उनकी झोलियां भर रही हैं।

केंचुए धरती के नीचे घूमकर मिट्टी को ताजी हवा से पुष्ट कर देते हैं; पर रासायनिक खाद ने उनका जीना कठिन कर दिया है। जुताई, बिजाई और गुड़ाई करने वाली दानवाकार मशीनों के लम्बे और गहरे फल इन केंचुओं को ही कुचल देते हैं। गोवंश जितनी बड़ी संख्या में हर दिन कट रहा है, उससे लगता है कि भविष्य में खेती किसान नहीं, मशीन और उद्योगपति ही करेंगे। किसान मां समझकर धरती से प्रेम करता है; पर मशीन और उद्योगपति के लिए ये भावनाएं अर्थहीन हैं। इसलिए खेती जैविक हो या रासायनिक; खाद और बीज स्वदेशी हो या विदेशी, उन्हें अधिक उत्पादन से मतलब है। इससे ही प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है।

यदि हर किसान अपने खेत के दस प्रतिशत भाग में जैविक खेती ही करे, तो इसके सुपरिणाम सबकी आंखें खोल देंगे। कृषि वैज्ञानिक भी यह मान रहे हैं कि आज नहीं तो कल, जैविक खेती की ओर लौटना ही होगा। क्योंकि यह हमारे ही नहीं, पूरे संसार और सृष्टि की सुरक्षा के लिए भी जरूरी है; पर खतरा ये है कि हमारी आंख खुलने तक चिड़ियां कहीं पूरा खेत ही न चुग जाएं।

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