निर्मल रानी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में पिछले दिनों एक बड़ा हादसा दरपेश आया। लगभग 1700 मीटर लंबे निर्माणाधीन फ्लाईओवर पर बीम चढ़ाने व उसके एलाईनमेंट के दौरान हुए हादसे में 18 लोगों की दर्दनाक मौत हो गई। सूत्रों के अनुसार जिस समय वाराणसी कैंट तथा लहरतारा के मध्य बन रहे इस ऊपरिगामी पुल की बीम अचानक नीचे गिरी उस समय भीड़-भाड़ वाले इस इलाके में पुल के नीचे की सडक़ पर भारी जाम लगा हुआ था जिसके चलते दर्जनों कारें,मोटरसाईकल व अन्य वाहन भी विशालकाय बीम के नीचे दब गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में हुए इस हादसे पर दु:ख व्यक्त करते हुए हादसे से प्रभावित लोगों की हर संभव सहायता करने के लिए अधिकारियों को निर्देश दिए। साथ ही साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के अधिकारिक ट्विटर अकाउंट से भी वाराणसी की इस घटना में मृतकों के प्रति शोक व्यक्त किया गया तथा मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवज़ा देने तथा इस घटना में घायल लोगों को दो-दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की गई।
वाराणसी में हुआ यह हादसा भारत में होने वाला इस प्रकार का कोई पहला हादसा नहीं है। इससे भी भीषण हादसे हमारे देश में होते रहे हैं। नदी के पुल के टूटने से लेकर फ्लाईओवर अथवा ऊपरिगामी सेतु के ढहने तक यहां तक कि फ्लाईओवर के रेल लाईन पर गिरने जैसे हादसे भी भारतवर्ष में हो चुके हैं। अभी दो वर्ष पूर्व ही मार्च 2016 में कोलकाता में इसी प्रकार के एक निर्माणाधीन विवेकानंद फ्लाईओवर के एक हिस्से के गिर जाने से 27 लोगों की मौत हो गई थी। 2009 में राजस्थान में एक निर्माणाधीन पुल ढह गया था जिसमें 28 मज़दूर अपनी जानें गंवा बैठे थे। इसी तरह 2006 में हावड़ा-जमालपुर सुपर फास्ट ट्रेन डेढ़ सौ वर्ष पुराने एक पुल से नीचे जा गिरी थी जिसके चलते 30 लोग मौत की आगोश में समा गए थे। 2005 में वलीगोंडा में आई बाढ़ में अचानक एक छोटा पुल बह गया। उस बहे हुए पुल के ऊपर से ट्रेने भी गुज़रने लगी। और अचानक वह भी बाढ़ के पानी में नीचे जा गिरी। परिणामस्वरूप 114 लोग मारे गए। इस प्रकार के और भी कई हादसे देश में होते रहे हैं जिनमें आम नागरिक अपनी जानें गंवाते आ रहे हैं। 2 अगस्त 2016 को महाराष्ट्र में रायगढ़ जि़ले के म्हाड़ क्षेत्र में सावित्री नदी पर अंग्रेज़ों के शासनकाल में बनाया गया एक काफी पुराना पुल नदी के पानी के तेज़ प्रवाह को सहन नहीं कर सका और पुल का एक बड़ा हिस्सा उफनती नदी में समा गया। इस हादसे में पचास से भी अधिक लोगों की मौत की सूचना मिली थी। इसमें भी कई शव ढूंढे नहीं जा सके थे। बसों व कारों समेत और भी कई वाहन इस हादसे में बह गए थे। यहां भी सरकार ने शोक व्यक्त करने तथा मुआवज़ा राशि देने का फर्ज निभाया था।
सवाल यह है कि क्या हादसे पर हादसे होते रहना और उसके बाद सरकार के मुखियाओं द्वारा अपनी शोक संवेदनाएं व्यक्त कर देना या फिर कभी अपने अधीनस्थ मीडिया कैमरों के साथ शोक संतप्त परिवारों के घर पहुंच कर पीडि़त परिजनों को सांत्वना देना व अपनी इस ‘दरियादिली’ व ‘करमनवाज़ी’ के चित्र अखबारों में प्रकाशित करवा लेना ही आम भारतीय नागरिकों की नियति बनकर रह गई है? दुर्घटनाएं निश्चित रूप से दुनिया के अन्य देशों में भी होती रहती हैं। परंतु हमारे देश में अन्य देशों की तुलना में कुछ ज़्यादा ही दुर्घटनाएं घटित होती हैं। इनमें ज़्यादातर दुर्घटनाएं लापरवाही की वजह से ही होती हैं। दुर्घटनाओं संबंधी सर्वेक्षण बताते हैं कि भारतवर्ष में प्रत्येक दिन लगभग 1214 दुर्घटनाएं होती हैं। आश्चर्य की बात है कि अकेले वर्ष 2013 में सडक़ दुर्घटनाओं में एक लाख सैंतीस हज़ार लोगों की मौत हुई थी। सडक़ दुर्घटनाओं में प्रत्येक चार मिनट में एक दुर्घटना होने का औसत है। इसमें भी कोई शक नहीं कि गत् दस वर्षों के भीतर भारत में राजमार्गों,राज्यमार्गों,फ्लाईओवर, अंडरपास तथा सडक़ों के चौड़ीकरण के कामों में बहुत तेज़ी आई है। परंतु यह बात भी बिल्कुल सत्य है कि जिस अनुपात से हमारे देश की जनसंख्या तथा वाहनों की संख्या में प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है उसके अनुसार अभी भी सडक़ें व फ्लाईओवर तंग नज़र आ रहे हैं। लिहाज़ा कहा जा सकता है कि यातायात संबंधी निर्माण कार्य भविष्य में भी निरंतर जारी रहने की पूरी संभावना हैे।
तो क्या पिछले हादसों को देखते हुए हम यही मानकर चलें कि भविष्य में भी इस प्रकार के हादसे होते रहेंगे और आम लोगों की जानें इसी प्रकार लापरवाही के चलते जाती रहेंगी? दिल्ली में ऐसा ही एक हादसा उस समय पेश आया था जबकि एक बीम को उठाते समय अनियंत्रित होकर क्रेन पलट गई थी। क्या यह हादसा तकनीकी दृष्टिकोण से एक ऐसा हादसा प्रतीत नहीं होता जिससे यह ज़ाहिर होता हो कि उस क्रेन द्वारा अपनी क्षमता से अधिक भार उठाने की कोशिश की गई जिसके चलते यह हादसा पेश आया? कोलकता व वाराणसी के हादसे भी यही सबक सिखाते है कि किसी भी निर्माणाधीन पुल के नीचे से आम लोगों को व यातायात को गुज़रने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए जब तक ऊपर की ओर पुल का काम चल रहा हो उस समय तक नीचे की सर्विस लेन कतई नहीं चलानी चाहिए। इसी प्रकार महाराष्ट्र के महाड़ पुल हादसे से हमें यह सबक मिलता है कि अपनी सेवा का निर्धारित समय निकाल चुके पुल की मुरम्मत या लीपापोती करने के बजाए उसे बंद कर देना चाहिए तथा बंद करने से पूर्व ही नए पुल का निर्माण भी समय की ज़रूरत व यातायात के अनुसार कर लिया जाना चाहिए। परंतुृ हमारा शासन व प्रशासन निश्चित रूप से समय रहते इन बातों पर ध्यान नहीं दे पाता परिणामस्वरूप इस प्रकार के हादसे पेश आते रहते हैं।
इन दिनों पुरानी दिल्ली से शाहदरा को जोडऩे वाला दो मंजि़ला यमुना पुल तथ इलाहाबाद व नैनी स्टेशन के बीच बना इसी प्रकार का दो मंजि़ला यमुना सेतु लगभग एक जैसी स्थिति से गुज़र रहा है। लगभग एक ही समय में अंग्रेज़ों के शासनकाल में बनाए गए इस अजूबे पुल को प्रयोग करने की सीमा भी दशकों पूर्व समाप्त हो चुकी है। वैसे भी हमारे देश में इंसानों की जान की कीमत क्या है इसका अंदाज़ा हमें इस बात से भी हो जाता है कि आज सडक़ों पर जगह-जगह सांड़ तथा अन्य आवारा जानवर घूमते दिखाई देते हैं तथा कोई न कोई राहगीर या वाहन इनसे टकराता रहता है। मेनहोल के ढक्कन भी जगह-जगह खुले पड़े रहते हैं। नालों व नालियों के ऊपर के लेंटर या ढक्कन जगह-जगह खुले दिखाई देते हैं जो अचानक गुज़रने वाले किसी वाहन के लिए बड़ी दुर्घटना यहां तक कि मौत का सबब बन सकते हैं। उत्तर प्रदेश में तो आवारा कुत्तों ने राहगीरों को काटने का ऐसा आतंक फैला रखा है कि पिछले दिनों मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस विषय पर स्वयं दिशा निर्देश जारी करने पड़े। कुल मिलाकर इन सभी बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि किसी भारतीय नागरिक की जान व माल की कीमत केवल हादसों व मुआवज़ों के बीच ही उलझकर रह गई है अन्यथा पिछले हादसों से यदि सबक लिए गए होते तो भविष्य में ठीक उसी प्रकार के हादसों की पुनरावृति न हो पाती।