मनमोहन कुमार आर्य,
देहरादून में सम्प्रति अनेक ऋषि भक्त विद्वान एवं विदुषियां हैं जो अपने कार्यों से वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार में अपनी सेवायें दे रहे हैं। इन सब विद्वानो ंमे ंएक विद्वान् डा. कृष्ण कान्त वैदिक भी हैं। आप सम्प्रति वैदिक साधान आश्रम, तपोवन-देहरादून की मासिक पत्रिका ‘पवमान’ के विगत 4 वर्ष से अधिक समय से मुख्य सम्पादक हैं। आपके सम्पादक बनने के बाद पत्रिका की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। वैदिक जी प्रत्येक अंक में अपना एक पृष्ठ का सम्पादकीय व दो या तीन पृष्ठों का एक लेख देते हैं जिसमें वैदिक मान्यताओं का पोषण किया जाता है। डा. वैदिक जी का अधिकांश समय वैदिक साहित्य के अध्ययन में ही व्यतीत होता है। देहरादून मेें निवास करने वाले आर्यसमाज के विद्वानों में आपका प्रमुख स्थान है। आपने अपने सेवाकाल में ही संस्कृत अध्ययन आरम्भ कर दिया था और शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सेवानिवृति के बाद आपने वैदिक संस्कृत में एम.ए. किया और इसके साथ ही आपने व्हिटनी के अथर्ववेद भाष्य का अध्ययन कर उसके कुछ भाग का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया और अर्थववेद के अन्य भाष्यकारों के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर पी.एच-डी. की उपाधि भी प्राप्त की है।
डा. कृष्णकान्त वैदिक जी का जन्म 4 सितम्बर, 1951 को पिता श्री मायाराम आर्य एवं माता श्रीमती मंगनादेवी जी के यहां पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में हुआ था। आपके दादा जी श्री कीरू राम जी देहरादून-ऋषिकेश मार्ग पर स्थिति रानीपोखरी नामक गांव में रहा करते थे और यहां अपनी भूमि में खेती करते थे। आपके एक चाचा श्री मुरलीराम जी थे। पिता माया राम आर्य हाई स्कूल उत्तीर्ण थे। उन्होंने अपनी आजीविका नगर पालिका के प्राईमरी पाठशाला के शिक्षक के रूप में आरम्भ की थी। कुछ समय बाद आपने इस नौकरी को छोड़ कर राज्य के रिक्लेमेशन विभाग में सुपरवाइजर के पद की नौकरी की। नौकरी करते हुए और सन्तानों के बड़ा होने पर भी आपने इण्टर अर्थात् बारहवीं की परीक्षा पास की। आपने इसके बाद कलेक्टरेट में नौकरी की और वहां पर कार्यालय अधीक्षक के पद से सेवानिवृत हुए। सन् 1917 में देश में दुर्भिक्ष आया था। इसी वर्ष श्री मायाराम आर्यसमाजी बने और अपने नाम के साथ ‘आर्य’ शब्द जोड़ लिया। सेवा निवृत्ति के बाद आपको पक्षाघात हो गया था। यही आपकी 61-62 वर्ष की आयु में दिनांक 26-1-1967 को मृत्यु का कारण बना। आपके पिता श्री मायाराम आर्य दृण आर्यसमाजी थे और देशभक्त भी थे। इस क्षेत्र के क्रान्तिकारी लोग अंग्रेजों से छिपने के लिये आपके निवास को ही सुरक्षित स्थान पाते थे और समय समय पर यहां ठहरा करते थे। डा. कृष्णकान्त वैदिक जी पांच भाई और एक बहिन थे। सबसे बड़े भाई श्री ओम्प्रकाश जी दिवंगत हो चुके हैं। चार भाई श्री ज्ञानप्रकाश, श्री विजय कुमार, श्री शम्भु प्रसाद और एक बहिन श्रीमती सत्यावती देवी अपने परिवारों के साथ सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
श्री कृष्णकान्त जी ने उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी नगर में स्कूली शिक्षा प्राप्त की और यहीं से इण्टर उत्तीर्ण किया। आपने बी.एस-सी. परीक्षा नजीबाबाद उत्तर प्रदेश से उत्तीर्ण की थी। इसके बाद आप भारतीय रिसर्व बैंक में लिपिक के पद पर नियुंक्त हुए और दिनांक 13-7-1972 को आपने बैंक में कार्यभार सम्भाला। गणित, इंग्लिश, अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र में आपने बी.ए. भी किया। 2 जनवरी, 1978 को आप इलाहाबाद बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी नियुक्त हुए। दिनांक 1 फरवरी, सन् 1979 को आपने पी.सी.एस. एलाइड की परीक्षा पास की और सेल टैक्स विभाग में सहायक कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए। इसी विभाग में निरन्तर सेवारत रहकर आप 30-6-2011 को एडिशनल कमिश्नर के पद से सेवानिवृत हुए। सरकारी नौकरी करते हुए ही आपने सन् 2010 में महर्षि दयानन्द विश्व विद्यालय, रोहतक से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। सेवानिवृत्ति के बाद सन् 2013 में आपने वैदिक संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपको अंकोंके आधार पर गोल्ड मैडल प्राप्त हुआ जिसे भारत के गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह जी ने गुरुकुल कांगड़ी में आयोजित दीक्षान्त समारोह में प्रदान किया था। हम भी इस समारोह में डाॅ. कृष्ण कान्त जी के आग्रह पर सम्मिलित हुए थे। इसके बाद आपने पी.एच-डी. का अध्ययन आरम्भ किया। आपका विषय था ‘अंग्रेजी विद्वान श्री व्हिटनी के अथर्ववेद भाष्य के प्रथम पांच काण्डों का हिन्दी अनुवाद तथा उनके भाष्य की भारतीय अथर्ववेद भाष्यकारों के भाष्यों से तुलना’। आपने सफलतापूर्वक पी.एच-डी. पूर्ण की। 4 फरवरी, 2018 को आपको पी0एच-डी0 उपाधि का प्रमाण पत्र प्राप्त हो गयां। आपने सेवानिवृति के बाद पी.एच.डी. करते हुए एक मुस्लिम अध्यापक श्री माजिद मियां से डेढ़ वर्ष तक उर्दू का अध्ययन किया और अब आप उर्दू की पुस्तकें और अखबार पढ़ लेते हैं। फरवरी, 2016 के टंकारा के ऋषि बोधोत्सव में आप और हमारे परिवार साथ-साथ टंकारा गये थे। वहां भी आपने गुजराती भाषा का अध्ययन आरम्भ कर दिया था और कुछ-कुछ पढ़ना सीख भी गये थे। आपमे अध्ययन के प्रति गहरी रूचि है। घर में आपका एक बड़ा कमरा पुस्तकों व आलमारियों से भरा हुआ है। आपने अपने लिये दो डेसटाप कम्प्यूटर भूतल और द्वितीय तल पर लगा रखे हैं। आप लैपटाप का भी प्रयोग करते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद आपने टंकण करना भी सीखा। एक हजार पृष्ठों से अधिक की अपनी पीएचडी की थीसेज आपने स्वयं ही टाइप की है। आपके परीक्षकों ने आपके शोध प्रबन्ध कार्य की प्रशंसा की है। आपने यह पीएचडी गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डा. दिनेश चन्द्र शास्त्री के मार्गदर्शन में की है। डा. दिनेश शास्त्री जी से हमारे भी बहुत पुराने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध हैं। आप वैदिक विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार जी के शिष्य रहे हैं। डाॅ. वैदिक जी के परिवार में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती इरा रानी सहित उनके एक पुत्र डा. अभिनव वैदिक, पुत्र-वधु डा. आंचल वैदिक तथा एक पौत्री अविका है। आपकी तीन पुत्रियां हैं। दो पुत्रियां विवाहित हैं और तीसरी छोटी पुत्री नौएडा में कार्यरत है।
वैदिक जी आरम्भ से ही कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी रहे हैं। विद्यार्थी जीवन में आप जो भी पढ़ते थे उसे रट लेते थे। एक बार आपने स्कूली परीक्षा में एक प्रश्न का उत्तर पुस्तक के अक्षरक्षः शब्दों को उद्धृत कर दिया था। अध्यापक को लगा की आपने नकल की हैं। आपको जब डांट पड़ी तो आप बोले कि गुरु जी मैंने नकल नहीं की। आपके सामने मैं इसे पुनः लिख कर दिखा सकता हूं। आपने शब्दशः पुस्तक के ही क्रम के अनुसार उसे पुनः लिखा तो अध्यापक को भी आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने इस विद्यार्थी की प्रशंसा की। श्री वैदिक जी को यदा-कदा कुछ क्रोध भी आ जाता है। एक बार पशु चराने वाले एक व्यक्ति ने आपके माता-पिता के लिये कुछ अपशब्दों का प्रयोग कर दिया। फिर क्या था आपने पशु बांधंने वाला खूंटा उठाया और उससे उस व्यक्ति के हाथ पर प्रहार किया। इस घटना की जानकारी आपने अपनी माता जी को भी दे दी थी। उन्होंने उस व्यक्ति को कहा कि तुमने गाली दी, इस कारण कृष्णकान्त ने तुम्हारे प्रति यह व्यवहार किया। इस घटना के समय कृष्णकान्त जी की उम्र मात्र 12 वर्ष की थी। उस व्यक्ति ने अपनी गलती अनुभव की और फिर उससे परिवार के संबंध सामान्य हो गये थे।
डा. कृष्ण कान्त वैदिक जी हमसे बहुत स्नेह रखते हैं। यह कभी वह हमसे थोड़ी देर के लिये अप्रसन्न हो भी जाते हैं तो कुछ ही क्षणों के बाद वह पूर्ववत् स्नेहसिक्त शब्दों का व्यवहार करते हैं। वह हमारे ऐसे मित्र है जो हमारे सम्मुख हमारी कमियां बताते हैं परन्तु हमारी अनुपस्थिति में दूसरों के सम्मुख हमारी प्रशंसा करते हैं। ऐसा विद्वान् मित्र मिलना दुर्लभ है। डा. वैदिक जी के मैत्रीपूर्ण व स्नेह पूर्ण व्यवहार के प्रति हम उनके कृतज्ञ हैं। हम उनके स्वस्थ व दीर्घ जीवन की कामना करते हैं। सम्प्रति डा. वैदिक जी विगत एक-दो वर्ष से अस्वस्थ चल रहे हैं। हम आशा करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना भी करते हैं कि हमारे प्रिय डाॅ. कृष्णकान्त जी शीघ्र स्वस्थ हो जायें और आर्यसमाज की सेवा करते रहे। यह भी बता दें कि कुछ समय पूर्व वैदिक साधन आश्रम, तपोवन-देहरादून में डाॅ. कृष्णकान्त वैदिक जी को श्री दर्शनलाल अग्निहोत्री न्यास की ओर से वैदिक विद्वान के रूप में सम्मानित किया गया है। आपको न्यास की ओर से जो नकद धनराशि सम्मानार्थ दी गई थी वह आपने न्यास के अन्य कार्यों के लिए प्रदान कर दी। हमने पाया है कि वैदिक जी आर्थिक एषणा से सर्वथा मुक्त हैं। हम उनको नमन करते हैं।