हमारी कुटुम्ब-संस्था : एक अचरज

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 डॉ. मधुसूदन

हमारी हस्ती ना मिटाने वाली कौनसी बात है?

(१) कुछ वर्ष पूर्व भारत से ”फुल ब्राइट स्कॉलर” रहकर वापस लौटे हुए तीन अमरिकन प्रॉफ़ेसरों का (Talks)वार्तालाप यहां आयोजित किया गया था। यह वार्तालाप एक स्थानीय युनिवर्सिटी में रखा गया था। उन तीनों में से, एक प्रोफेसर ३ बार, एक २ बार, और एक १ बार, एक एक वर्ष के लिए, फुल ब्राइट स्कॉलर के रूपमें भारत गए हुए थे। सबमें वरिष्ठ प्रोफ़ेसर जो ३ बार भारत गये थे, वे मेरी युनिवर्सीटी में पॉलिटीकल सा यन्स पढा़ते थे। वे हैदराबाद स्थित उस्मानिया युनिवर्सीटी में गए थे; अब निवृत्त हो चुके हैं। उन्हें, दीपावली पर लक्ष्मी पूजन का दीप प्रकट करने और भाषण करने भी इंडिया स्टुडन्ट ऍसोसिअशन के, परामर्षक (Adviser)के नाते,उन्हें ”प्रमुख अतिथि” के रूपमें आमंत्रित कर चुका हूं।ऐसे प्रोफेसरों का वार्तालाप जब आयोजित किया गया; तो, उसे सुनने, पर कुछ, कुतूहल-वश ही, कि, भारत के बारे में यह अमरिकन प्रोफ़ेसर क्या कहना चाहते हैं, ऐसी उत्सुकता से मैं और और मेरी धर्म पत्नी, दोनो भी, गए थे।

(२) साहजिक ही अन्य सारे श्रोता अमरिकन ही थे। तो प्रोफेसर उन्हें ही लक्ष्य में रखकर प्रस्तुति कर रहे थे। एक अचरज भरी बात, तीनो प्रस्तुतियों में, न्यूनाधिक मात्रा में उभर कर आयी, जो मेरे लिए, सामान्य होने से, मैं ने, न कभी उस पर अचरज अनुभव किया था, न सोचा था। सोच रहा था, कि ऐसी सामान्य बात पर इन प्रोफ़ेसरों को इतना अचरज क्यों, और कैसे हो रहा है, तो दंग रह गया।

अब, आप भी उत्सुक ही होंगे, कि भाई ऐसी कौनसी अचरज भरी बात है, जो इन तीनों परदेशी प्रोफेसरों को नज़र आयी जो मुझे नहीं दिखायी दी। सोचता हूं, शायद आप ने भी इस विशेषता की ओर देखा ना हो; और देखा भी हो, तो अचरज ना किया हो। शायद भारतीय के लिए यह ”बात” साधारण होने से उसे अचरज नहीं होता। वैसे, यह बात २-३ हप्तों के लिए यात्रा पर आए हुए यात्रियों को शायद दिखाई नहीं देती।

(३) भारत के, ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल, कालेज के अनुभव इत्यादि बताने के बाद उन्हों ने भारतीय कुटुम्ब संस्था की स्वस्थता के विषय में बडा अचरज व्यक्त किया। सभी नें न्यूनाधिक मात्रा में, भारतीय कुटुम्ब संस्था की प्रशंसा ही की, और हमारी कुटुम्ब संस्था को अमरिका की कुटुम्ब संस्था की अपेक्षा स्वस्थ पाया। उनके अचरज का कारण था, कि दारूण गरीबी में भी भारतने कुटुम्ब संस्था को कैसे टिका कर रखा? उनके लिए इससे भी अधिक अचरज का कारण था, कि कैसे, यह कुटुम्ब संस्था ८०० वर्ष के, परकीय शासन एवं धर्मांतरण की तलवार के, बलात्कारी और लुभावने दबाव के उपरान्त भी, टिकी रही? और फिर १५०-२०० वर्षों के, अंग्रेज़ी शासन, जो वास्तव में ईसाइ मिशनरियों को भी जाने अनजाने प्रोत्साहित ही करता था, उसके उपरान्त भी टिकाकर रखा?

शायद जो परदेशी यात्री अल्पावधि के लिए भारत आता है, उसे यह दिखायी नहीं देता। पर यह तीनो प्रोफेसर तो कम से कम, वर्ष भर आए हुए थे, और सारे समाज शास्त्र के विषयों के निष्णात थे। उनके लिए यह निरिक्षण शायद सहज था।

(४)तो यह कैसे हुआ? गत, ८०० सो वर्ष की कालावधि में, सभी जानते हैं, कि भारत किन अनगिनत कठिनाइयों से गुज़रा है ?

हम तो गर्व से गाते भी रहते हैं।

यूनान मिस्र रोमां सब मिट गए जहां से

अब तक मगर है बाकी नामो निशां हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दौरें जहां हमारा।

तो यह कौनसी बात है, जिस के कारण हमारी हस्ती मिटती नहीं है?

(५) वैसे हमारी हस्ती मिटाने के लिए संसार की सारी शक्तियां एडी चोटीका प्रयास कर रही है। हज़ार वर्षॊं के लगातार थपेडों के कारण हमें बहुत कुछ क्षति भी पहुंची है, इसे कोई भी वास्तववादी नकार नहीं सकता। आज भी संसार भर की सारी शक्तियां येन केन प्रकारेण, हमें खतम करने का प्रयास कर रही है। कुछ छद्म रीतिसे , कुछ लुभाकर, पश्चिम, पूर्व, उत्तर तीनों दिशाओं से हम पर छद्म, प्रत्यक्ष, छिपकर, खुले-आम, आतंकी, घुसके, हंसके, और शासन को भी भ्रष्ट करके भी, आक्रमण हो रहा है।

(६)अंतमें, तीनों वक्तृताएं समाप्त होने पर कुछ प्रश्नोत्तर के लिए समय था।

कुछ प्रश्न पूछे गए, जो अमरिकन छात्र एवं श्रोताओं ने पूछे। पर एक प्रश्न एक भारतीय छात्र नें, जो बिज़नेस में मास्टर्स कर रहा था; उसने पूछा। शायद, उसे, बडा अजीब लग रहा था, कि भारत में ऐसा क्या है? ऐसी स्थिति सामान्य भारतीय की भी होती है, जो, अमरिका की आर्थिक चकाचौंध से प्रभावित होता है। उसने पूछा, कि आप भारतकी ऐसी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? क्या आपको भारत की बेकारी नहीं दिखी? क्या ट्रफ़िक समस्याएंनहीं दिखी? गरीबी नहीं दिखी? इत्यादि इत्यादि। आप इन विषयों की, तुलना करेंगे, तो अमरिका को ऊंचा नहीं पाएंगे क्या ?

(७) इस पर प्रोफेसर ने प्रश्न का जो उत्तर दिया, वह बडा तर्क शुद्ध था, मेरे लिए भी आंख खोलनेवाला भी था। उस उत्तरको मुझ जैसे, भारत-प्रेमी ने भी सोचा न था।उत्तर में, प्रोफेसर ने छात्र से पूछा, कि तुम्हारा मेजर (स्पेशियलायज़ेशन का विषय) क्या है? छात्रने जब बिज़नेस (M B A ) मेजर बताया, तो प्रोफेसर : तुम ग्राफ तो बनाते ही हो ना?

तो क्या, तुम दो अलग अलग स्केल पर बने ग्राफों की तुलना भी करते हो?

दोनों ग्राफोंको समान स्केलपर बनाकर तुलना की जानी चाहिए कि नहीं?

छात्र: भारत और अमरिका को, समान स्केल पर कैसे लाया जाए?

प्रोफेसरने उसका जो उत्तर दिया गया, मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा।

प्रोफेसर ने कहा कि भारत की गरीबी को अमरिका पर (आरोपित) सुपर-इम्पोज़ करो, और फिर कल्पना करो कि, अमरिकी समाज कैसे व्यवहार करेगा? उस काल्पनिक व्यवहार को भारतीय समाज के व्यवहार से तोलो। और कहो कि भारत ऊपर होगा या नहीं? इसकी कल्पना तो तुम कर सकते हो ना?

मैं मन ही मन सोच रहा था, क्या, हमारे गरीबी जैसी गरीबी? अरे बाप रे? उसके बिना भी अमरिका में, डीवोर्स हमसे कई गुना हो रहा है। जो कुटुम्ब संस्था के अस्वास्थ्य को दर्शाता है। अगर हम जैसी गरीबी हो तो तो यहां क्या क्या न हो जाए? जिसकी कल्पना करना भी कठिन!

पर मेरा भारतीय मन गरिमा अनुभव किए बिना ना रह सका?

जब जब मैं इस उत्तर के बारे में सोचता हूं, मेरी ऊंचाई बढ जाती है, सीना कुछ तन जाता है।

वाह मेरे भारत महान। सोचा, आप सभी प्रवक्ता के प्रबुद्ध पाठकों को यह सुनाऊं। पढा है, कि, यूनान मिस्र और रोम में कुटुम्ब संस्था पहले खतम हुयी थी, फिर पतन हुआ था।

और ”पर स्त्री मातृ समान” का आदर्श संसार भर में और कहीं भी नहीं था, न आज है। जब से हमारा समाज इस आदर्श को भूल रहा है, चारित्र्य पतन की ओर बढ रहा है। शायद यही उसका कारण है ; पर मैं कोई समाज शास्त्र का ज्ञाता तो हूं नहीं।

पर फिर भी, लगता है, जो लोग इन परम्पराओं को मिटाने में जुटे हुए हैं, उन्हें भी यह जानकर विचार करने पर विवश तो, होना पडेगा। देश की भलाई, तो वे भी चाहते होंगे।

12 COMMENTS

  1. भारतीय संस्कृति की ताक़त / रक्षण कुटुंब व्यवस्था मे है.. जो अबाल-वृद्ध को धारे /पोषे था .. जिसमें हर व्यक्ति उत्पादक था.. कोइ नौकर नहीं था तथा सभी का बराबर पोषण होता था..
    मैकोली की शीक्षा एवं सरकारी पैसे व वितरण ने कुटुंब व्यवस्था को तोड़ दीया है..
    सबसे अधीक हानी १९४७ के बाद हुइ है.. अब तो ३री पीढ़ी आ गइ.. कुटुंब-व्यवस्था की ताक़त को जानने- पहचानने वाले कम लोग बचे हैं..
    भारतीय पैसे से ग़रीब हो सकता है.. क़ाबीलत से नहीं.. इसीलिये भारतके बाहर वो पैसे के साथ अनेक सिध्धि पा लेता है..
    क़ाबिल बनना व कुटुंब-व्यवस्था का मंत्र अगर भारतीय के कान में फूँका जाय एवं वे इसे आत्मसात कर ले.. तो संस्कृति को कोइ भय नही है..

    • आ. शैलेश मेह्ता जी–पता नहीं, कैसे आपकी टिप्पणी पढने से छूट गयी। हमारे हाथ में अपनी अगली पीढी को संस्कार देना अवश्य है। हम उत्तरदायी हमारे कर्मों के लिए हैं। बस कर्म योग करते रहिए/रहेंगे। आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

  2. मी मधुसूदन जी का धन्यवाद करता हो की उन्होने एक बहोत हि अच्छी घटना एक भारतीय होने के नाते हम सबके सामने राखी, जिसे सुनकर सब का दिल भर जाना चाहिये. सिंग साहब कहते ही वो सच ही की यहा गरिबी और भ्रष्टाचारी बहोत है लेकीन गरिबी तो भ्रष्टाचारीयोन्के वजह से आई है. भ्रष्टाचारीयोने देश लुट लिया, क्योंकी उनके मन मे अपने मातृभूमी किमत बस एक बाजार मे बेचने लायक चीज है. शायद बस चलता तो उन जालीमोने अपने मां को भी खुले बाजार मे बेचा होता. और गरीब हि इस देश का प्रतिनिधित्व करता है के “एक दिन मेरा भारत वही रंग रूप लायेगा, मै नही कोई और सही पार फिर से खुशहाल दिन मे नहलायेगा.”

  3. डाक्टर साहब धन्यबाद.आपने लिखा है कि “स्वस्थ कुटुंब ही गरीबी का कारण होता है; आप की ऐसी मान्यता तो नहीं ना?”
    नहीं मेरी यह मान्यता नही है,पर मैं बहुत पहले लिख चुका हूँ कि भारत में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और कुटम्ब संस्था का विघटन एक ही साथ आरम्भ हुआ है और वह दौर है आजादी के बाद का पहलादशक या यों कहिये की प्रथम पञ्च वर्षीय योजना लागू होने के साथ साथ भ्रष्टाचार की भी बढ़ोतरी हुई और कुटम्ब संस्था का भी विघटन आरम्भ हुआ.

  4. भारतीय कुटुंब संस्था बहुतो के लिए अचरज का विषय है.पाश्चात्य देश वालों के लिए तो यह ज्यादा ही आश्चर्य जनक है.पर इससे गरीबी का सम्बंध मेरे समझ में नहीं आया. कोई पाश्चात्य देश वासी आगे यह भी न कहने लगे कि भारत भ्रष्ट है तो क्या हुआ,वहां कुटुंब संस्था तो है.कुटुंब संस्था का होना हमारे लिए गौरव का विषय अवश्य है,पर इसके कारण हमें भूखमरी के कगार पर पहुंचना पड़े तो मैं इस कुटुंब संस्था को तोड़ कर भी भूखमरी दूर करना चाहूँगा.अमेरिका में तलाक अवश्य है,पर वहां हमारे जैसे भूखे पेट सोने वालों की संख्या नगण्य है.इसीलिये हम पहले भ्रष्टाचार और गरीबी दूर करें तब हमें इस संस्था पर गर्व करने का अधिकार है अन्यथा नहीं.
    डाक्टर मधुसूदन ने यह भी लिखा है कि ” पढा है, कि, यूनान मिस्र और रोम में कुटुम्ब संस्था पहले खतम हुयी थी, फिर पतन हुआ था”,पर भारत में तो कुटुंब संस्था के रहते हुए भी पतन हो गया.अगर भारत के सम्बन्ध में कोई यह कहता है कि भारत के पतन का कारण भी यहाँ के कुटुंब संस्था का विघटन है तो उस कुतर्क का उत्तर तलाशने में मुझे भी कठिनाई होगी.

    • सिंह साहब
      धन्यवाद पढ़ने के लिए|
      एक बार फिरसे पढ़े तो शायद आप का प्रश्न नहीं रहेगा|
      स्वस्थ कुटुंब ही गरीबी का कारण होता है; आप की ऐसी मान्यता तो नहीं ना?
      तो अस्वस्थ कुटुंब धनी होना चाहिए?

  5. पंकज जी- धन्यवाद।
    परमात्मा की असीम कृपा है।
    सचमुच, भारत का ऋण चुका रहा हूँ।
    यह हर भारतीय का कर्तव्य मानता हूं।
    अधिक नहीं लिखता।
    कहीं मूक,अनचाही आत्म स्तुति ना कर बैठूं?
    आप की और डॉ. राजेश जी की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा।
    सविनय।

    • मधुसुदन जी, धन्यवाद्… शुभकामनाये, मातृभूमि का ऋण चुकाते रहने की.

  6. प्रो. मधुसुदन को आज पहली बार पढ़ा. यह जानकर ख़ुशी हुई की बहुसंख्य प्रवासी भारतियों वाली ‘बीमारी’ से बचे भी हैं कुछ लोग. डॉ. राजेश कपूर द्वारा दी गयी जानकारी से तो बहुत गर्व हो रहा है की वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के वास्तुकारों में से एक हैं प्रो मधुसूदन.

  7. बहुत महत्व का लेख है जो हम भारतीयों की ऑंखें खोलने वाला है. पता नहीं यह कैसे पढ़ने से छुट गया. अपने स्वयं के प्रति हीन बोध के शिकार भारतीयों को तो इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए. अमेरिका और भारत के तुलनात्मक अध्ययन की जो सूक्ष्म दृष्टि चाहिए, वह प्रो. मधुसुदन जी में पर्याप्त है. वर्ड ट्रेड सेंटर के ३० वास्तुकारों में से एक प्रो. मधुसुदन जी हैं. अपने विषय के विश्वप्रसिध विद्वान प्रो. मधुसूदन वास्तुशास्त्री होने पर भी केवल अपने विषय तक सीमित नहीं. वे विश्व और समाज की परिस्थितियों को बारीकी से परखते-समझते रहते हैं. मानव और विश्व कल्याण की दृष्टि से जो उन्हें सर्वोत्तम लगता है, उसे वे प्रवक्ता के माध्यम से प्रस्तुत करते रहते हैं. मुझे इनकी प्रतिभाओं और योग्यताओं के बारे में संयोग वश क्रमशः पता चल रहा. इनके लेख बहुत महत्व के व जनोपयोगी हैं. अतः ये पाठकों के ध्यान में आने से रह न जाएँ, इनके लाभ से हम वंचित न रह जाएँ, इस उद्देश्य से यह सब लिखा है.

  8. पर ये सब मीणाजी को रास नहीं होता जो एक भारतीय है और भारत में रहता है अफ़सोस और आश्चर्य हमें ऐसे भारतीयों को देखकर होता है जो हमेशा आधा भरा हुए गिलास को आधा खाली गिलास ही कहना पसंद करते है

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