सृष्टिकर्ता ईश्वर सबसे महान है, उससे महान कोई नहीं

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मनमोहन कुमार आर्य

                बुद्धिमानों विद्वानों में एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि संसार में सबसे महान कौन है? इसका सभी आस्तिकों के लिये निर्विवाद रूप से एक ही उत्तर हो सकता है कि इस संसार को रचने, पालन करने, प्रलय करने, जीवात्मा को जन्म देने, उसके कर्मानुसार सुख दुःख की व्यवस्था करने, उसे सत्कर्मों में प्रेरित तथा दुष्कर्मों से रोकने की प्रेरणा करने एवं अनेक अद्वितीय गुणों से सम्पन्न सत्ता परमात्मा ही हो सकती है। संसार में बहुत से मत ऐसे हैं जो अपने गुरुओं व आचार्यों वा अपनी पुस्तकों को ईश्वर से बड़ा मान सकते हैं व कुछ मानते हुए प्रतीत भी होते हैं। कुछ ऐसे मतानुयायी भी हो सकते हैं कि जो अपने गुरुओं को ईश्वर का पता उनके द्वारा मिलने के कारण गुरु को ही ईश्वर से अधिक आदर व स्थान देते हों। इस बात पर भी विचार किया जा सकता है कि क्या गुरु ईश्वर से अधिक महत्वपूर्ण है? जो लोग गुरु को महत्पवपूर्ण मानते हैं, यदि उनके गुरु ने उन्हें सचमुच ईश्वर का ठीक ठीक पता व ईश्वर का ज्ञान अपने शिष्यों को कराया है तो वह गुरु निश्चय ही शिष्य के द्वारा पूज्य होगा, परन्तु किसी को सत्य से परिचित कराना भी तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य होता है। गुरुजन भी अपने शिष्यों को जो ज्ञान देते हैं वह उन्हें अपने आचार्यों व गुरुजनों से प्राप्त हुआ होता है। उनसे पूर्व भी यही परम्परा चली आ रही होती है। सभी प्रकार के ज्ञान विद्याओं का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से हुआ था। उसने ही अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को एक एक वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। इस प्रकार इन चार ऋषियों को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न करने वाले तथा उन्हें ज्ञान देने वाले प्रथम गुरु परमात्मा ही थे हैं।

                इन चार ऋषियों ने अपना समस्त ज्ञान ब्रह्मा जी को दिया था। अतः इन ब्रह्मा जी के यह चार ऋषि गुरु थे। ईश्वर तो गुरुओं का भी गुरु, अर्थात् ब्रह्मा जी व उनके गुरुओं का भी गुरु है, अतः एक ईश्वर ही सबके द्वारा निर्विवाद रूप से उपासनीय वा पूजनीय है। हमारे गुरुजन तो हमें केवल ज्ञान ही देते हैं जिसके बदले में हम उनको आदर व सम्मान के साथ यथाशक्ति व उनकी आज्ञा व इच्छानुसार उन्हें भौतिक पदार्थ व शुल्क आदि भी वर्तमान समय में देते हैं। यह तथ्य निर्विवाद है कि गुरुओं का ज्ञान अपना नहीं होता, वह उनको परम्परा से प्राप्त हुआ होता है। परम्परा से प्राप्त सभी ज्ञान का आदि स्रोत केवल वेद ही है जिसे परमात्मा ने आदि चार ऋषियों को दिया था। वेदों का ज्ञान परमात्मा का अपना निज ज्ञान है और वह सदा सर्वदा उसके ज्ञान में रहता और उसे ही वह प्रत्येक कल्प में सृष्टि को बनाकर आदि चार ऋषियों को उत्पन्न करता उन्हें ज्ञान देता है। इस प्रकार ज्ञान का अधिष्ठाता एक प्रकार से स्वामी हमारा जन्मदाता परमात्मा ही है। परमात्मा के बाद ही माता, पिता व आचार्य आते हैं। सन्तान इन तीन सत्ताओं की ऋणी होती है। जैसे माता-पिता व आचार्य होते हैं वैसे ही शिष्य बनते हैं। माता-पिता-आचार्य यदि ईश्वर और वेद के अनुयायी व ज्ञानी हैं तो सन्तान में माता-पिता व आचार्य के गुण आते हैं और यदि माता-पिता वेद ज्ञान से दूर व किसी मनुष्य द्वारा प्रचारित मत के अनुयायी हैं, तो उनकी सन्तानों में भी उसी प्रकार गुण व अवगुण आते हैं। मत-मतान्प्तरों के अनुयायी ईश्वर व ऋषियों के गुणों के अनुरुप गुणों वाले नहीं बनते। मत-मतान्तरों के सभी अनुयायी पूर्णतया निर्दोष व ज्ञानी, अज्ञान व अविद्या से रहित, सच्चे ईश्वर को जानने वाले व उसके उपासक, पक्षपात से सर्वथा दूर एवं पूर्णतया न्याय पथ के अनुगामी नहीं बन पाते। सभी या अधिकांश मतों की शिक्षाओ, कार्य व व्यवहार की यदि परीक्षा की जाये तो यह पाया जाता है कि सब अपने-अपने मत को अच्छा व दूसरों को बुरा वा निम्नतर बताते हैं जबकी परीक्षा करने पर अविद्यादि अनेक दोष सभी मतों में प्रत्यक्षतः पाये जाते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में सभी मतों की परीक्षा कर उन मतों के नमूने के तौर पर कुछ अविद्यायुक्त बातों का परिचय कराया है जिससे कोई मत यह नहीं कह सकता कि उनका मत वेदों के समान पूर्णतया निर्दोष है। मनुष्य के अल्पज्ञ अर्थात् अल्पज्ञ ज्ञानी होने से उनका कोई कार्य व विचार सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकता। संसार में अविद्या फैलने का कारण भी वेदों के अध्ययन-अध्यापन में प्रमाद तथा अल्पज्ञ मनुष्यों की शिक्षा का प्रचार रहा है। जब तक ऐसा न होकर वेदों व ऋषियों की शिक्षाओं का प्रचार था, सारे संसार में वैदिक मत ही प्रचलित व स्वीकार्य था, ऐसा दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में कराया है।

                लेख के शीर्षक में हमनें ईश्वर को संसार में सबसे महान कहा है। हम इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि मनुष्य आदि सभी प्राणी जीवात्मायें हैं। वैदिक साहित्य में जीवात्मा का स्वरूप सत्य-चित्त, आनन्द व सुख से रहित, जन्म-मरण धर्मा, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वर के अधीन, सीमित ज्ञान प्राप्त करने तथा कर्म करने की शक्ति से युक्त, एकदेशी, ससीम, वेद व ऋषियों के सत्साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर, जीव व प्रकृति का निर्दोष ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ, ईश्वरोपासना से ज्ञान व शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाने वाला, अग्निहोत्र यज्ञ को करने वाला तथा परोपकार, दान व सेवा आदि कार्यों को करने वाला बताया गया है। हम व हमारे समस्त गुरुजन, आचार्यों, महापुरुषों तथा ऋषियों का आत्मा इसी स्वरूप का होता है। इसके विपरीत ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप एवं अनन्त गुणों वाला है। वह सत्य व चेतन होने के साथ आनन्द से युक्त भी है। उसका आनन्द उसके सर्वव्यापक स्वरूप में एकरस रहते हुए उसे सदा आनन्द से युक्त रखता है। उस ईश्वर के आनन्द का भोग ही समाधि अवस्था व ईश्वरोपासना की अवस्था में योगी व उपासक-जन करते हैं। इसके साथ ही ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, निर्विकार, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर हमारे सभी कर्मों का साक्षी और उनके अनुसार सभी प्राणियों को सुख व दुख का फलप्रदाता भी है और वही प्राणियों की मृत्यु होने पर पुनः पुनः जीवात्माओं की जाति वा योनि, आयु और भोगों को निश्चित करके तथा माता-पिता आदि के द्वारा जन्म देकर संसार में भेजता है।

                यह भी ज्ञातव्य है कि ईश्वर से हमारा सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, माता-पुत्र, आचार्य-शिष्य, राजा-प्रजा आदि का है। जो सम्बन्ध एक साधारण जीव का परमात्मा के साथ घटता है वही सम्बन्ध हमारे माता-पिता, आचार्यों, ऋषियों तथा सभी महापुरुषों का भी परमात्मा के साथ होता है। यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा माता-पिता व आचार्यों, राजा व विद्वानों आदि सभी का माता-पिता व उपासनीय सर्वेश्वर है। वह राजाओं का भी राजा, बलवानों से भी कहीं अधिक बलवान वा सर्वशक्तिमान, सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी, संसार के सभी ऐश्वयों का स्वामी, जगत-पति तथा अखिल ब्रह्माण्ड का संचालन कर रहा है। उससे महान व बड़ा कदापि कोई और नहीं हो सकता। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि ईश्वर सबसे अधिक महान वा महानतम् है। वह ईश्वर ही हमारा इष्ट-देव व परमपूज्य है। हमें उसकी ही शरण में रहकर प्रातः व सायं उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना को योगदर्शन की विधि से करना है। यदि करेंगे तो हमारा मानव जीवन सफल होगा और हम जन्म व मरण से छूट सकते हैं। यदि नहीं करेंगे तो हम जन्म-जन्मान्तरों में नीच प्राणी योनियों में जन्म लेकर दुःख पाते रहेंगे। जीवात्मा बिना वेद ज्ञान की प्राप्ति और श्रेष्ठ व उत्तम कर्मों को किये जन्म-मरण के बन्धनो ंसे मुक्त नहीं हो सकता। सभी मनुष्यों के लिये ईश्वर व अपनी जीवात्मा के सत्यस्वरूप को जानना व ईश्वर के हमारे उपकार अनन्त उपकारों के लिये कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना उपासना करना करना जिसमें वेदों का पढ़ना व पढ़ाना व सुनना व सुनाना भी सम्मिलित है, परम धर्म है। यह सभी बातें महर्षि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थों के द्वारा हमें बताई हैं जिससे हम इनसे परिचित हुए हैं। इसी कारण हम वेदाध्ययन करते हुए वेद की विधि से ही ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्र आदि कर्म करते हैं। सबके प्रति वसुधैव कुटुम्कम् एवं सुख की भावना रखते हैं परन्तु हम देखते हैं कि दूसरे मतों का आचारण व व्यवहार इस भावना के अनुरूप नहीं है। इस दृष्टि से वह ईश्वर की आज्ञा पालन न करने व उसको भंग करने वाले सिद्ध होते हैं। ईश्वर ने इस सारे संसार को वश में किया हुआ है। ईश्वर द्वारा बनाये सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि सभी लोकलोकान्तर ईश्वर की आज्ञा का अक्षरक्षः पालन करते हुए उसके नियमानुसार गति कर रहे हैं। जीव को भी ईश्वर अपनी सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्व एवं जीवों को सुख प्रदान करने की भावना के कारण वह उनके पाप-पुण्यानुसार जन्म-जन्मान्तरों व अनेक सुख व दुःख देने वाली योनियों में घुमाता रहता है, मनुष्य अज्ञान स्वार्थों में फंसकर शुभकर्मों से दूर हो जाता है जिसका वह जन्मजन्मान्तरों में फल भोगता रहता है। सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए हमें वेद व ऋषियों के सभी ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि का नित्य स्वाध्याय वा अध्ययन करते रहना चाहिये जिससे हमें सद्ज्ञान प्राप्त होता रहे और हम दुष्कर्मों से बचे रहे। यह सभी मनुष्यों के लिये आवश्यक एव अपरिहार्य है।

      इस संसार को रचने पालने करने वाला तथा सभी जीवों को उनके कर्मानुसार सुखदुःख इसके अनुरुप मनुष्य पशुपक्षी आदि असंख्य योनियों में भ्रमण कराने वाला होने से परमात्मा निःसन्देश एवं निर्विवाद रूप से संसार में सबसे महान महानतम् है। यजुर्वेद में एक एक मन्त्र आता है जिसके शब्द हैं वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्य वर्णम् तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायः।। इस मन्त्र में बताया गया है कि हम उस महान से महान पुरुष ईश्वर को जानें जो सूर्य के समान वर्ण वाला व सूर्य को प्रकाशित करने वाला है। उसी को जानकर हम मृत्यु के दुःख से दूर होकर व मृत्यु पर विजय प्राप्त कर मोक्ष वा जन्म-मरण के बन्धन से छूट सकते हैं और परमात्मा के सान्निध्य में रहकर उसके आनन्द को भोग सकते हैं। इस ब्रह्माण्ड के रचयिता, पालक तथा प्रलयकर्त्ता जगदीश्वर को सादर नमन। ओ३म् शम्।

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