जातिवाद के दलदल में फंसी हमारी राजनीति

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अजा जजा अत्याचार निवारण कानून को लेकर कभी अनुसूचित जाति-जनजाति द्वारा और कभी सवर्णों द्वारा बार-बार भारत बंद का जो नारा दिया जा रहा है, वह आखिर किस बात का सूचक है? वह प्रमुख राजनीतिक दलों के दिवालिएपन का सूचक है। जो दल शुद्ध जातिवादी राजनीति करते हैं और जिनका वर्चस्व सिर्फ उनके प्रांतों में ही है, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं। जिन दलों का केंद्र में राज रहा है और जो खुद को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि कहते हैं, इस मुद्‌दे पर उनकी नीति क्या है?जब 20 मार्च 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने 1989 में बने अजा-जजा अत्याचार निवारण कानून की गड़बड़ियों को सुधारा तो भाजपा-कांग्रेस का रवैया क्या था? कांग्रेस ने देश में भाजपा-विरोधी अभियान छेड़ दिया। उसने ऐसे आरोप लगाए जैसे अदालत का फैसला भाजपा सरकार के इशारे पर ही आया है। अजा-जजा वर्गों को भड़काया गया और हिंसा में 15 लोगों की जान चली गई। जहां तक सरकार का सवाल है, उसने याचिका लगाकर अदालत से प्रार्थना की थी कि वह 1989 के कानून को जरा भी ढीला न पड़ने दे। चूंकि कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों के पास कोई मुद्‌दा नहीं था, उन्होंने इसे ही पकड़ लिया।उन्होंने राजघाट पर अनशन की नौटंकी रच दी और भारत बंद का नारा दे दिया। भाजपा को लगा कि अनूसचित जातियों और जनजातियों का वोट बैंक कहीं खिसक न जाए, इसलिए उसने नेहले पर देहला मार दिया। उसने संसद में प्रस्ताव लाकर सर्वोच्च न्यायालय के संशोधनों को रद्‌द करवा दिया। किसी भी दल ने सर्वोच्च न्यायालय के संशोधनों का समर्थन नहीं किया। वे संशोधन क्या थे? सर्वोच्च न्यायालय ने 1989 के इस कानून में तीन मुख्य संशोधन सुझाए थे। अदालत ने यह तो माना कि अनुसूचितों पर अत्याचार आज भी जारी है। लेकिन उसने यह भी कहा कि अत्याचार को खत्म करने वाले कानून को खुद अत्याचारी नहीं बनना चाहिए। पिछले ढाई दशक का अनुभव है कि कानून की आड़ में लोगों ने झूठे मुकदमे चलाकर हजारों बेगुनाह लोगों को जेल के सींखचों के पीछे डलवा दिया।अदालत ने इस पुराने कानून में पहला संशोधन यह किया कि किसी भी व्यक्ति को इसलिए तुरंत गिरफ्तार न किया जाए कि उसके विरुद्ध अजा वर्ग के किसी व्यक्ति या किसी आदिवासी ने थाने में कोई शिकायत लिखा दी है। मूल कानून में सुधार करते हुए अदालत ने फैसला दिया कि किसी भी नागरिक के खिलाफ कोई अनुसूचित व्यक्ति किसी भी प्रकार की शिकायत करे तो उस नागरिक को गिरफ्तार करने के पहले पुलिस उसकी जांच करके वरिष्ठ जिला अधीक्षक को दे। उसके संतुष्ट होने पर ही गिरफ्तारी की जाए। दूसरा संशोधन यह था कि यदि ऐसा ही मामला किसी सरकारी कर्मचारी का हो तो जब तक उसे नियुक्त करने वाले उच्चाधिकारी की अनुमति न मिले, उसे गिरफ्तार न किया जाए। पहले उसकी जांच हो, यह जरूरी है। तीसरा संशोधन यह था कि इस तरह के आरोपी यदि जमानत या अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करें तो उस पर विचार किया जाए।ये संशोधन कड़ुए अनुभवों से ही पैदा हुए हैं। 2015-16 में अजा-जजा अत्याचार के 6 हजार मुकदमे फर्जी निकले और 2016-17 में इनकी संख्या 11 हजार तक पहुंच गई थी। अत्याचार का कोई मुकदमा फर्जी है या असली है, इसका फैसला होने में तो लंबा समय लगता है लेकिन, उतने समय तक निर्दोष लोगों को भी जेल काटनी पड़ती है, क्योंकि उन्हें जमानत भी प्रायः नहीं मिलती। यह कानून 1989 में बना था, जब देश में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। सभी दलों ने इस कानून का समर्थन किया था, क्योंकि सभी चाहते थे कि अजा-जजा वर्ग पर सदियों से हो रहे अत्याचारों पर प्रतिबंध लगे। तब संसद ने जो कड़े प्रावधान बनाए उनके पीछे यह भावना नहीं थी कि गैर-अजा-जजा वर्ग का दमन हो या उनको अनावश्यक तकलीफ पहुंचाई जाए।लेकिन, अब जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस अन्यायकारी कानून में सुधार किया तो उसे सभी दलों का समर्थन क्यों नहीं मिला? इसीलिए कि देश के सभी नेता, सभी दल वोट और नोट के गुलाम हैं। उनके लिए देशहित नहीं, अपना दलीय हित सर्वोपरि है। हर प्रमुख दल यह बताने के लिए मरा जा रहा है कि देश के अनुसूचितों का सबसे बड़ा हितैषी वही है, क्योंकि उनकी आबादी 30-35 करोड़ है और वे प्रायः थोकबंद वोट डालते हैं। वास्तविकता यह है कि संसद ने 2018 में जो अजा-जजा अत्याचार निवारण कानून दोबारा पारित किया है, वह सवर्णों, पिछड़ों, मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य गैर-अनुसूचित समुदायों के लिए तो तकलीफदेह है ही, उससे अजा-जजा वर्गों के करोड़ों लोगों को राहत मिलना तो दूर, उनका नुकसान ही ज्यादा होगा। देश के 75-80 प्रतिशत लोगों के मन में अगर यह बात घर कर गई कि यह कानून अन्यायकारी है तो आप ही सोचिए कि उसे अमल में लाना कितना कठिन होगा?जिन नेताओं ने वोट के लालच में इसका समर्थन किया है, क्या वे भारत में सर्वत्र विराजमान होते हैं? पुलिस में, अदालत, प्रशासन, रेल, बस, स्कूल में, अस्पताल में- हर जगह गैर-अनुसूचितों की बहुसंख्या है। इनसे अनुसूचित लोग कैसे पार पाएंगे? इस दमनकारी कानून का एक सूक्ष्म असर यह भी होगा कि अजा-जजा विरोधी भावना भी फैलेगी। जो सांसद हाथ उठाकर इस कानून को पास करते हैं, वे भी मैदानी मौका पड़ने पर हाथ ऊंचे कर देंगे। जरूरी यह है कि हमारे अजा-जजा नेता और संगठन इस कानून पर पुनर्विचार करें। वे पहल करें और सर्वोच्च न्यायालय के संशोधनों को अधिक व्यावहारिक और तर्कसम्मत बनाने के लिए रचनात्मक सुझाव दें।
देश के प्रमुख राजनीतिक दल एक-दूसरे की टांग खींचने की बजाय इस मुद्‌दे पर एक सर्वसम्मति बनाएं। गैर-अनुसूचित जातियों के संगठन उत्तेजित होकर आजकल जो आंदोलन चला रहे हैं, वह हिंसक कदापि नहीं होना चाहिए। यह तो उन्होंने अच्छा किया कि वे भाजपा-कांग्रेस, दोनों के नेताओं को आड़े हाथों ले रहे हैं लेकिन, वे कृपया यह कभी नहीं भूलें कि अजा-जजा लोगों पर सदियों से हम अत्याचार करते रहे हैं। वे भी हमारे भाई हैं और उन्हें भी बराबरी का हक मिलना चाहिए। यह तभी होगा, जबकि भारत से जातिवाद का खात्मा होगा और भारत में डाॅ. आंबेडकर और डाॅ. लोहिया के सपनों का जातिविहीन समाज बनेगा लेकिन, अभी तो हमारी राजनीति जातिवाद के दलदल में बुरी तरह फंस गई है।

1 COMMENT

  1. जब सभी दलों की राजनीति जातिवाद पर टिकी हुई है तो कौन इसे छोड़ना चाहेंगे , आज तो दलों का अस्तित्व ही सम्प्रदाय, जाती व धर्म पर भावनाओं को भड़का कर लोगों में अलगाव करने पर बना हुआ है , प्रांतीय दल वकी तो बन ने की रेसिपी ही यही आधार हैं , हालांकि उस से एक परिवार विशेष ही लाभ उठाता है , लेकिन अपनी जाती को वे लोग हर बार बरगलाने में सफल हो जाते हैं , अभी भी इस का कोई तोड़ नजर नहीं आ रहा है

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