पराभव के दिनों का आगमन

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डॉ. दीपक आचार्य

सज्जनों से दूरी का मतलब है

पराभव के दिनों का आगमन

हमारा जीवन सिर्फ अपनी आत्मा और शरीर से ही संबंध नहीं रखता है बल्कि हमारे आस-पास रहने वाले लोग और परिवेशीय हलचलें भी हमारे जीवन से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं में निर्णायक साबित होती हैं और इन्हीं के आधार पर हमारे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

जीवन निर्माण की गतिविधियों में संग का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह संग ही होता है जो हमारी वैचारिक धाराओं और उपधाराओं के प्रवाह को न्यूनाधिक परिवर्तित करता है और इनके प्रवाह को मोड़ने में सक्षम होता है।

यदि संग बुरा है तो हमारा जीवन उस दिशा में बढ़ता चला जाएगा जबकि अच्छे लोगों का संग होने पर जीवन की दिशा और दशा दोनों ही सही-सही और शुद्ध बनी रहती हैं।

इसलिए जीवन की सफलता और जीवन लक्ष्यों की पूर्णता पाने के लिए सज्जनों का संग अत्यधिक प्रभावी निरूपित किया जाता रहा है। हमारे धर्मशास्त्रों और नीति वाक्यों से लेकर लोक व्यवहार और आचरण में भी इसी बात पर जोर दिया गया है।

सत्संग की प्राप्ति हमारे सद्कर्मों और पुण्यों से होती है और जब तक हमारे मन की स्वच्छता बनी रहती है तभी तब हमारे भीतर मलीनता का प्रवेश नहीं हो पाता है। लेकिन मलीनता आ जाने पर अच्छाइयों से हमारा नाता छूटता चला जाता है।

अथवा यों कहें कि मलीनता और सडांध आ जाने के बाद हमारी वृत्तियाँ अच्छाइयों की बजाय बुराइयों की ओर कदम बढ़ा लेती हैं और फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की इच्छा तक नहीं होती। एक बार मलीनता भरे कु(करमों) की शुरूआत हो जाने के बाद फिर ऎसे ही कामों में रुचि बढ़ती चली जाती है।

सज्जनों की संगति का प्राप्त होना हमारे पुरखों की त्याग और तपस्या के साथ ही हमारी पूर्वजन्मार्जित पुण्य संपदा पर निर्भर करता है लेकिन जब हम अपनी शुचिता को बरकरार रखने में विफल हो जाते हैं तब पुराने पुण्यों का क्षय हो जाता है, पुरखों के आशीर्वाद का हाथ हमारे ऊपर से हट जाता है और फिर दैवीय संरक्षण समाप्त हो जाता है।

यहीं से हमारी स्वच्छन्दता को और अधिक पंख लग जाते हैं और हमारे जीवन की सभी यात्राएं उन्मुक्त हो जाती हैं जो जीवन के सारे उन्मादों का साक्षात् कराती हुई अन्त में हमें उस स्थान पर ले जाती हैं जहां से हमारी मुक्ति के सारे मार्ग बंद हो जाते हैं और गहरा अंधेरां भरा पाताल कुआ दिखने लगता है जहां हर कहीं आगे भी अंधेरा होता है और पीछे भी, ऊपर भी और नीचे भी।

अपने जीवन में जिस समय सज्जन लोग हमसे दूरी कर लें या हम किसी भी वजह से सज्जनों से सायास दूरी बनाने लगें, तब यह बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि भगवान ने हमारे पतन का पिछला और गुप्त द्वार खोल दिया है।

यह वह स्थिति है जब हम अहंकारी और दंभी हो जाते हैं और हमारा यही अहंकार हमें अशिष्ट और असभ्य बनाने लगता है। हमारी मितभाषिता और सद्व्यवहार समाप्त होने लगता है और इन स्थितियों के परिणामस्वरूप हमारा विवेक पलायन करने लगता है और ऎसी हालात पैदा हो जाती है कि हमें बुरे लोग अच्छे लगने लगते हैं और अच्छे लोग बुरे।

हमारे जीवन का यह संक्रमण काल होता है जिस समय हमें संभलने और आत्मविश्लेषण तथा व्यवहार मूल्यांकन करते हुए विवेक बुद्धि का इस्तेमाल करना होता है।

ऎसा हम समय पर नहीं कर पाएं तो फिर हमारा जीवन बिना ब्रेक की गाड़ी हो जाता है जिसे भले ही ओवर स्पीड़ का आनंद आए मगर अन्ततः किसी ढलान पर पलटियां खाते हुए खत्म होना ही है।

हममें से कई लोगों की स्थिति ऎसी ही होती जा रही है जहां हम सज्जनों का त्याग करते जा रहे हैं अथवा सज्जन लोग हमारा त्याग करने लगे हैं। यह इस बात को साफ इंगित करता है कि हमारे पराभव का समय अब बहुत करीब आ गया है और किसी भी क्षण हमारी अधोगति या देहपात होना निश्चित है।

प्राचीन युगों और इतिहास की बात करें तो जिस समय विभीषण ने रावण का, प्रह्लाद ने हिरण्यकश्यप का, विदुर ने धृतराष्ट्र का त्याग कर दिया उसी समय से इन सभी महाराजाओं का पराभव आरंभ हो गया फिर उन लोगों की क्या बिसात जो इनके सामने मच्छर भी नहीं हैं। इन मच्छरों का अहंकार इन्हें किस तरह खा जाने वाला है यह उन्हें न पता है, न पता चलने वाला है।

धन-संपदा, सौन्दर्य और पद-प्रतिष्ठा के अहंकार में आज भले ही दंभी लोगों को सर्वस्व होने का भ्रम होने लगे, मगर इन सभी को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिस समय अच्छे और सज्जन लोग उनका साथ छोड़ देंगे या वे सज्जनों से दूरी बनाने लगेंगे उसी दिन से उनके पराभव का इतिहास लिखा जाना आरंभ हो जाता है।

कोई बुरा व्यक्ति अपने से दूरी बनाने लगे तो हमें खुशी व्यक्त करनी चाहिए किन्तु कोई अच्छा और सज्जन व्यक्ति यदि हमसे दूरी बनाने लगे तो यह समझना चाहिए कि हमारे भीतर कोई ऎसी बुराई या अहंकार छा गया है जिसकी वजह से अच्छे लोगों के मन में हमारे प्रति दूरी बढ़ने लगी है।

अच्छे लोगों से दूरी बनाए रखना कोई साहस का काम नहीं है बल्कि यह हमारे लिए ही नुकसानदेह है क्योंकि हमारे अधःपतन और पराभव की शुरूआत तभी होती है जब हम सज्जनों का त्याग करने लगते हैं अथवा सज्जन लोग हमारा त्याग शुरू कर देते हैं।

सज्जनों का सामीप्य और सान्निध्य सुख और सुकून देने वाला होता है जबकि इनसे दूरी होने पर हम कई दुष्टों और नर पिशाचों से घिर कर रह जाते हैं और दिन-रात अपना जयगान करने वाले ये लोग ही एक दिन हमें डुबो देते हैं उस सागर में जिसके किनारे नहीं हुआ करते, मगर डूबते हुए किनारे खड़े इन लोगों को हम आसानी से देखते हुए पश्चाताप करते हुए अन्ततः हमें अवश हो जल समाधि लेनी ही पड़ती है।

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