हर्ष सिंह
कांग्रेस की 1984 की महाविजय वस्तुतः इंदिरा गांधी के प्रति एक श्रद्धांजलि थी | इसका पार्टी की मजबूत नीतियो और कार्यक्रमों से कोई लेना देना नहीं था | लेकिन 1989 तक मतदाताओ का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होने इसे बाहर का रास्ता दिखा दिया सरकार मे एकात्मकता की कमी , पार्टी मे नैतिकता का अभाव , संसद और देश मे गुस्से का इज़हार बोफोर्स के घोटाले के कारण , कुछ ऐसे कारण थे ,जो इसकी अवनति के लिए जिम्मेदार थे | यू तो इंदिरा जी के निधन के बाद से ही कांग्रेस धीरे धीरे कमजोर होती गयी थी | चूंकि कांग्रेस एक बहुत बड़े पेड़ के समान है जो एकाएक नहीं गिरी बल्कि धीरे धीरे ख़त्म हो रही है | कांग्रेस 1989 के बाद 1991 मे राजीव की मौत के बाद फिर से सत्ता मे आई लेकिन वो भी अल्पमत की सरकार थी जिसके मुखिया पी वी नरसिम्हा राव बने | राव निर्णय बहुत देरी से लेते थे और बार बार अपने निर्णय बदलते रहते थे | वह एकांतवास पसंद करते थे और ज्यादा घुलना मिलना भी पसंद नहीं था | प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होने बदलने की भरसक कोशिश की जिसमे वो काफी हद तक सफल भी रहे परंतु देर से निर्णय लेने की उनकी आदत ने उनका अंत तक पीछा नहीं छूटा और 1992 बाबरी माँस्जिद विध्वंस मे उनकी और केंद्र सरकार की नाकामी की वजह भी उनकी यही कमी थी |
कांग्रेस 1996 का चुनाव हार गयी थी और पी वी विपक्ष मे बैठे थे | यद्यपि उन्होने ने संसद मे दो बार बहुत उम्दा तकरीरे की थी परंतु सत्ता गवाने का अर्थ होता है प्रभाव और संरक्षण भी खो देना | शीघ्र ही एक सम्मलित आक्रमण उनपर किया गया और वो पार्टी अध्यक्ष भी नहीं रहे | इसके बाद तो वे विस्म्रती के गर्भ मे चले गए | 1996 मे हुए चुनावो के बाद एच डी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने लेकिन कुछ ही समय मे उनकी सरकार भरभरा कर गिर गयी फिर इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने | भारत की विदेश नीति मे उनकी कल्पनाशील गुजराल डाक्टरिन का बड़ा योगदान है लेकिन इनका भी कार्यकाल ज्यादा लंबा नहीं चला अप्रैल 1997 से मार्च 1998 तक |
सीताराम केसरी के अध्यक्ष रहने के समय मे कांग्रेस पार्टी और भी कमजोर हो गयी , इसने तो मानो अपना आधार ही खो दिया था | सन1996 के चुनावो के बाद इसके मात्र 112 सदस्य ही रह गए थे | केसरी की छुट्टी कर डी गयी और सोनिया को सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया | 1998 मे हुए चुनावो मे मे भी कांग्रेस का प्रदर्शन बुरा ही रहा | अटल बिहारी वाजपायी के नेत्रत्व मे नेशनल डेमोक्रेटिक एलाएन्स ने केंद्र मे सरकार बनाई | 11 मई से 13 मई के बीच अटल सरकार ने पोखरण मे लगातार 5 परमाडु परीक्षण किए | मई 1999 मे कारगिल का युद्ध शुरू हुआ जिसमे भारत की जीत हुई | इस युद्ध के पश्चात 1999 मे पुनः चुनाव हुए क्यूंकी एआइएडीएमके ने सरकार को प्रदत्त अपना समर्थन वापस ले लिया था | इस बार भी एनडीए सफल रहा और भारी बहुमत से जीता अटल जी फिर से प्रधानमंत्री बने |
1996 के बाद कांग्रेस मे सोनिया दौर शुरू हो चुका था लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष फायदा कांग्रेस को नहीं हुआ था | बल्कि उसका प्रदर्शन बुरा ही था | 2004 के लोकसभा चुनावो मे किसी तरह से कांग्रेस ने सत्ता मे वापसी की परंतु कांग्रेस को खंडित जनादेश प्राप्त हुआ| कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कई दलो को साथ मिलाकर यूपीए का गठन किया और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया | श्री सिंह प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे और कुछ समय बाद वो सत्ता के दो केन्द्रो वाली व्यवस्था से ऊब गए | 2010 के चुनावो मे मनरेगा स्कीम के चलते यूपीए फिर से सत्ता पाने मे सफल रही और यूपीए2 के भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ही थे | यूपीए 2 का कार्याकाल बेहद निराशाजनक रहा कामनवेल्थ और 2जी घोटालो ने सरकार का सर शर्म से झुका दिया 2012 मे हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावो मे भी राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार के बावजूद कांग्रेस बुरी तरह से फ़ेल हुई | 2011 मे बाबा रामदेव ने दिल्ली मे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ अनशन की घोषणा की जिसे सरकार ने बड़ी बेदर्दी से कुचल डाला | ये यूपीए सरकार की सबसे बड़ी ग़लती थी जिसने चुनावो से 3 साल पहले ही कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना दिया था | अगस्त 2011 मे अन्ना हज़ारे और उनकी टीम ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया तथा जनलोकपाल बिल पास करने की मांग की | ये दो प्रदर्शन यूपीए 2 के शासन के ताबूत की आखिरी कील साबित हुए | मनमोहन सिंह जो 1991 के नायक थे वे भारत के सबसे असफल प्रधानमंत्री साबित हुए जो महंगाई और भ्रष्टाचार को को काबू करने मे पूरी तरह से असफल रहे |
2014 के चुनावो मे कांग्रेस की बहुत करारी हार हुई | कांग्रेस ने सिर्फ 44 सीटे जीती लोकसभा मे कांग्रेस की हार का सिलसिला महाराष्ट्र , हरयाना, जम्मू और कश्मीर , झारखंड और दिल्ली के विधानसभा चुनावो मे जारी रहा | दिल्ली विधानसभा पूरी तरह से कांग्रेस मुक्त हो ज्ञी | कांग्रेस ने ऐसा काला समय शायद पहले ही देखा हो | आज सोनिया से लेकर राहुल तक सब इसके जिम्मेदार हैं | राहुल गांधी की अपरिपक्व राजनीति कांग्रेस को और भी गर्त मे धकेल रही है | सोनिया गांधी जो शुरुआत मे एक सहमी , सीधी और डरी सी थी वो आज एक दबंग, जिद्दी राजनेता हैं उनकी इसी जिद के कारण आज 15 सालो के बाद भी वो कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कायम हैं | कांग्रेस की हार का जिम्मा कभी भी माँ बेटे पर नहीं फोड़ा जाता | पार्टी मे वही दोनों ही अजर अमर हैं |इसी तानाशाही का प्रतिफल आज 150 साल पुरानी पार्टी भुगत रही है |
कांग्रेस को फिर से 1996 की तरह फिर से री इनवेंट करने की जरूरत है अर्थात काँग्रेस के आलाकमान से लेकर समितियों तक का बदलाव किया जाना होगा अब तो इसकी मांग कांग्रेस के कार्यकर्ता भी उठाने लगे हैं | अब तक राहुल गांधी फ़ेल ही साबित हुए हैं | अगर कांग्रेस चाहती है की इंदिरा जैसा स्वर्णिम युग फिर आए तो उसे बदलना होगा चाहे इस बदलाव के शिकार सोनिया या राहुल खुद ना हो चाहे इसके लिए प्रियंका को लाया जाए या किसी और को क्यूंकी अगर कांग्रेस इसी तरह से प्रदर्शन करती रही तो एक दिन वो लुप्त हो जाएगी दिल्ली की तरह संपूर्ण भारत मे उसका कोई नाम लेवा नहीं बचेगा | अभी भी समय है बस करने की देर है |
दुःख का विषय यह है की कांग्रेस अभी भी दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ नहीं पा रही है.इस ऐतिहासिक दल की चुनावों में ऐसी दुर्गति होगी किसी ने सोचा भी नहीं होगा. अभी भी इसके पुराने और अनुभवी नेता ऐसे उटपटांग बयान देते हैं की उनका अर्थ ही दूसरा हो जाते हैक़ुछ दिन पूर्व एक खांटू ,नेता बोले की केजरीवाल और अन्ना दोनों भाजपा के लिए कार्य कर रहे हैं. ”मैंने पहिले भी कहा था किन्तु लोगों ने विशवास नहीं किया ”यह कथन अख़बारों की सुर्खियां बना और अन्ना ने दिल्ली में भू अध्यादेश के खिलाफ आन्दोलन आरम्भ कर दिया.इतना ही नहीं अन्ना ने भाजपा सरकार को अंग्रेजों की सरकार के बराबर बता दिया वे नेताजी क्या करें?युवक सम्राट ने मोदीजी के सूट को मुद्दा बनाया ,उसकी नीलामी हुई,और सूट की कीमत से कई गुना मूल्य की धनराशि गंगा सफाई अभियान में गयी. सूट का मुद्दा फुस्स. अब तो उपाध्यक्ष चिंतन के लिए विदेश गए हैं. यदि सभी कांग्रेसी एकमत हो जाएँ,भेदभाव भुला दें ,और एक स्वर में बोलने की कसम खालें तो दल अभी भी विनाश की कगार से बच सकता है। यदि कांग्रेस नष्ट हो गयी (जो हो ही नहीं सकता)तो देश के लिए अच्छा नहीं होगा.
नहीं जी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को फिर से गढ़ कर सामने लाने की कोई आवश्यकता नहीं है| यदि मस्तिष्क पर दासत्व का प्रभाव अभी भी प्रबल है तो फिरंगी को सज़ा सवार के फिर से गढ़ने की संभावना करो जिसने ऐसी वृथा और अयोग्य “संतान” की रचना की है| सदियों में पहली बार केंद्र में राष्ट्रीय प्रशासन स्थापित होने पर कांग्रेस का नाम तक लेना वर्जित न हो लेकिन भारतीयों में जगा राष्ट्रवाद उसे भुलाने में अवश्य सहायक होगा|