स्वयं विषपान कर संसार को अमृत पिलाने वाला अनोखा ऋषि दयानन्द सरस्वती

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-मनमोहन कुमार आर्य-  dayanand
महर्षि दयानन्द का शिवरात्रि से गहरा ऐतिहासिक सम्बन्ध है। शिवरात्रि के व्रत ने ही बालक मूलशंकर को सच्चे शिव अर्थात् सृष्टि के रचयिता ईश्वर की खोज करने की प्रेरणा की। घर व परिवारजनों के बीच रहकर वह अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते थे। इसके लिए उन्हें ऐसे विद्वानों, आचार्यो, व्याकरणाचार्यो, योगियों, चिन्तकों, मनीषियों तथा वेदज्ञों की संगति, उनके प्रशिक्षण व मार्गदर्शन की आवश्यकता थी जो उनकी शकाओं को समझकर उन्हें दूर कर सकें। अत: घर छोड़ने का कठिन निर्णय उन्होंने लिया। सन् १८४२ ई. से स्वामी दयानन्द की बालक मूलशकर के रूप में सच्चे शिव की खोज आरम्भ होती है। इस कार्य के लिए उनका मार्ग दर्शन करने वाला कोई नहीं है। उन्होंने अपना उद्देश्य निर्धारित कर लिया और उसको प्राप्त करने की योजना की रूपरेखा उन्हे स्वयं ही बनानी है। उनका पहला कार्य यह था कि वह परिवारजनों से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच जायें जहां वह निश्चिन्तता से अपने मार्ग पर आगे बढ़ सकें। अपने परिवारजनों से दूर रहकर वह ज्ञानी व योगियों की संगति से अपनी सभी शकाओं का समाधान कर सच्चे शिव व सृष्टिकर्ता ईश्वर को जान कर मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लें। साथ हि मुक्ति की प्राप्ति के उपायों को जान कर उसके अनुरूप साधना कर कृतकार्य हो सकें। उनके जीवन के अध्येता व अनुयायी यह भली प्रकार जानते हैं कि वह अपनी खोज में सफल रहे। उनकी खोज से वह स्वयं अकेले ही लाभान्वित नहीं हुए, अपितु उससे समूचे भारतीय समाज के साथ सारा विश्व भी लाभान्वित एवं प्रभावित हुआ। २७ फरवरी, २०१४ को आ रही शिवरात्रि व उससे ४ दिन पूर्व उनका जन्म दिवस है। यह दो दिन भारत व विश्व के इतिहास के दो गरिमापूर्ण एवं महनीय दिवस हैं। इनकी महत्ता इस कारण है कि सूर्यास्त से उत्पन्न अन्धकार की भांति महाभारत युद्ध के पश्चात वेद व आर्ष ज्ञान के विलुप्त होने पर भारत व विश्व के लोग नाना प्रकार के अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों में फंस गये थे। लगभग ५,००० वर्ष तक वेद व आर्ष ज्ञान प्राय: विलुप्त रहा। महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व तप, ज्ञान, जिजिविषा व योग बल से उस विलुप्त ज्ञान को प्राप्त किया और उसे मानव मात्र को सुलभ कराया। इस कारण वह सृष्टि के इतिहास में सर्वोपरि स्थान को प्राप्त हुए। महाभारत के पश्चात व महर्षि दयानन्द के आविर्भाव से पूर्व यह हुआ कि संसार के लोग सृष्टिकर्ता ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप को भूल गये थे। सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन को पाकर भी उसका लक्ष्य प्राप्त करने के स्थान पर पहले से भी अधिक पतित होते जा रहे थे। पतन की चरम स्थिति तक पहुंच जाने की अवस्था के कारणों पर विचार कर उसके निवारणार्थ ज्ञान व विद्या प्राप्त कर दु:खों से मुक्त होकर मोक्ष व अपवर्ग प्राप्ति तक का चिन्तन करने में संसार के लोग सर्वथा असमर्थ थे। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ और उन्होंने हर बात का समाधान किया जिससे उनके समय व बाद का सारा संसार उनका कृतज्ञ है।

शिवरात्रि के इस दिन हम आर्य समाज के मन्दिरों में जाकर वहां वेदों के विद्वानों के सान्निध्य में आत्मा, परमात्मा व सृष्टि के उपभोग से जुड़े प्रश्नों पर सारगर्भित प्रवचन व उपदेश सुनकर यथार्थ ज्ञान को प्राप्त होते हैं। प्रवचनों व अपने दैनन्दिन स्वाध्याय से मन में समुद्र की तरंगों की भांति समय-समय पर उठने वाले सत्य संकल्पों को जीवन में धारण कर ईश्वर-साक्षात्कार की स्थिति तक पहुंचने में अग्रसर व सफल हों, यही इस दिवस को मनाने की सार्थकता है। यदि इस दिन अवकाश करके केवल अन्न ग्रहण न कर उपवास रखने, शिव के काल्पनिक चित्र, मूर्ति व कथा को स्मरण कर व पौराणिक रीत्यानुसार शिव की स्तुति व आरती आदि करके शिवरात्रि व ऋषि बोध दिवस को मनाते हैं तो हम कहेगें कि हमारे ऐसे भाईयों व बहिनों को शिवरात्रि मनाना ही नहीं आता। वह अन्धकार में पड़े होने पर भी यह अनुभव ही नहीं कर पा रहे हैं कि वह अन्धकार से ग्रसित हैं। अज्ञान के अन्धकार से ग्रसित व्यक्ति को यदि अपने स्वरूप व स्थिति का यथार्थ ज्ञान न हो तो फिर उसका कल्याण होना कठिन वा असम्भव होता है। ऐसी ही कुछ स्थिति पौराणिक विधियों से शिवरात्रि मनाने वाले हमारे भाईयों की है और साथ में अन्य मतावलम्बी भी इन्हीं पौराणिक भाईयों की तरह अन्धकार से आवृत अपने पुराने संस्कारों की कमाई, प्रारब्ध को भोग कर सुख अनुभव कर रहें हैं जिससे उनका प्रारब्ध व पुण्य कर्म घट रहे हैं और आगे के लिए जमा-पूंजी-रूपी-प्रारब्ध के न बचने के कारण उनके लिए हानि, दु:ख, चिन्ता, निराशा, रोग व क्लेश आदि की स्थिति बन रही है।

लगभग २,५०० वर्ष पूर्व बौद्ध व जैन मत का प्रादूर्भाव प्राय: कुछ अन्तराल के आस पास हुआ और मूर्तिपूजा इन्हीं के द्वारा न केवल भारत में अपितु संसार भर में प्रचलित हुई। इससे पूर्व भारत वर्ष व विश्व में कहीं भी मूर्ति पूजा किये जाने के प्रमाण उपलब्ध नहीं है। वेद नाम से प्रसिद्ध चार मन्त्र संहितायें ईश्वरीय ज्ञान हैं जिनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों से मूर्तिपूजा अर्थात् ईश्वर के स्थान पर पाषाण व धातु आदि की मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजा करने का खण्डन होता है। यह कृत्य ऐसा ही है जैसे कि माता-पिता घर में विद्यमान हैं, उनका पुत्र उनकी अनदेखी करके उनके चित्र पर पुष्प-माला व पुष्प, फल, जल, अन्न आदि भेंट कर रहा है या उनके नाम पर पुजारियों को अन्न व धन दान दे रहा है। माता-पिता यह देख कर चिन्तित व दु:खी हो रहे हैं परन्तु वह पुत्र उनकी भावनाओं व इच्छाओं पर ध्यान नहीं दे रहा है। पुत्र की भांति ऐसी ही स्थिति मूर्तिपूजा करने वालों की है जिनसे सच्चा ईश्वर कुपित है। शिव-पूजा के सन्दर्भ में लगता है कि बौद्धों व जैनियों से प्रभावित होकर हमारे अल्पज्ञानी या अज्ञानी व कुछ-कुछ स्वार्थ से प्रेरित लोगों ने ऐतिहासिक महान पुरूष भगवान शिव की उपासना व पूजा आरम्भ की होगी। उनकी पूजा आरम्भ करने से पहले भक्तों व उपासकों को शिव-उपासना का महात्म्य भी बताना था। इसके लिए उन्होंने शिव पुराण जैसे ग्रन्थ की रचना की। शिव पुराण ही नहीं अपितु सभी पुराणों के वर्णन अविश्वनीय हैं जिन्हें व्यवहार में घटा कर देखने पर वह सत्य सिद्ध नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है कि एक ऐतिहासिक शिव हुए थे जो बहुत बड़े धर्मात्मा, योगी, व्याकरणाचार्य, आयुर्वेदाचार्य, संगीत, नृत्याचार्य एवं अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इसका सप्रमाण वर्णन पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ श्संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहासश् में किया है। जब वैदिक धर्म का ह्रास हो चुका या हो रहा था तब नास्तिक बौद्ध व जैन मतों से रक्षा के लिए सम्भवत: समयानुसार यह पौराणिक शिव उपासना आरम्भ की गई थी। जिन लोगों ने यह पद्धति आरम्भ की वह अपने समय के बहुत बड़े तथाकथित विद्वान रहे होगें। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता वहां अरण्ड के वृक्ष को ही वट-वृक्ष माना जाता है। परिस्थितियों के अनुसार ऐसा होना स्वाभाविक व व्यवहारिक होता है।

इसी प्रकार से पुराणों के निर्माण काल में वेदज्ञ विद्वानों के न रहने पर जो संस्कृत जानने वाले व ग्रन्थ रचना में समर्थ व्यक्ति थे, परन्तु जो वेदों के सिद्धान्तों से या तो अनभिज्ञ थे या फिर कुछ अज्ञान व स्वार्थ जिनमें था, उन्होंने इस प्रकार की पूजा पद्धतियां रच डालीं। प्रश्न पूछने वाले व शंका करने वाले लोग उस समय नहीं थे। जो थे, उन्होंने सत्य मार्ग पकड़ने के स्थान पर अपना नया मत या नया पुराण बना डाला और अन्यों की निन्दा व अपने मत व पुराण की स्तुति की। विद्वानों के अनुसार ऐसा ही वर्णन सभी पुराणों में मिलता है जो यथार्थ न होकर काल्पनिक होने से अविश्वसनीय या त्याज्य है। यहां हम एक उदाहरण देना चाहते हैं। हमारे एक पौराणिक मित्र श्री चन्द्र दत्त शर्मा, फलित ज्योतिषविद्, उनके पिता श्री अमन सिंह शर्मा, माताजी, पत्नी, पुत्र हिमांशु व दो पुत्रियां लगभग ३० वर्ष पूर्व शिवरात्रि के दिन दूरदर्शन पर शिवरात्रि का कार्यक्रम देख रहे थे। श्री शर्मा शिक्षा काल में ही आर्य समाज के सम्पर्क में आये परन्तु रहे अधिकांशत: पौराणिक व कुछ थोड़े आर्यसमाजी। उनका परिवार पौराणिक व आर्य समाज के विचारों का मिश्रित रूप था। उनके पिता श्री अमन सिंह शर्मा भी प्रमुख फलित ज्योतिषविदों में थे। शिवलिंग की पूजा का दृश्य दिखाये जाने पर सब घर वालों ने हाथ जोड़ कर अपनी श्रद्धा व भक्ति का परिचय दिया परन्तु पुत्र हिमांशु ने न तो शिर ही झुकाया और न हाथ ही जोड़े। दादाजी के हाथ जोड़ने के लिए कहने पर उसने कहा – श्मैं हाथ क्यों जोडू, यह कोई भगवान थोड़ी है, यह तो पत्थर है।श् शर्माजी ने इस घटना का पूरा विवरण बाद में मिलने पर हमें बताया। अब यह बालक बड़ा हो गया है तथा पढ़-लिख कर स्मृद्ध व सम्मानित जीवन व्यतीत कर रहे हैं और विचारों से प्राय: पौराणिक ही है। मूर्तिपूजा की एक शिक्षाप्रद घटना आर्य समाज के विद्वान गुंजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर से जोड़कर सुनाते हैं। एक बार बहुत दूर से आये एक ग्रामीण वृद्ध बन्धु ने शिवरात्रि के दिन सोमनाथ मन्दिर में पूजा-अर्चना की और बाहर न जाकर हाथ जोड़कर श्रद्धान्वत वहीं खड़ा रहा। उस दिन वहां भीड़ अधिक होने व अव्यवस्था की आंशका के कारण पुजारी द्वारा उसे डांटने पर उसने कहा कि श्वह बहुत दूर से आया है, उसे खड़ा रहने दें। शायद् भगवान उसे दर्शन दे दें। यह सुनकर पुजारी क्रोधित होकर बोला कि श्हमें व हमारे पूवर्जो को वर्षो यहां पूजा कराते हो गये, हमें तो आज तक दर्शन दिये नहीं, तुझे क्या दर्शन देगें? हमारा अनुमान है कि आज तक किसी मूर्तिपूजक को ईश्वर के साक्षात दर्शन या साक्षात्कार नहीं हुआ है। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यदि किसी को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ हो तो वह योग साधना आदि कर्मो व साधनों से ही हुआ होगा। अत: मूर्तिपूजा निरर्थक सिद्ध होती है, निरर्थक इसलिए कि इससे उपासना व पूजा का मुख्य उद्देश्य “ईश्वर का साक्षात्कार” पूरा नहीं होता और उपासना से जो ईश्वरीय गुण, सदाचार अर्थात् आचरण की पूर्ण पवित्रता व शुद्धता, परोपकारिता, दया, करूणा, धैर्य आदि उपासक में आने चाहिये, उसके स्थान पर बुद्धि की जड़ता-मलिनता-अपवित्रता, सत्य का चिन्तन व विचार करने में असमर्थता, सत्य को स्वीकार न करना आदि जैसे गुण-अवगुण उपासक में आते हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती घर से निकलकर योगियों, संन्यासियों, विद्वानों की खोज करते हुए तथा उन्हें जो मिलता उससे योग व उपासना के साधन सीखते हुए आगे चलकर मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी गुरू विरजानन्द सरस्वती के अन्तेवासी शिष्य बने। लगभग ३ वर्षों में उन्होंने उनसे आर्ष व्याकरण व आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन पूरा किया। व्याकरण पढ़कर वह वेद व इतर वैदिक आर्ष ग्रन्थों के आशय, उद्देश्य, उनमें निहित सत्य व अन्यान्य विषयों को समझने की योग्यता उन्होंने प्राप्त की। वह जान गये कि मूर्तिपूजा, अवतारवाद, विभिन्न पौराणिक व्रतोपवास आदि अनार्ष व वेदविरूद्ध कमानुष्ठान से किसी आध्यात्मिक लाभ या लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती। इसके स्थान पर योग दर्शन के अनुसार साधना करने से ईश्वर का साक्षात्कार होता है। बुद्धि सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती है। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के अनेक रहस्यों का बोध होता है। ईश्वर साक्षात्कार की अवस्था आने पर सभी आत्मिक, मानसिक, बौद्धिक व शारीरिक क्लेश से मुक्ति मिलती है। ध्यान व समाधि में ईश्वर के सान्निध्य से आत्मा आनन्द की अनुभूति करता है। जिस प्रकार शीतल जल से स्नान करने पर शरीर की उष्णता समाप्त होती है, इसी प्रकार समाधि में ईश्वर से संयोग होने पर सभी दुर्गुण, दुव्र्यस्न और दु:ख दूर होकर आनन्द की प्राप्ति व ईश्वर के स्वरूप में एकाग्रता आती है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से आज तक सभी ज्ञानी व योगी मनुष्य विरक्त होकर ध्यान व समाधि द्वारा ईश्वरोपासना, जिसमें स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है, करते आये हैं। क्या यह सम्भव है कि जीवन भर स्तुति, प्रार्थना व उपासना के करने से यदि उन्हें इष्ट लक्ष्य, ईश्वर साक्षात्कार, दु:खों की निवृत्ति व आनन्द की प्राप्ति, न होती तो वह ईश्वर की उपासना का उपदेश करते, विविध ग्रन्थों की रचना कर इनके पक्ष में प्रमाण देते और उपनिषद जैसे उच्च आध्यात्मिक ग्रन्थों की भी रचना करते? विवेचना से यह सिद्ध है कि समाधि सिद्ध होने पर प्राप्त होने वाले लाभों का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था व समाधि की उपलब्धियां भी प्राप्त हुर्इं थीं। यही कारण है कि स्वामीजी ने गुरू विरजानन्द की कुटिया से विदा लेने पर १ वर्ष से अधिक आगरा में निवास किया व अपनी पहली पुस्तक सन्ध्या, ईश्वरोपासना पर ही लिखी। सन्ध्या क्या है, हमारे लिए सृष्टि की रचना करने व हमें मानव जन्म देने के लिए ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए की जाने वाली स्तुति, प्रार्थना व उपासना की विधि है जिसके सिद्ध होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। उन्होंने सन्ध्या में लिखा है कि श्हे ईश्वर दयानिधे, भवत्कृपया अनेन जपोपासनादि कर्मणा धर्मार्थ काम मोक्षाणाम् सद्य: सिद्धिर्भवनेन्। यह वाक्य और किसी पर चरितार्थ हो या न हो, परन्तु महर्षि दयानन्द पर पूर्णत: चरितार्थ हुआ था। हमें प्रतीत होता है कि यहां काम से अभिप्राय: समाधि में प्राप्त होने वाले ईश्वर के आनन्द से है और मोक्ष का अर्थ पूर्ण दु:खों की निवृत्ति है। इसके साथ ही मोक्ष का अर्थ जन्म-मरण से छूटना भी है जो कि उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें प्राप्त हुआ होगा, ऐसा अनुमान से कह सकते हैं। सन्ध्या का वैदिक जीवन पद्धति में शीर्षस्थ स्थान है। अन्य सभी कर्तव्य व कर्मकाण्ड सन्ध्या के पूरक है। सन्ध्याविहीन मनुष्य की नास्तिक संज्ञा है।
स्वामी दयानन्द जब अपने गुरू विरजानन्द की कुटिया से निकले तो उनके सामने संसार में आर्ष ज्ञान को प्रतिष्ठित करने का महान लक्ष्य व कार्य था। इसके लिए उन्होंने आगरा में एक वर्ष से अधिक अवधि तक रहकर अपनी योजना तैयार की। उन दिनों की परिस्थितियों के अनुसार इसके लिए उन्होंने मौखिक उपदेश, वार्तालाप, विचार-विनिमय, शका समाधान, शास्त्रार्थ व शास्त्र-चर्चा तथा ग्रन्थ लेखन को अपना साधन बनाया। आगरा से आरम्भ होकर जोधपुर में प्रचार करने व मृत्यु तक वह इन्हीं साधनों का भरपूर उपयोग करते रहे। उनके कार्यों में विरोधियों, पौराणिकों, विधर्मियों, विदेशी शासकों ने कठिनाईयां पैदा कीं। लगभग १७ बार उन्हें विष देकर उनकी जीवन लीला समाप्त करने का भी प्रयास किया गया परन्तु वह अपने जीवन की अन्तिम श्वांस तक डटे रहे और अविद्या व अज्ञान का नाश तथा विद्या की वृद्धि करने के लिए दृणता से वेदों का प्रचार करते रहे।

ऐसा देखा गया है कि कभी-कभी बुरे काम में भलाई या विष में से अमृत निकल आता है। महर्षि दयानन्द को शिवरात्रि की मिथ्या पूजा-उपासना से ही ईश्वर के शिव-स्वरूप को खोजने, उसे प्राप्त करने, बन्धनों व दु:खों से दूर होने की प्रेरणा व शिक्षा मिली थी। उन्होंने कालान्तर में ईश्वर के शिव अर्थात् कल्याणकारी स्वरूप को जाना तथा उसको प्राप्त करने की योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि द्वारा निर्मित उपासना पद्धति के ग्रन्थ योग दर्शन का अभ्यास कर स्वयं ईश्वर को प्राप्त किया। संसार के कल्याण की भावना से वेद व योग दर्शन के आधार पर एक संक्षिप्त लघु आर्ष ग्रन्थ पंचमहायज्ञ विधि के नाम से प्रकाशित कराया जिसमें प्रथम सन्ध्या की विधि दी गई है। वैदिक साहित्य में ईश्वरोपासना पर लिखा गया यह ग्रन्थ अन्यतम है। सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने लिखा है कि का’ाी के एक सुविख्यात पौराणिक विद्वान को जब यह सन्ध्या पद्धति दी गई तो उन्होंने अनेक वषों से की जाने वाली अपनी सन्ध्या को छोड़ कर इसे अपना लिया। बाद में जब पता चला कि यह तो स्वामी दयानन्द ने लिखी है तो वह हैरान हुए और पण्डितजी से पूछा कि क्या स्वामीजी इतने बड़े विद्वान थे? वह तो समझते थे कि स्वामी दयानन्द कोई अल्प ज्ञानी हैं व अनधिकार मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं। ईश्वर प्रदत्त पूर्ण सत्य वैदिक मत पर यूरोप, एशिया, अरब आदि विश्व के सभी भागों में बसे स्त्री-पुरूषों का समान व पूरा-पूरा अधिकार है। उन्हें उनका अधिकार दिलाने तथा वेदों का महत्व बताने के लिए, अपने प्राणों का मोह त्याग कर संसार के कल्याण की भावना से प्रत्येक मानव को ईश्वर का साक्षात-दर्शन कराने के लिये वह क्रुद्ध व हिंसक विरोधियों के बीच कूद पड़े।

हम समझते हैं कि स्वामीजी वेदों को ईश्वर से उत्पन्न आदि-ज्ञान, धर्म व आचरण का मूल धर्म-ग्रन्थ सिद्ध करने में पूर्ण सफल हुए हैं। यह वेद संसार के सभी धर्म-ग्रन्थों में अपूर्व, अग्रणीय व प्रमुख ज्ञान-कर्म-उपासना-विज्ञान के ग्रन्थ हैं। यह चार वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो सदैव एक समान रहता है। इसमें किसी प्रकार की भी अपूर्णता नहीं है। अज्ञानी मनुष्य उनके मिशन को समझ ही नहीं पाये तथा स्वार्थों व अविद्या से ग्रस्त शिक्षित मतावलम्बियों ने भी उनके भावों को समझने का प्रयास नहीं किया। वह सब अपने-अपने हवा-महल रूपी मत-मतान्तरों को बचाने में लगे रहे। आज संसार में तर्क, युक्ति व प्रमाण की कसौटी पर केवल वेद व उसकी मान्यतायें ही स्थिर हैं जिन्हें वेद-व्याकरण-निरूक्त-युक्ति व प्रमाणों के आधार महर्षि दयानन्द ने प्रस्तुत किया है। अत: स्वामी दयानन्द आज धर्म के सच्चे जिज्ञासुओं के यथार्थ समाधान के एकमात्र अधिकारी विद्वान के गौरवमय स्थान पर सुशोभित हैं। अन्य कोई महापुरूष या विद्वान उनकी स्थिति में नहीं है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, जन्म मरण से मुक्त है तथा उसका अवतार नहीं होता। न कोई उसका एकलौता पुत्र हुआ और न उसे अपने लिए किसी सन्देशवाहक की आवश्यकता पड़ती है। इस सम्बन्ध में जो बातें हैं, वह भोले धार्मिक लोगों में भ्रान्ति उत्पन्न करती हैं। सर्वशक्तिमान होने के कारण उसका एकमात्र पुत्र होना व अपने किसी सन्देशवाहक को भेजे जाने की मान्यतायें मिथ्या व असत्य सिद्ध होती हैं। स्तुति, प्रार्थना व उपासना एक प्रकार से यम-नियम का पालन, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान व समाधि को सिद्ध करना है जिससे उपासना की सफलता होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इसके साथ ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना से बुरे व पाप कर्मों का भविष्य के सन्दर्भ में क्षय होकर, मुक्ति, मोक्ष, जन्म-मरण से छुट्टी, सभी दु:खों की निवृति व ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होता है। लगभग ३११०.४० खरब वर्षों तक जन्म-मरण से मुक्त, पूर्ण आनन्द की अवस्था में रहकर मुक्त जीवात्मा पुन: मनुष्य जन्म पाता है। यह उपलब्धि जिज्ञासु, सत्यान्वेषी, धर्म प्रेमी, ईश्वर भक्त, सारे संसार को अपना परिवार समझने, मानने वाले सच्चे व सफल ईश्वरानुयायी, मुक्त जीवात्मा को प्राप्त होती है। आज महर्षि दयानन्द संसार में नहीं हैं, परन्तु वह अपने यश: शरीर से जीवित हैं। वह नि’िचत ही ईश्वर को प्राप्त हुए होगें और आज मोक्षावस्था में वह पूरे पृथिवी लोक का भ्रमण कर संसार के मनुष्यों की अवस्था को देखते होगें। आर्य समाज की वर्तमान स्थिति को देखकर उन्हें दु:ख भी अवश्य होता होगा। वह ईश्वर के जीव-कर्म-स्वातन्य सिद्धान्त को जानने के कारण ईश्वर को कुछ कह भी नहीं सकते। वह ईश्वर से केवल यही प्रार्थना करते होंगे कि आर्य समाजी व संसार के सभी सत्पुरूषों के हृदयों में सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग की निरन्तर प्रेरणा करते रहें, परन्तु यह मनुष्य सांसारिक सुखों से इतने अधिक आसक्त हैं कि अधिकांश मनुष्यों को सत्य-असत्य से कोई लेना-देना ही नहीं है। बहुत से लोग तो सत्य को जान लेने पर भी आसक्ति में फंसे होने के कारण कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं। देश में लगभग १ हजार वैदिक गुरूकुल होने पर भी हम विद्वान तो बहुत बना रहे हैं परन्तु गुरूकुल व आर्य समाज की सभी संस्थायें मिलकर भी अभी तक एक स्वामी दयानन्द नहीं बना सकीं। हम तो आज भी स्वप्न देखते हैं कि गुरूकुल का हर ब्रह्मचारी दयानन्द बनकर संसार से अज्ञान तिमिर का नाश करे। क्या वर्तमान या भविष्य में दयानन्द के समान ब्रह्मचारी, योगी, ईश्वर भक्त, विद्वान, ज्ञानी, ऋषि, मनीषी, मुनि, विश्व प्रेमी, वेदभक्त व वेदमाता का सच्चा पुत्र हममें से कोई बन सकेगा? दयानन्दसम बनना ही संसार भर में मनुष्य जीवन का एक आदर्श लक्ष्य है।

वर्तमान काल को ज्ञान का युग भी कह सकते हैं। आज भारत में वर्ण व्यवस्था के विकृत रूप श्जन्म पर आधारित जाति व्यवस्थाश् की जो स्थिति है, वह देश व समाज के लिए अहितकर है। यद्यपि आजकल समाज में गुण-कर्म-स्वभाव प्रधान प्रेम विवाह भी हो रहे हैं परन्तु आज जातिवाद की जड़े स्वामी दयानन्द के समय की ही भांति समाप्त होने के स्थान पर दृण व गहरी हुई प्रतीत होती हैं। हमें अपने क्षेत्र व आसपास स्वयं को ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य कहने व कहलाने वालें बन्धुओं को मांसाहार, मदिरापान, अण्डे व सिगरेट आदि के सेवन में लिप्त देखकर आश्चर्य होता है। क्षत्रिय व वैश्यों का स्थान तो वरिष्ठता में दूसरा व तीसरा है पर जब स्वयं को प्रथम स्थान पर मानने वाले ब्राह्मण ही, ब्रह्म ईश्वर में सतत् विचरण करने वाले ही, मांसाहारी, मद्यपायी, अभक्ष्य-भक्षी हों, ऐसे समाज में वैदिक क्रान्ति का सफल होना अत्यन्त कठिन है। वैदिक विचारधारा का महत्व प्रतिपादित कर आज सन्ध्या, यज्ञ, माता-पिता-आचार्य-वृद्धों का सम्मान-सत्कार-सेवा-आज्ञापालन, गोरक्षा व हिन्दी रक्षा के पक्ष में तथा मांसाहार, मद्यपान, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मत-मतान्तर, जन्मजाति के विरूद्ध जन आन्दोलन व अभियान चलाया जाना चाहिये। आध्यात्मिक व सामाजिक क्रान्ति के बिना देश बदलेगा नहीं। हमें यह समझना है कि आर्य समाज कोई सन्ध्या, हवन, सत्संग या वार्षिकोत्सव करने-कराने वाली संस्था मात्र नहीं है अपितु आर्य समाज एक अग्निमय आन्दोलन है जिसका उद्देश्य सत्य-वैज्ञानिक वैदिक विचारधारा का सर्वत्र प्रचार-प्रसार व व्यवहार तथा वैदिक मान्यताओं की विश्व स्तर पर स्वीकारोक्ति के उद्देश्य की प्राप्ति तक सतत् संघर्ष कर समाज में क्रान्ति करना है। आर्य समाज के विद्वानों, नेताओं अधिकारियों व सदस्यों को यह बात सदैव ध्यान में रखनी योग्य है।

ऋषि दयानन्द ने योगाभ्यास एवं वेद विद्या की प्राप्ति में नानाविध तप किया, कष्ट सहे, समाधि के सुख को छोड़कर वेदों के प्रचार व सत्य के ग्रहण करने-कराने में प्रशसनीय कार्य किया, अपमान व विरोध सहा तथा अनेकों बार विषपान किया। देश व समाज के लिए इतना कुछ करने पर भी उन्हें सम्मान मिलने के स्थान पर अपनों ने एक प्रकार से विष ही परोसा। उन्होंने विश्व, देश व समाज की भलाई के लिए आर्य समाज की स्थापना, सत्य ज्ञान से पूर्ण वेदों का प्रचार, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का प्रणयन, ऋग्वेद का आंशिक तथा यजुर्वेद का पूर्ण वेद-भाष्य, शास्त्रार्थ, देश-देशान्तर में सत्य व वैदिक मान्यताओं का प्रचार, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन, लेखन, उपदेश, प्रवचन, पत्रव्यवहार, श्यामजी कृष्ण वर्मा को इंग्लैण्ड भेजकर वेद प्रचारार्थ विदेशी प्राच्य विद्याविद्यालयों को आर्यमत के यथार्थ स्वरूप का बोध कराने की प्रेरणा व प्रयत्न, भारतीय युवकों को प्राद्योगिकी के प्रशिक्षण के लिए जर्मनी भेजने का सक्रिय प्रयास आदि कार्य देश, समाज व संसार के सभी लोगों के लिए अमृत के समान हैं। उन्होंने ही ईश्वर की उपासना के फल धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का उल्लेख कर सभी मनुष्यों को समस्त दु:खों से छुड़ाकर इसके साथ ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्षों तक मोक्ष में रहते हुए ईश्वर के सान्निध्य व आनन्द में बिताने के साधन भी बताये। यह सब एक प्रकार से उनके द्वारा संसार के प्रत्येक मनुष्य को अमृत पान कराने के समान उनके श्रेष्ठ उपकार हैं। हम समझते हैं कि आज विश्व की जनसंख्या लगभग ७ अरब के बराबर है। अभी सृष्टि की शेष अवधि २.३४ अरब वर्ष है। इस अवधि में हमारी गणना के अनुसार न्यूनतम ६५,५२,००,००० अरब लोग जन्म लेगें व मृत्यु को प्राप्त होगें। उनके द्वारा अन्वेषित-प्रदत्त कर्मफल सिद्धान्त, सत्य वैदिक धर्म के अनुसार जीवनयापन व जन्म-मरण के दु:ख से छूटकर मोक्ष प्राप्ति के उपायों को करके सभी लोग लाभान्वित व कुछ सफल भी हो सकते हैं जिसका श्रेय स्वामी दयानन्द को होगा। यही नहीं उनके द्वारा प्रचारित सिद्धान्तो से संसार को स्वर्ग भी बनाया जा सकता है। इसके लिए सारे संसार के लोगों से वेद मत को स्वीकार कराकर उसके अनुसार सर्वत्र वेदानुसार शासन व्यवस्था को व्यवहारिक रूप देना है। यह कार्य असम्भव नहीं है। यह कार्य तो ईश्वर का कार्य है। महाभारत काल तक जिस प्रकार से सारे संसार में केवल एक वैदिक मत था उसी प्रकार भविष्य में भी हो सकता है। हमें बस अपने कर्तव्य व दायित्व को जानकर उसका निष्ठा से पालन करना है। महर्षि दयानन्द इस कार्य के लिए शैक्षिक व वैचारिक आधार तैयार कर गये हैं। देखना यह है कि यह सृष्टि की शेष अवधि २.३४ अरब वर्षो में कब पूरा होता है। यदि यह कार्य पूरा होगा तो मनुष्यों व जीवात्माओं के लिए जन्म-जन्मान्तरों तक दु:खों से निवृत्ति व मोक्ष का मार्ग खुलेगा। यदि किसी कारण से नहीं होता तो वर्तमान में वह मार्ग बन्द तो है ही, आगे भी बन्द रहेगा। महर्षि दयानन्द को उनके बोध दिवस व शिवरात्रि पर हमारी यह शब्दमय श्रद्धांजलि प्रस्तुत हैं। हम उनके स्वप्नों के साकार होने की ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ईश्वर उपासकों की पुरूषार्थ से पूर्ण सच्ची प्रार्थनायें स्वीकार करता है, शायद यह प्रार्थना भी कर ले।

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