पेड न्यूज और मीडिया मानदण्ड

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प्रमोद भार्गव

चुनाव आयोग ने पैसे लेकर खबर छापने के एक मामले में एक बड़ी और जरुरी कार्रवाई करते हुए ऐतिहासिक फैसले को अंजाम तक पहुंचाया है। उत्तर प्रदेश के बिसौली विधानसभा क्षेत्र की विधायक श्रीमति उर्मिलेश यादव पर तीन साल के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। पेड न्यूज मामले में आरोप सिध्द हो जाने के बाद अब श्रीमती यादव 19 अक्टूबर 2014 तक कोई चुनाव नहीं लड़ पाएंगी। जाहिर है, वे 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से भी वंचित रहेंगी। निर्वाचन आयोग ने तो अपनी जवाबदेही का निर्वहन करते हुए प्रत्याशी के विरुध्द न्यायिक कार्रवाई कर दी। किंतु उस प्रिंट अथवा इलेक्टोनिक मीडिया के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, जिसने पेड न्यूज का सुर अलाप कर अपने पेशे के प्रति तो विश्वासघात किया ही, संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व नैतिक आचार संहिता के साथ भी मर्यादाहीन आचारण अपनाया, लिहाजा जरुरी है मीडिया को भी कानून के दायरे में लाकर आरोप तय होने पर दंडित करने के मानदण्ड निर्धारित हों।

पेड न्यूज के खिलाफ पहली आवाज जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी ने बुलंद की थी। उन्होंने इस अनैतिक गतिविधि को रोकने के लिए स्वयं भारतीय प्रेस परिषद् और चुनाव आयोग से संपर्क कर शिकायत दर्ज करके अपील की कि वे पेड न्यूज के खिलाफ कठोर कार्रवाई करें। उन्होंने बड़े मीडिया घरानों द्वारा पैकेज के रुप में मोटी रकम लेकर कुछ दलों और उम्मीदवारों के पक्ष में सुनियोजित ढंग से छापे गए समाचारों के अभिलेखीय साक्ष्य भी प्रस्तुत किए थे।

एडीटर गिल्ड और वीमेंस प्रेस क्लब द्वारा 2010 में आयोजित एक परिचर्चा में संसद में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी हुंकार भरी थी कि हम उन मीडिया संस्थानों के नाम सार्वजनिक करने को तैयार हैं, जो पैसे लेकर समाचार बेचते हैं। ठोस कार्रवाई का आश्वासन मिलने पर सबूत भी देने की बात भी उन्होंने कही थी। इसी प्रसंग में उन्होंने यह भी कहा था, विदिशा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए एक चैनल द्वारा उनसे एक करोड़ रुपये की मांग की गई थी।

पेड न्यूज से जुड़े मामलों पर अब अदालतें भी गंभीर और कड़ा रुख अपना रही हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण द्वारा साल 2009 में हुए विधानसभा चुनावों में विज्ञापन पर किए खर्च पर कई सवाल उठे। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो इस मसले पर मीडिया और राजनीतिक दलों की कड़े शब्दों में निंदा की। किंतु जिन अखबारों ने अशोक चव्हाण को उछाला, उनके संपादकों ने प्रकाशित सामग्री को पेड न्यूज मानने से ही इंकार कर दिया और अपना पक्ष सिध्द करने के लिए अनेक कुतर्क भी गढ़े।

एक अखबार में 30 नवम्बर 2009 को प्रकाशित खबर के अनुसार अशोक चव्हाण द्वारा चुनाव के बाद प्रस्तुत किए अपने खर्चे के हिसाब में बताया था कि उन्होंने प्रिंट मीडिया में दिए विज्ञापनों पर केवल 5379 रुपये और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर महज 6000 रुपये खर्च किए। लेकिन चुनाव अभियान के दौरान चव्हाण को अखबारों में जो स्थान मिला, उसके आधार पर विज्ञापन खर्च के ये आंकड़े तथ्यहीन साबित हुए। ‘द हिंदू’ के ग्रामीण विकास से जुड़े मामलों के संपादक पी साईनाथ द्वारा लिखी इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चुनाव अभियान के दौरान विभिन्न अखबारों में कुल 47 संपूर्ण पृष्ठों में कवेरज अशोक चव्हाण को मिला। यही नहीं अशोक ने भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा उन पर उठाए गए सवालों पर आपत्ति जताते हुए आयोग के सच और झूठ की तह तक जाने के अधिकार को भी चुनौती दी थी। लेकिन सामने आए तथ्यों व दस्तावेजो को लेकर आयोग गंभीर है और उम्मीद जताई जा रही है कि अशोक चव्हाण पर जल्द ही उर्मिलेश यादव जैसी कार्रवाई आदेशित होगी। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर इसी प्रकृति की कार्रवाई निर्वाचन आयोग में लंबित है।

चुनाव संबंधी हिसाब-किताब के इन लचर तथ्यों से साबित होता है कि पेड न्यूज का अवैध कारोबार बड़े स्तर पर फल-फूल रहा है। दरअसल समाचार-पत्र, पत्रिका में प्रकाशित अथवा इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से प्रसारित वह समाचार, आलेख और फुटेज ‘भुगतान समाचार’ के दायरे में आते हैं, जिनके लिए प्रत्याशी अथवा राजनीतिक दलों ने मीडिया संस्थानों को समाचार के बदले धनराशि का भुगतान किया हो। ये खबरें प्रत्याशी अथवा दल की उपलब्धियों का एक प्रकार के विज्ञापन-प्रारुप में होने की बजाए समाचार के प्रारुप में होते हैं, इसलिए विज्ञापन की श्रेणी में नहीं आते। इसके ऐवज में वसूली जाने वाली धनराशि का भुगतान भी नगदी के रुप में होता है। लिहाजा इस समाचार बनाम विज्ञापन का हिसाब भी जिला निर्वाचन अधिकारी को नहीं सौंपा जाता। यह विज्ञापननुमा समाचार हकीकत पर पर्दा डालने का काम करता है। इससे प्रत्याशी व दल की सही तस्वीर मतदाताओं के समक्ष पेश नहीं हो पाती। यह स्थिति एक साथ लोकतंत्र, राजनीतिक दल और पत्रकारिता को हानि पहुंचाने वाली है। इसलिए जरुरी है कि चौथा स्तंभ अनैतिक गतिविधियों से बाहर रहे।

पेड न्यूज नकदी अथवा उपहार लेकर समाचार छापने की स्थिति अनैतिक और बेमेल व्यावसायिक गठबंधनों की देन है। दरअसल अब मीडिया घराने केवल समाचार व्यावसाय तक ही सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि इन्होंने अपने प्रभाव के चलते अपने व्यवसाय का विस्तार अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में किया है। वह भी ऐसे धंधों में, जिनमें धंधा कम गोरखधंधा ज्यादा है। इनमें रियल स्टेट शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, चिटफंड, बैंकिंग, यातायात जैसे कारोबारों समेत दो सौ ऐसे औद्योगिक क्षेत्र शामिल हैं, जिनमें मीडिया घरानों ने पूंजीनिवेश किया हुआ है। जब देश व राज्यों में चुनाव का समय आता है तो ये अपने समाचार माध्यमों से कमाई का बकायदा जिला बार लक्ष्य निर्धारित कर देते हैंं। इस धन वसूली की जवाबदेही स्थानीय और आंचलिक संवाददाताओं व विज्ञापन प्रतिनिधियों के सुपुर्द कर दी जाती है। यह मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्याह पक्ष है, जो मीडिया को एकाधिकारी बनाता है। यदि लोकतंत्र में वास्तव में स्वतंत्र, पक्ष-निरपेक्ष और निर्भीक मीडिया की आवश्यकता है तो यह भी आवश्यक है एकाधिकार विरोधी कानून वजूद में आए, जिससे निरंकुशता की ओर बढ़ते जा रहे मीडिया पर अंकुश लगे।

यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि समाचार माध्यमों को सरकारी-गैर सरकारी विज्ञापनों के मार्फत जो पैसा मिलता है, अंतत: वह जनता की ही गाढ़ी व पसीने की कमाई से उत्सर्जित धन है। इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक को यह जानने का अधिकार है कि लोकप्रिय मीडिया क्या खेल, खेल रहा है और उसके अपने क्या-क्या निहत स्वार्थ हैं। पत्रकार पी. साईंनाथ ने ठीक ही कहा है कि ‘लोकप्रिय मीडिया पर प्रश्न चिन्ह खड़े करने और उससे मुकाबला करने का अधिकार हर देशवासी को है। मीडिया से प्रतिरोध करने की उसकी और ताकत बढ़नी चाहिए।

वैसे भी जब पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी, तब और बात थी, किंतु इधर भूमण्डलीय दौर में पत्रकारिता जैसे-जैसे मुनाफा कमाने के व्यवसाय का हिस्सा बनती चली आई है, उस परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता का काम व्यापारिक प्रक्रिया ज्यादा बन गई है। इसलिए जरुरी है कुछ नए मानदण्ड निर्धारित करके एक नई आचार संहिता सामने लाई जाए। मीडिया पर नियंत्रण का काम भारतीय प्रेस परिषद् देखती है। इस संहिता में प्रिंट मीडिया पर लगाम लगाने के तो कुछ नियम-कायदे हैं भी, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया फिलहाल अछूता है। संहिता में जो देश-निर्देश हैं भी तो उनकी महत्ता व्यापक व सार्वजनिक जनहितों में अंतर्निहित है। इनमें सांप्रदायिक तनाव के वक्त सावधानी बरतने, हिंसा को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं दिखाने एवं किसी व्यक्ति की निजता में हस्तक्षेप न करने और आरोपी व्यक्ति का भी स्पष्टीकरण लेकर छापने की नसीहतें शामिल हैं। लेकिन हिंसा और सांप्रदायिकता जैसी घटनाओं की कोई हदें रेखांकित नहीं हैं, इसलिए सीमा के किस दायरे को उल्लंधन माना जाए यह पहचान करना ज्यादातर मामलों में नमुमकिन बना रह जाता है, लिहाजा आचार संहिता के उपायों की सार्थकता कागजी रह जाती है।

यह आचार संहिता जितनी भी है प्रिंट मीडिया के दायरे में परिभाषित है। समाज के प्रति जिम्मेबार और विवेकशील मुद्रित समाचार माध्यम इन संहिताओं का पालन भी करते हैं। लेकिन पिछले एक दशक में तेजी से उभरकर पूरे देश में छा जाने वाला इलेक्ट्रोनिक मीडिया इस दायरे से कमोबेश बाहर ही है। इसलिए प्रेस परिषद की मंशा है कि उसके कार्यक्षेत्र में इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी आए। क्योंकि समाचार चैनल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और स्वायत्तता का तो खूब इस्तेमाल करते हैं, पर उतनी ही जिम्मेबारी से अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं करते। इस भूमिका का भी सरकार और परिषद् को अहसास तब हुआ है, जब एक अदना से सख्स, किंतु संकल्प के धनी, अण्णा हजारे ने एक चुनी हुई सरकार की नीतियों को रामलीला मैदान से चुनौती तो दी ही, संसद से भी ऊपर ‘जनता’ के होने का महिमामण्डन किया। देश के संपूर्ण मीडिया ने इस आंदोलन को अराजक व खतरनाक बताने की बजाए संसदीय राजनीति का विकल्प ही मान लिया। यही कारण है कि भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष व सेवानिवृत्ता न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने जब से परिषद् का कामकाज संभाला है, तब से वर्तमान आचार संहिता में कुछ इस तरह से बदलने की कोशिशें तेज हो गई हैं जिससे परिषद् को सीधे मीडिया पर लगाम लगाने व दण्ड के अधिकार मिलें। इस रुप में आर्थिक दण्ड देने और विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाने की मांग काटजू पुरजोरी से उठा रहे हैं। अभी तक प्रेस परिषद् पत्र संपादक और मालिक की केवल निंदा कर सकती है,। किसी रुप में उसे दंडित करने का कोई हक नहीं है। बल्कि परिषद् के अब तक के कार्य की भूमिका का बड़ा हिस्सा पत्रकार की प्रशासन से जुड़ी प्रताड़ना संबंधी मसलों से ही रहा है। मसलों से ही रहा है। समाचार माध्यमों को सुधारने से कोई वास्ता नहीं रहा है। हालांकि इसकी जरुरत अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद और 2002 में गुजरात दंगों के सामने आने से की जा रही हैं। अण्णा हजारे के आंदोलन ने इस सोच को और बल दिया है। इसलिए मार्कंडेय काटजू ने कुछ समय पूर्व कुछ वरिष्ठ संपादकों से बातचीत में कहा भी कि सरकार, निजी क्षेत्र और बौध्दिक वर्ग में यह धारणा पुख्ता हो रही है कि मीडिया का एक हिस्सा जिम्मेबारी के तकाजे का उल्लंघन कर रहा है। घटनाओं को गलत व भ्रामक ढंग से तो वह प्रकाशित व प्रसारित कर ही रहा है, अतिरंजित व सनसनी के रुपों में भी पेश कर रहा है। लिहाजा इसे गंभीरता से लेने और दोषियों पर लगाम लगाने की जरुरत है। इसे कानूनी दायरे में लाने की दृष्टि से काटजू इस उक्ति को सार्थक बनाना चाहते हैं कि ‘भय बिन होय न प्रीत’। इस तर्ज पर परिषद् को कुछ ऐसी दाण्डिक शक्तियां मुहैया कराई जाएं, जिनके डर के चलते मीडिया संस्थान आचार संहिताओं का पालन करने को मजबूर हों। क्योंकि इसके बिना सनसनी और सस्ते मनोरंजन की प्रवृत्तिा थमने वाली नहीं है। वैसे भी काटजू अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता को राष्ट्रहित से बड़ा नहीं मानते। कुछ ऐसा ही आग्रह पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का है। उनका कहना है, भारतीय पत्रकारों की पहली निष्ठा देश व देश के लोगों के प्रति ही होना चाहिए।

इसीलिए काटजू, मीडिया, उचित लीक पर चले, इस नजरिए से दो जरह के उपाय सुझा रहे हैं। एक राय-मश्विरा अर्थात बातचीत के जरिये। इस तरीके को वे श्रेष्ठ व नरम बता रहे हैं। किंतु उनका दूसरा तरीका मीडिया पर सीधे-सीधे ठोस कानूनी उपाय थोप कर नियंत्रित करने का है। इनमें भारी अर्थ-दण्ड, सरकारी विज्ञापनों पर लगाम और लाइसेंस तक खारिज कर देने के उपाय-शामिल हैं। इसके पूर्व जब समाचार पत्र-पत्रिकाओं व एजेंसियों पर अंकुश की दृष्टि से आचार संहिता के सूत्र गढ़े गए थे, तब प्रेस और मानहानि विधेयकों का डर पैदा किया गया था। ये कानूनी उपाय प्रेस परिषद् की बजाए न्यायालयीन प्रक्रिया के अंतर्गत आते हैं। इसमें अदालत में निजी इस्तगासा दायर कर पक्षकार को अपनी हानि सिध्द करनी होती है। इन विधेयकों के कानूनी दायरे में अव्वल तो पत्रकार, संपादक, प्रकाशक अथवा मालिक बमुश्किल से आते हैं, आ भी जाते हैं तो मामला इतना लंबा खिंचता है कि समझौते की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। गवाह भी अकसर जबाव दे जाते हैं। मानहानि सिध्द होती भी है तो, अदालत सजा के रुप में या तो पत्रकार की निंदा करती है या समाचार-पत्र, पत्रिका मूल समाचार का खण्डन छापने का आदेश दे देती है या अथवा दोषी को अदालत की छुट्टी होने तक अदालत के ही कठघरे में खड़े रहने का दण्ड सुना देती है। लिहाजा कानून के जरिये पत्रकार पर नकेल कसने के कोई अर्थ नहीं निकल पा रहे हैं, इसलिए सरकार सुविधाओं से वंचित करने के उपायों को कानूनी जामा पहनाने के रास्ते तलाश रही है।

सरकार को यह करना तो मुश्किल है कि वह मीडिया को कानूनी डंडे से हांक ले जाए,लेकिन मीडिया के दायित्व सुनिश्ति हों इस हेतु एक ऐसी आचार संहिता की तो जरुरत है जो प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया को नियंत्रित व मर्यादित बनाए रखे। क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया अनर्गल मुद्दों को लेकर अतिरंजना का शिकार हो रहा है। टीआरपी की होड़ ने भी उसे अतिवाद की खाई में धकेला है। आज संपूर्ण मीडिया से ग्राम, कृषि और श्रम का कवरेज बाहर हो गया है। इस स्थिति ने देश की उस सत्तार फीसदी आबादी का मीडिया में दखल बंद कर दिया है जो ग्राम आंचलिकता पर आश्रित है। तमाम सरकारी योजनाएं ग्रामीण विकास से जुड़ी होने के बावजूद यह आबादी न्यूनतम आय की ओर बढ़ रही है। जबकि धार्मिक पाखण्ड, भूत-प्रेत, भूमिगत-माफिया और प्रलय का भय जैसे समाचार दिखाए जाने का दायरा लगातार विस्तार पा रहा है। नैतिक आचरण की संहिता की लक्ष्मण रेखा लांघने वाले ऐसे बेहूदे समाचार निश्चित ही समाज को जीवंत व जागरुक बनाए रखने का काम नहीं करते। लिहाजा अगर मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रति जागरुक है तो जरुरी है वह अपने और राष्ट के प्रति भी संवेदनशील और जागरुक हो, अन्यथा मीडिया अव्यवस्था और अराजकता की स्थितियों को बढ़ावा देने का कारक भी साबित होता रहेगा।

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  1. गुजरात समाचार ने– नरेंद्र मोदी से समाचार छापने के लिए, चुनाव के समय भारी धन की मांग की थी।
    मोदी ने कहा था, जिस दिन वे भ्रष्टाचार से धन पाएंगे, पूरा का पूरा गुजरात समाचार को समर्पित करेंगे।
    साथ में मोदी जी ने (चुनाव के पहले)एक रविवार के गुजरात समाचार के अंक के बिचो-बिच (केंद्रीय पृष्ठ के स्थान पर) बिलकुल गुजरात समाचार जैसी ही छपाई के, चार पन्ने डाल कर सारे वितरकों से वितरित करवाए थे। इस केंद्रीय पृष्ठों पर उसी ढंगसे नाम दिया था, “सत्य गुजरात समाचार”।
    वो तो मोदी जी का प्रामाणिक व्यक्तित्व था, जो उन्हें उस समय जिता पाया था (हमेशा ऐसा नहीं होता)।अनैतिक रास्ते बहुत होते हैं।
    और कांग्रेस ने सारे अनैतिक तरिके अपनाए थे। यह बडा कठिन चुनाव था, और हार की आशंका भी, (मुझे भी)बहुतेरे लोगों को थी।
    बहुत बडी मात्रा में मिडिया का भ्रष्टाचार हुआ था। श्रीमान चावला(चुनाव आयोग) जी ने भी एक साक्षात्कार में ऐसे अनेक अनुभव व्यक्त किए थे।
    पहला पन्ना बडे दाम पर बिका था।
    आप की अच्छी खबर, साथ में प्रतिपक्ष की बुरी खबर। बिलकुल चुनाव के अगले दिन छपती थी।
    शत्रु की अच्छी खबर को बुरी तरह से प्रस्तुत करने का तरिका, किसी भी सामान्य ज्ञान रखने वाले को कुछ सोचने पर पता चल जाता था।

    कहीं पर किंतु, परन्तु, डाला जाता था। कहीं पर उन्हींकी पार्टीकी प्रतिस्पर्धा उकसाई जाती थी।
    अडवानी का, या अटलजी का कोइ पुराना अनुचित कथन ढूंढ कर टिप्पणी दी जाती थी।
    मिडिया बिका था, इसी लिए यह भ्रष्ट शासन दिल्लीमें बैठकर देश को गर्त में धकेल रहा है।
    मिडीया इस काले कृत्यका उत्तरदायी है।
    सारे समाचार पत्र बिके हुए हैं। अभी भी कुछ अंतर नहीं आया है। भारत का कल्याण होने की उम्मीद अभी भी विशेष नहीं है। अकेला प्रवक्ता क्या करेगा?

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