पाकिस्तान- पिछली कांग्रेसी सरकार- 18 महीने- नौ शर्मनाक घटनाएं

-प्रवीण गुगनानी-

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री पद के शपथ कार्यक्रम के लिए जब पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ को न्यौता दिया तब इस पहल के बहुत से अर्थ अनर्थ निकालें जानें लगे. मीडिया, राजनीतिज्ञ, रक्षा विशेषज्ञ, आम नागरिक सभी का ध्यान इस ओर आकृष्ट भी हुआ किन्तु आश्चर्य किसी को भी नहीं हुआ क्योंकि जिस आक्रामक और डामिनेटिंग शैली के राजनीतिज्ञ नरेन्द्र मोदी है उसमें ऐसी बहुत सी हैरतअंगेज कार्यवाहियां और कदम संभावित ही नहीं अपितु स्वाभाविक ही लगते हैं. नमो की कार्यशैली को तनिक सा भी समझनें वालें जानकारों को तुरंत ही लगा कि नमो ने नवाज को शपथ ग्रहण के कार्यक्रम में बुलाकर अपना गुगली पासा फेंक दिया है. वैश्विक राजनीति में भारत-पाक संबंधों के मंच पर नमो ने मात्र इस एक कदम से लम्बी मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल कर ली है जो भविष्य में एक लम्बी उपलब्धि कारक पारी को जन्म देती दिखाई देगी! नरेन्द्र मोदी जनता से स्पष्ट बहुमत लेकर प्रधानमंत्री बन रहे हैं, उनकी राष्ट्रवाद के प्रति वैचारिक दृढ़ता को भारत के नागरिक अनेक अवसरों पर परख चुके हैं, यदि वे अपनी शैली से कोई काम कर रहे हैं तो राजनैतिक दलों को चाहिए कि वे राष्ट्रीय भावना से प्रधानमंत्री के प्रयासों के पीछे खड़े रहे अन्यथा कम से कम गरिमा से आलोचना के किसी सच्चे अवसर की चुपचाप प्रतीक्षा करें!

नरेन्द्र मोदी की इस गुगली पहल की आलोचना भी बहुत हुई जो स्वाभाविक ही है. पाक के प्रति आशंकाएं और उसके आचरण के प्रति अविश्वास स्वाभाविक ही है, किन्तु आश्चर्य तब हुआ जब कुछ कांग्रेसी नेताओं ने नवाज शरीफ को बुलाये जाने को लेकर बिरयानी प्रकार के व्यक्तव्य दिए और इस नमो की इस राष्ट्रवादी गुगली के प्रति आशंकाएं प्रकट की, ऐसा नहीं है की कांग्रेसी और अन्य विपक्षी नेता इस गूगली पहल से भारत को मिल रही मनोवैज्ञानिक बढ़त को समझ नहीं पा रहें हैं! निस्संदेह विपक्षी समझ रहे हैं, किन्तु वे आलोचना के इस पहलेपहल मिले अवसर को चूकना नहीं चाहते भले ही इसके लिए इतिहास या भविष्य उन्हें उपहास की दृष्टि से देख रहा हो!

मुझे स्मरण है और नरेन्द्र मोदी सहित पूरे राष्ट्र को भी स्मृति में रहता है कि पाकिस्तान के साथ सम्बंधों के सन्दर्भ में हम शिमला समझौते की बात करें, या इसके बाद इसी विषय पर जारी घोषणा पत्र पर पाकिस्तानी धोखे की बात करें, सेना के पुरुषार्थ से जीते हुए युद्धों को टेबल टाक से पराजय में बदल देने के अवसरों की बात करें, या साठ के दशक में पाकिस्तानी सैन्य अभियानों के साथ साथ कश्मीर से छेड़छाड़ के दुष्प्रयासों की बात करें, या 2003 के युद्ध विराम की बात करें, या संसद पर हमले और मुंबई के धमाकों को याद करें, या हमारे दो सैनिकों की ह्त्या कर उनकी सर कटी लाश हमें देनें के दुस्साहस की बात करें, या इस परिप्रेक्ष्य में हुए कितने ही पाकिस्तानी घातों और भारतीय अभियानों की बात करें तो हमारे पास केवल धोखें खाने और चुप्पी रख लेने का बेशर्म इतिहास ही तो बचता है! कांग्रेस की पाकिस्तान के विषय में जो मुस्लिमों को संतुष्ट करने वाली लल्लू विदेश नीति रही है, उसने हमें नीचे देखने के अलावा दिया ही क्या है?

पिछली कांग्रेसी सरकार के पूरे दशक भर की नहीं, बल्कि हाल ही के पिछले अट्ठारह माह में की गई गलतियों या चुप्पियों की चर्चा हम करें तो सर शर्म से झुक जाता है. इन शर्मनाक घटनाओं का विस्तार से उल्लेख केवल कांग्रेस की लानत मलामत के लिए नहीं कर रहा बल्कि इसलिए कर रहा हूं कि प्रधानमन्त्री मोदी इन घटनाओं के दर्पण में पाक नीति को आकार दें और यथोचित हिसाब किताब भी लिख लें. आज जो कांग्रेसी या अन्य विपक्षी नेता नवाज शरीफ को दिए गए न्यौते की आलोचना कर रहे है, वे ज़रा इन घटनाओं पर विचार करें और इनसे उपजे प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास तो करें-

सितम्बर, 12 – हमारे विदेश मंत्री पहुंच गए थे। भारत को नासूर देने वाले लाहौर के स्थान मीनार-ए-पाकिस्तान पर

हमारे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा पाकिस्तानी प्रवास के दौरान मीनार-ए-पाकिस्तान पर तफरीह के लिए पहुंच गए थे. यही वह स्थान है जहां 1940 में पृथक पाकिस्तान जैसा देशद्रोही, भारत विभाजक प्रस्ताव पारित हुआ था. एक देश का भाषण दूसरे देश में भूल से पढ़कर भद्द पिटवाने वाले हमारे विदेश मंत्री कृष्णा जी को और उनके स्टाफ को यह पता होना चाहिए था कि द्विराष्ट्र के बीजारोपण करने वाले इस स्थान पर उनके जाने से राष्ट्र के दो टुकड़े हो जाने की हम भारतीयों की पीड़ा बढ़ जायेगी और हमारे राष्ट्रीय घांव हरे हो जायेंगे. देशवासियों की भावनाओं का ध्यान हमारे विदेश मंत्री कृष्ण को होना ही चाहिए था, जो अंततः उन्हें नहीं रहा और पाकिस्तान ने उन्हें कूटनीतिपूर्वक इस स्थान पर ले जाकर हमें इतिहास न पढ़ने न स्मरण रखने वाले राष्ट्र का तमगा दे डाला. हमारें विदेश मंत्री को ध्यान रखना चाहिए कि भारत-पाकिस्तान के परस्पर सम्बंध कोई अन्य दो सामान्य राष्ट्रों के परस्पर सम्बंधों जैसे नहीं हैं; हमारी बहुत सी नसें किसी पाकिस्तानी हवा के भी छू भर लेने से हमें ह्रदय विदारक कष्ट दे सकती है या हमारें स्वाभिमान को तार तार कर सकती है! हैरानी है कि इस बात को हमारा गली मोहल्ले में क्रिकेट खेलने वाला नौनिहाल जानता है, उसे तथाकथित विद्वान विदेश मंत्री एसएम कृष्णा नहीं समझ पाए थे.

अक्तूबर, 12 – चीनी ने पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर का अधिग्रहण किया था तब भारत रहा चुप –

चीन और पाकिस्तान के सामने जिस प्रकार भारतीय विदेश और रक्षा नीति विफल रही है वह बेहद शर्मनाक था. इस दोनों देशों का कूटनीतिक समन्वय तोड़ना भी भारत की प्राथमिकता में होना चाहिए था जो भारत के एजेंडे में कभी रहा ही नहीं. पाक स्थित ग्वादर बंदरगाह के चीनियों द्वारा अधिग्रहण और उसकी विशाल विकास योजनाओं के समाचारों की पुष्टि से भारत को सचेत होना चाहिए था किन्तु भारत ने वैश्विक स्तर पर और चीन के सामनें व्यवस्थित विरोध प्रकट नहीं किया. चीन के साथ हो रहे ७० अरब डॉलर के व्यापार का संतुलन पचास अरब डालर घाटे का है, अर्थात हम चीन को पचास अरब डॉलर के आयत के सामने मात्र २० अरब डॉलर का ही निर्यात कर पाते हैं। अर्थ स्पष्ट है कि चीन को हमारी अधिक आवश्यकता है– किन्तु इस तथ्य का भी हम लाभ नहीं उठा पाये हैं.

नवम्बर, 12: पाकिस्तानी आतंकवादियों से हमारा भारतीय दुखी-परेशान था तब गृह मंत्री सुशिल शिंदे ने कहा अतीत भूलो क्रिकेट खेलो.

जब पूरा भारत पाक के विरुद्ध उबल रहा था, हमारी सेनायें संघर्ष कर रही थी, पाक प्रशिक्षित आतंकवादी पूरे देश में ग़दर कर रहे थे और सामान्य जनता पाक में हो रहे हिन्दुओं पर अत्याचारों के कारण उससे घृणा कर रही थी और पाक के साथ आर-पार के मूड में थी न कि क्रिकेट खेलने के तब हमारें गृहमंत्री ने बयान दिया कि हमारे देश को अतीत को भूल कर पाक के साथ क्रिकेट खेलना चाहिए! पाकिस्तान से क्रिकेट खेलने के लिए भारत की जनता को सार्वजनिक रूप से यह बयान देते समय शिंदे जी लगता है सचमुच भारत के प्रति पाकिस्तान की कड़वाहट, अपमान और छदम कारस्तानियों को भूल गएँ थे. भारतीय गणराज्य के केन्द्रीय गृहमंत्री होने के नाते यह निकृष्ट सलाह देते समय शिंदे जी को एक आम भारतीय के इस प्रश्न का जवाब देते न बना था कि “भारत पाकिस्तान सम्बन्धों के सबसे ताजा कुछ महीनों पहले के उस प्रसंग को हम कैसे भूल जाएं जिसमें पाकिस्तान की खूबसूरत विदेशमंत्री हिना की जुबान पर यह धोखे से सच आ गया था कि “आतंकवाद पाकिस्तान का अतीत का मंत्र था, आतंकवाद भविष्य का मंत्र नहीं है”. अनजाने ही सही पर यह कड़वा और बदसूरत सच हिना रब्बानी की हसीं जुबां पर आ ही गया था और पाकिस्तानी कूटनीतिज्ञों ने भी इस धोखे से निकल पड़े इस बयान को लेकर अन्दरखाने हिना की लानत मलामत भी की थी. तब इस बात को देशवासी तो अवश्य याद कर रहे थे और गृहमंत्री जी से भी आग्रह कर रहे थे कि भले ही ये सभी कुछ आप भूल जाएं और खूब मन ध्यान से क्रिकेट खेलें और खिलाएं किन्तु ऐसा परामर्श कहीं भूल से भी देश के रक्षामंत्री को न दे बैठें, नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा!

तब भारतीय अवाम ने सुशील शिंदे से यह पूछा था कि पाकिस्तानी धन बल और मदद से कश्मिर में विध्वंस कर रहे अलगाववादी संगठन अहले हदीस के हुर्रियत और आईएसआई से सम्बन्ध और इसकी 600 मस्जिदों और 120 मदरसो से पूरी घाटी में अलगाव फैलाने की बात तो हमारा अतीत नहीं वर्तमान है तो अब क्या हमें क्रिकेट खेलने के लिए वर्तमान से भी आंखें चुराना होगी? क्रिकेट की थोथी खुमारी के लिए क्या हम वास्तविकताओं से मुंह मोड़ कर शुतुरमुर्ग की भांति रेत में सर छुपा लें ? कश्मीर की शांत और सुरम्य घाटी में युवकों की मानसिकता को जहरीला किसना बनाया? किसने इनके हाथों में पुस्तकों की जगह अत्याधुनिक हथियार दिए है ? किसने इस घाटी को अशांति और संघर्ष के अनहद तूफ़ान में ठेल दिया है ? इस चुनौतीपूर्ण वर्तमान को हम भूल जाएं तो कैसे और उस षड्यंत्रों से भरे अतीत को छोड़ें तो कैसे शिंदे जी जिसमें अन्तराष्ट्रीय मंचों से लेकर भारत के कण कण पर कश्मीर के विभाजन, कब्जे और आक्रमण की इबारत पाकिस्तान ने लिख रखी है ? दिल्ली, मेरठ और लखनऊ की गलियों में ठेला चलाते और निर्धनतापूर्ण जीवन जीते उन निर्वासित कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को हम कैसे भूलें जो करोड़ों अरबों रूपये वार्षिक की उपज उपजाने वाले केसर खेतों के मालिक थे ? तब देश की आत्मा ने शिंदे से यही और केवल यही कहा था कि शिंदे जी हम अतीत और वर्तमान की हमारी छलनी, रक्त रिसती और वेदना भरी राष्ट्रीय पदेलियों के घावों को भूलना नहीं बल्कि उन्हें देखते रहना और ठीक करना चाहते हैं और आपको भी इस राष्ट्र की इस आम राय से हम राय हो जाना चाहिए! कृपया इतिहास को न केवल स्मृतियों में ताजा रखें बल्कि उसे और अच्छे और प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध करें!

दिसंबर, 2012 – पाक गृहमंत्री ने भारत आकर अनाधिकृत और अनावश्यक छेड़ा संवेदनशील मुद्दों को, और हम चुप रहे-

भारत यात्रा पर आये पाकिस्तानी गृह मंत्री रहमान मलिक ने विवाद उत्पन्न करने की शैतानी मानसिकता से भारत आकर कहा था कि “26/11 हमलों में शामिल होने का आरोप झेल रहे हाफ़िज़ सईद के खिलाफ, चरमपंथी अजमल कसाब के बयान के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती.” पूरे देश को हैरानी में डालते हुए हमारे विदेश, गृह, रक्षा और प्रधानमन्त्री ने इस मुद्दे पर लगभग चुप्पी बनाए रखी थी. तब उलझाने वाले बयानों को जारी करने के मिशन पर ही आये रहमान मालिक ने 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया को जेनेवा नियमों के विरूद्ध यातनापूर्ण और पाशविक ढंग से मार दिए जाने पर कहा, “मैं नहीं कह सकता कि सौरभ कालिया की मौत पाकिस्तानी सेना की गोलियों से हुई थी या वो खराब मौसम का शिकार हुए थे.” तब भारतीय गृहमंत्री सुशिल शिंदे द्वारा यह बात दृढ़तापूर्वक बताई जानी चाहिए थी कि ख़राब मौसम से सौरभ कालिया की आंखें बाहर नहीं निकल सकती थी और न ही सौरभ कालिया के शारीर पर सिगरेट से से दागे जाने के निशान खराब मौसम के कारण आ सकते थे! किन्तु भारतीय राजनय और अन्य सभी चुप ही रहे थे.

आगे चलें तो इस प्रवास में ही पाकिस्तानी गृहमंत्री ने फरमाया था कि 26.11 का मुंबई हमलों का अपराधी अबू जुंदाल भारतीय था और भारतीय एजेंसियों के लिए काम करता था जो बाद में पलट गया. रहमान मलिक से तब किसी ने यह नहीं पूछा था कि “अबू जुंदाल अगर भारतीय एजेंट था तो क्यों पाकिस्तान की सरकार उसके सऊदी अरब से भारत प्रत्यर्पण के खिलाफ थी? और क्यों उसे पाकिस्तानी नागरिक बताया जा रहा था? क्यों पूरा पाकिस्तानी प्रशासन अबू जिंदाल की चिंता में अधीर हो रहा था? यह वही रहमान मलिक थे जिन्होंने अजमल आमिर कसाब की गिरफ्तारी के बाद उसे पाकिस्तानी मानने से यह कहकर इन्कार कर दिया था, उसका पाकिस्तानी जनसंख्या पंजीकरण प्राधिकरण में कोई रिकॉर्ड नहीं है.” किन्तु अवसर उपयुक्त और तवा बेहद गर्म होनें पर भी किसी भारतीय पक्ष ने उनके सामनें ये बातें नहीं रखी थी.

भारत आये रहमान मलिक ने अपनें बारूदी मूंह से शब्द दागना यहाँ बंद नहीं किया और दिल्ली में आगे कहा था कि “हम और बंबई धमाके नहीं चाहते, हम और समझौता एक्सप्रेस नहीं चाहते हम और बाबरी मस्जिद नहीं चाहते हम भारत पाकिस्तान और पूरे क्षेत्र में शांति के लिए साथ काम करना चाहते हैं.” हमारी यूपीए सरकार, हमारें प्रधानमन्त्री मौन सिंह और सुशिल शिंदे समझें न समझें पर कुटिल रहमान मलिक समझते थे कि 26/11 की आतंकवादी घटना से भारत की आंतरिक और सामाजिक घटना बाबरी विध्वंस में तुलना करके उन्होंने क्या हासिल कर लिया था और भारत ने क्या खो दिया था ? यद्दपि पाकिस्तानी मंत्री बाद में इस बयान से भी पलट गए थे और उन्होंने कहा था कि उनके बयान के गलत अर्थ निकाले गए तथापि निस्संदेह यह एक शैतानी भरी शरारत थी जिसे हमने चुपचाप सहन किया था. रहमान मलिक की बातों से तब स्पष्टतः ऐसा लगता था कि पाकिस्तानी मंत्री यह कहना चाहते थे कि यदि बाबरी का कलंक भारत से हटाने का उपक्रम भारत में नहीं होता तो मुंबई में 26.11 भी नहीं होता! भारत पाकिस्तानी संबंधों के बेहद संवेदनशील स्थितियों में होने के उपरान्त भी रहमान मालिक का 26.11 और बाबरी विध्वंस की तुलना का यह दुस्साहस भरा बयान यूपीए सरकार के कानों पर कोई हरकत कर गया हो, या नहीं यह तो पता नहीं चला किन्तु पूरे राष्ट्र में इस बात को लेकर बेहद गुस्सा और गुबार जरूर था. तब भारत द्वारा पाकिस्तान से यह पूछा जाना चाहिये था कि किस हैसियत से उसने भारत के इस संवेदनशील अंदरूनी सामाजिक विषय को छूने की हिमाकत की है? यूपीए सरकार द्वारा पाकिस्तान सहित समूचे विश्व को यह भी चुनौतीपूर्वक बताया जाना चाहिए था कि बाबरी विध्वंस कोई सैनिक कार्यवाही या प्रशासनिक गतिविधि नहीं, बल्कि एक सामजिक आक्रोश का परिणाम था। जीशुद्ध और शुद्धतम रूप से भारत का अंदरूनी मामला है और इसकी इस प्रकार चर्चा करके पाकिस्तान ने भारतीय संप्रभुता की सीमा को अतिक्रमित करने का प्रयास किया है. भारतीय धरती पर बाबरी ढांचे का अस्तित्व और विध्वंस एक प्रतीकात्मक घटना है जिसे भारतीय इतिहास की पूंजी समझा जा सकता है! “यह अन्तरराष्ट्रीय अखाड़े की चर्चा का नहीं, बल्कि हमारी अस्मिता और हमारी अंतस वेदना का एक अमिट अध्याय है जिस सम्बन्ध में पाकिस्तान सहित समूचे विश्व को चुप्पी बनाएं रखनी होगी” – यह भी बताया जाना चाहिए था. पाकिस्तान से यह भी नाराजगीपूर्वक कहा जाना चाहिए थी कि बाबरी ढांचे को ढहा दिये की घटना का किसी आतंकवादी घटना के साथ जोड़ा जाना भी भारतीय समाज को नागवार गुजरा है.

फरवरी, 2013 – अफजल को फांसी की पाक ने की मुखर निंदा और भारत रहा चुप-

दिल्ली आकर संसद पर हमला करने वाले और सैकड़ों शीर्षस्थ भारतीय राजनेताओं की सामूहिक ह्त्या का प्रयास करने वाले अफजल के पाकिस्तान में हुए प्रशिक्षण, भारतीय संसद पर हमले की योजना में लगे पाकिस्तानी धन, तकनीक और अफजल को दी गई भारतीय उच्चतम न्यायालय की सजा का विरोध और उसकी निंदा आलोचना को आखिर भारतीय प्रधानमन्त्री और विदेश मंत्रालय जवाब क्यों नहीं दे पाया यह समझ से परे है. एक भारतीय नागरिक को भारत की ही निर्मलतम उच्चतम न्याय व्यवस्था उसके किये अपराध की सजा देती है और पाक के पेट में बल पड़ते हैं तो इससे ही सिद्ध हो जाता है कि वह भारतीय संसद का अपराधी अफजल और कोई नहीं बल्कि पाकिस्तानी में रचे गए षड्यंत्र का एक मोहरा भर था. भारतीय विदेश नीति के पाकिस्तान सम्बंधित अंश के बेतरह विफल होने का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता था कि वह अफजल फांसी के मुद्दे पर पाक के खुले भारत विरोध और भारतीय सार्वभौमिकता पर दिन उजाले चोट खाने के बाद भी न तो दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग से स्पष्ट दो टूक बात कर पाया और न ही उसे तलब तक कर पाया था. भारत को चुनौती देने और अपराध कर आंखें दिखाने का पाकिस्तान का यह मामला यहां चरम पर पहुंचा समझा जाना चाहिए था ऐसी भारतीय जनमानस की स्पष्ट सोच थी और जनमानस की यह सोच केन्द्रीय सरकार की नीतियों में प्रतिबिंबित होना चाहिए थी!

मार्च, 2013 – हमारे विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने अजमेर में पाक प्रधानमंत्री को गर्मजोशी से रोगन-मुर्ग-जोश खिलाया-

भारत-पाक का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, तब यह घटना बड़ी ही कड़वाहट से लिखी और पढ़ी जायेगी कि जब पाक सैनिकों ने हमारें दो सैनिकों को मार कर उनके सर काट लिए थे और बेहद क्रूरता और एतिहासिक बर्बरतापूर्वक व्यवहार करते हुए उनके सर कटे शव हमें भेज दिए थे. भारतीय प्रधानमन्त्री और राजनयिकों के आग्रह के बाद भी पाक ने उन सैनिकों के काटे हुए सर न लौटा कर पूरे देश को बेहद शर्म, दुःख और लज्जा कि स्थिति में ला खड़ा किया था उसके ठीक बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री रजा परवेज अशरफ अपने पचास सदस्यीय स्टाफ और परिवार के साथ व्यक्तिगत यात्रा पर आये थे. इस समय स्थितियां ऐसी नहीं थी कि उन्हें भारत आना चाहिए था और ऐसी तो बिलकुल भी नहीं थी कि व्यक्तिगत और पारिवारिक यात्रा पर आये रजा परवेज के लिए हमारें विदेश मंत्री उनकी अगवानी को आंखें झुकाएं पलकें फैलाए स्वागत के लिए दिल्ली से दौड़कर जयपुर आकर खड़े हो. जब हमारे विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद नई शेरवानी पहन कर पाक प्रधानमंत्री का इस्तकबाल कर रहें थे और उनकें हाथों को चूम रहे थे, तब पूरा देश अपने उन दो शहीदों की अंतिम रस्मों को निभाने और और उनके परिजनों के आसुंओं को पोछ्ने का असफल प्रयास कर रहा था. आज भी हम यह भी हम नहीं भूले हैं कि हमारे सैनिकों के कटे सिरों के ताजे रक्त से रंजित हाथों से ही पाकिस्तानी नेता के परिवार ने अजमेर में जियारत की थी और हमारें विदेशमंत्री के साथ मुर्ग मुसल्लम भी खाया था. भारतीय सैनिकों की आंखें निकाल लेने और सर काट कर रखने और फिर भारत आकर मुर्ग मुसल्लम खाने और फिर अजमेर की दरगाह पर भारतीय सैनिकों के लहू सने हाथों के निशां छोड़ने से लेकर भारतीय संसद के हमलावर अफजल की फांसी को गलत ठहराने तक का घटनाक्रम बहुत तेजी से किन्तु बहुत गहरे घाव करने वाला हो गया है था, तब. भारत की सरजमीं पर बनी दरगाह अजमेर शरीफ की चौखट पर पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री और उनके बेगम की हथेलियों से हमारें सैनिकों की गर्दन से निकले रक्त के जो निशां छूट गए हैं वे हमें बरसो बरस तलक दुखी, व्यथित और उद्वेलित करते रहेंगे.

अप्रैल, 2013 – पाक में रह रहे हिन्दुओं पर अत्याचार, बलात्कार और नृशंस हत्याकांडों के समाचारों पर भारत का चुप रहना-

वैसे तो हम वैश्विक पंचाटों के चौधरी बने फिरते हैं, किन्तु पाक में रह रहे हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों के विषय में हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व और विदेश मंत्रालय चुप ही रहता आया है. पाक के हिन्दुओं की यह पीड़ा और पाकिस्तान का यह पैशाचिक रूप हम विश्व के मंचों पर नहीं रख पाये फलस्वरूप यह अत्याचार और बर्बरता सतत जारी रहा है. कहना न होगा कि भारतीय विदेश नीति के पाकिस्तान अध्याय को ऐसे लोग लिख और पढ़ रहे हैं जिनकी न मनसा में दम है, न वाचा में शक्ति है और न ही कर्मणा में कुछ कर गुजरने की चाहत! अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं के अनुमान के अनुसार पाकिस्तान में प्रति माह 20 से 25 हिंदु कन्याओं को जबरन चाक़ू की नोक पर मुसलमान बना दिया जाता है किन्तु हम चुप हैं. यह बात क्यों नहीं कही जा रही कि 1951 में 22% हिंदुओं वाले पाकिस्तान में अब मात्र 1.7% हिंदू ही बच गए है. पाकिस्तान से निरंतर, पीड़ित, प्रताड़ित, परेशान होकर अपनी धन सम्पति छोड़कर पलायन करते हिंदुओं की पीड़ा को हम क्यों अनदेखा कर रहे हैं? हमें विश्व समुदाय को पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों और पाशविक यंत्रणाओं के किस्से भी बताने होंगे. भारत द्वारा विश्व समुदाय को यह भी बताया जाना चाहिए कि पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं को शान्ति से जीवन जीने देने की तो छोड़िये उनके दाह संस्कार में भी अड़ंगे लगाए जाते हैं. विश्व समुदाय के समक्ष पाकिस्तान में होने वाले हिन्दुओं के “जबरिया धर्मांतरण करो या मर जाओ” के मामलें भी मुखरता से लाये जाने चाहिये थे.

मई 2013 –पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में हमारे सरबजीत सिंह की ह्त्या-

मई में जब पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में वासी चमेल सिंह की ह्त्या भी कोट लखपत जेल में ठीक उसी प्रकार कैदियों से हमला करवा कर की गई थी, जैसे सरबजीत सिंह की ह्त्या की गई थी. 15 जन. 2013 को ह्त्या करने के बाद चमेल सिंह का शव देनें में भी पाकिस्तान द्वारा आना कानी कर समय पास किया गया था.

अक्टूबर, 2013- पाकिस्तान के समक्ष निरंतर घुटने टेके मनमोहन सरकार ने-

हमारें भारतीय प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंग न्यूयॉर्क में पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ से मिले, किन्तु उसके पूर्व सदा की तरह धोखा और फरेब करते हुए पाकिस्तानी सेना ने भारतीय क्षेत्र में सैन्य अभियान चलाते हुए केरन सेक्टर में घुसपैठ की और भारतीय इलाकों पर कब्जें का प्रयास किया. तब पाकिस्तान के विरुद्ध एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में हमारें सशक्त, मुखर और क्रियाशील मोर्चे का अभाव बहुत अधिक खला था. थल सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह ने तब स्पष्ट बयान दिया था कि पाकिस्तानी सेना की मदद से पाकिस्तानी भू-भाग में ४२ आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चलाये जानें के पुख्ता प्रमाण उनके पास हैं. किन्तु न्यूयॉर्क में मनमोहन ने नवाज से इन घटनाओं का सशक्त प्रतिरोध व्यक्त नहीं किया था. इस दौर में केरन के हमले के बाद तो हद ही हो गई थी, जब पाकिस्तान ने एक दिन में तीसरी बार संघर्ष विराम का उल्लंघन करते हुए जम्मू कश्मीर के पुंछ जिले में नियंत्रण रेखा पर मोर्टार दागे और गोलीबारी करके अपनी खुर्राट विदेश नीति का परिचय हथियारों से दिया था और पाकिस्तानी सैनिकों ने पुंछ में नियंत्रण रेखा के पास मेंढर एवं भीमभेरगली-बालकोट सब सेक्टर में आतंक फैला दिया था. वर्ष 2013 में जम्मू कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों ने नियंत्रण रेखा के पास 127 बार संघर्षविराम का उल्लंघन किया था. जो कि एक रिकार्ड था.
आज निश्चित ही वह समय है इस देश के नागरिक, सेना अधिकारी, रक्षा विशेषज्ञ और इन सबसे बढ़कर हमारे नये प्रधानमन्त्री इन घटनाओं की समीक्षा और सिंहावलोकन करें और समुचित-यथोचित-समयोचित कदम उठायें.

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