परदेश और गाँव

        प्रभुनाथ शुक्ल 

अम्मा ने परदेश जाते समय
सफ़र की भूख मिटाने को दिया था
गुड़ की भेलियां, अचार की फारियां और
साथ में भरपूर रोटियां ! !

घर से निकलते बोली थीं अम्मा
जरा , दही- गुड़ से मुँह झूठा कर ले
बस ! यह कहते अम्मा की आँखें
बन गई थीं सावन- भादों की नदी ! !

किवाड़ की ओट से वह फूट- फूट कर रोई
अजीब चुप्पी ओढ़े बेचारी छुई- मुई सी
आँखें उसकी झील सी बन गई
दरवाजे पर खड़ी वह कील सी गड़ गई ! !

बाबू जी, ने मुझे आलिंगन में भर लिया
फ़िर अचानक मुँह से गुब्बार फूट पड़ा
टूटी खाट पर वह निढाल हो गए
बस, मेरी राह देखते वे बेहाल हो गए ! !

स्टेशन से अब चल पड़ी थी रेल
नम थीं आँखें और जिंदगी का खेल
सबकी आँखों में था अजीब सा ग़म
किसी का ग़म न किसी से था कम ! !

सफर में कोई न अपना हम सफर था
भागती रेल और अपना अंतर्द्वंद था
टूटी छप्पर और बहन की शादी का ग़म था
छोटू को अफसर बनाने का भी मन था ! !

शहर को जिया तो वे सपने दिन में टूट गए
जो थे अपने उनके भरोसे भी रूठ गए
भूख थीं गाफिल और छत भी लूट गए
मतलबी शहर में सपने भी लुट गए ! !

शहर से लौटा बेआबरू और बेजार
गगनचुम्बी इमारतें का बस इश्तहार
भूख मिटाने तक को न मिली रोटियां
जिस्म से शिकायत करती रहीं अतडियां ! !

सड़क को सिर पर रख लौटा गाँव
माँ ने भींच लिया आलिंगन की ठांव
बाबू की बाहों ने जैसे जकड़ लिया गाँव
लूटे सपनों संग पहुँचा झोपड़ी की छाँव ! !

बकरियां मिमीआई और गइया भी रम्भाई
भागी – दौड़ी आई छोटी और छूटका भाई
पाँव के छाले को निहारती छूटकी माई
बोली भौजाई तू न जाना शहर हरजाई ! !

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