शक्ति संगठन और समरसता के प्रतीक परशुराम जी

-रमेश शर्मा-
parshuram

भारतीय वाङमय में सबसे दीर्घजीवी चरित्र परशुराम जी का है। सतयुग के समापन से कलयुग के प्रारंभ तक उनका उल्लेख मिलता है। भारतीय इतिहास में इतना दीर्घजीवी चरित्र किसी का नहीं है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शाक्ति रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरूषों को संरक्षण उनके की चरित्र विषेशता है। उनका चरित्र अक्षय है, इसीलिए उनकी जन्मतिथि वैषाख शुक्ल तृतीय को माना गया। इस दिन का प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण शुभ मुहूर्त माना जाता है। विवाह के लिए या अन्य किसी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीय के दिन अलग से मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं है। उनके जीवन का समूचा अभियान, संस्कार, संगठन, शक्ति और समरसता के लिए समर्पित रहा है।

भगवान परशुराम जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए वे परिस्थितियां जान लेना जरूरी है जिनमें उनका अवतार हुआ। वह वातावरण अराजकता से भरा था। एक प्रकार से जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसका वर्णन ऋग्वेद से लेकर प्रत्येक पुराण में है। ऋग्वेद के चैथे मंडल के 42वें सूत्र में तीसरी ऋचा से संकेत मिला है कि किसी ’त्रस’ नामके दस्यु ने स्वयं को ’इन्द्र’ और वरूण ही घोषित कर दिया। उसने कहा ‘हम ही इन्द्र और वरूण है‘ अपनी महानता के कारण विस्तृत गंभीर तथा श्रेष्ठ रूप वाली धावा-पृथ्वी हम ही है, हम मेघावी है, हम त्वष्टा देवता की तरह समस्त भुवनों को प्रेरित करते हैं तथा धावा-पृथ्वी को धारण करते है।‘

ऐसी मंडल के इसी सूक्त के चैथी और पांचवी और छठी ऋचा भी ऐसे ही अहंकार से भरी है । अन्य मंडलों में भी ऐसी अनेक ऋचाओं की भरमार है । यह वह समय था जिसमें ऋषियों का मान नहीं रह गया था, उनकी हत्याएं की जा रही थी ,उनके आश्रम जलाएं जा रहे थे । अथर्ववेद के 19वें की प्रथम में वर्णन है कि सजृय अत्याधिक बढ़ गए थे, उन्होने भृगुवंषियों को विनष्ट कर डाला और बीत हव्य हो गए इन परिस्थितियों के कारण पूरे संसार में हा-हाकार हो गया। चारों तरफ ईष्वर से बचाने की प्रार्थना की जाने लगी। ऋग्वेद में ऐसी दर्जनों ऋचाऐं हैं जिनमें अग्रिदेव से, वरूण ,इन्द्र से और अन्य देवी देवताओं से रक्षा करने की प्रार्थना की गई है। ऋषियों और मनुष्यों पर आए इस संकट को मिटाने के लिए नारायण का यह छठवां अवतार हुआ इससे पूर्व के पांचो अवतार आंशिक या आवेश के अवतार माने गए यह पहला पूर्ण अवतार है। उनका जन्म यह सुविख्यात भृगुवंश में हुआ जो विज्ञान और अध्यात्म के नए- नए अनुसंधानों के लिए जाना जाता है। अग्रि का अविष्कार भृगु ऋषियों ने किया। (ऋग्वेद 1-127-7) यदि अग्रि का अविष्कार न होता तो न भोजन बन सकता था और न यज्ञ हो सकते थे। महर्षि भृगु के चरण स्वयं नारायण के वक्ष पर अंकित है। नारायण की हृदेश्वरी लक्ष्मी महर्षि भृगु की बेटी है। (बिष्णु पुराण अध्याय 9 शलोक 141) इसी भृगुवंश में भगवान परशुराम जी अवतार लिया। नामकरण में उनका नाम ’राम ’रखा गया। उनकी माता देवी रेणुका उन्हें अभिराम कहा करती थी। पिता महर्षि जमदग्रि ने ’भृगराम’ कहकर पुकारा, ऋषि कुलों में वे ’भार्गव राम कहलाए और भगवान शिव से दिव्य ’परशु’ प्राप्त करने के बाद वे ’परशुराम’ बने।

उन्होंने अपने गुरूकुल के जीवन से ही समाज को संस्कार देने का अभियान आरंभ कर दिया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार उस काल में नरबलि और पशुबलि की कुप्रथा आरंभ हो गयी थी। ऐसी ही आयोजन में एक बालक शुनः शैय की बलि दी जा रही थी। भगवान परशुराम अपने मित्र विमद और देवी लोम्हार्षिणी के साथ पहुंचे। उन्होंने पहले यज्ञाचार्य से शास्त्रार्थ किया फिर वरूण के प्रकट का आव्हान किया। वरूण प्रकट हुए। उन्होंने नरबलि के निशाद की घोषणा की। तार्किक दुष्टि से प्रश्न वरूण के प्रकट होने या न होने का नहीं है। इस कथा से संकेत मिलता है कि अपने किशोर वय से ही परशुराम जी ने समाज की कुप्रथाओं को रोककर एक संस्कारी समाज के निर्माण का अभियान छेड़ दिया था। उस काल में जितने अराजक और आतंकी तत्व थे वे कोई और नहीं थे। परस्पर संबंधी भी थे। लेकिन ‘आर्यत्व’ के संस्कारों से दूर होने के कारण ऋषियों ने उनको बहिष्कृत कर दिया था। बहिष्कार से अपमानित उन राजन्यों ने न केवल ऋषियों और य़क्षों के विरूद्ध अभियान छेड़ दिया बल्कि वे निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो गए।

जिन हैहय वंश से भगवान परशुराम जी का पहला महायुद्ध हुआ इनमें और भृगुवंषियों में अनेक रिश्तेदारियां थी, हैहय वंश उस प्रतापी चंद्र वंश की शाखा थी जिसके वंशज राजा ययाति को भृगुवंशी शुक्राचार्य की बेटी देवयानी ब्याही थी, सहस्त्रबाहु अर्जुन की पत्नी देवी महामाया भगवान परशुराम की माता देवी रेणुका की बहिन थी, भृगु हैहयों के परंपरागत गुरू भी रहे है। अतएव यह कहना सत्य से परे है कि वह कालखंड किसी एक वर्ग का किसी दूसरे वर्ग के विरू़द्ध संघर्ष था। परशुराम जी षस्त्र जैसे पहले षास्त्र द्वारा समाज में समरसता और शांति की स्थापना करना चाहते थे। नरबलि रूकने के बाद उन्होंने महर्षि वषिष्ठ के सामने प्रस्ताव भी रखा कि ‘राजन्यों को बहिष्कार के बजाए परिष्कार से मार्ग पर लाया जा सकता है।’ अपने इस विचार के कारण ही उन्होंने सहस्त्रबाहु के साम्राज्य ‘आनर्त’ के अंतर्गत सौराष्ट में आश्रम स्थापित किया उसे ‘भृगुक्षेत्र’ या ‘भड़ौच’ के रूप में आज भी जाना जाता है। इस आश्रम से सहस्त्रबाहु के सेनापति ‘भद्रषेयण यादव’ को जोड़ा और समाज में संस्कार आरंभ किए।

दासों की मुक्ति, नारी सम्मान और सेवकों को शिक्षा से जोड़ने का काम आरंभ किया लेकिन बात नहीं बनीं। किसी बात पर सहस्त्रबाहु कुपित हुए और उन्होंने आश्रम को ध्वस्त करने का आदेश दे दिया। परशुराम जी का वध करने के लिए स्वयं शस्त्रों के साथ पीछा किया, लेकिन परशुराम जी नहीं मिले। यह एक बड़ा और वीभत्स घटनाक्रम है, क्रोधित सहस्त्रबाहु ने पहले सरस्वती किनारे पहुचकर महर्षि वषिष्ठ का आश्रम जला दिया फिर महर्षि जमदाग्रि का आश्रम जलाया, गायों और ऋषि कन्याओं का हरण किया। बदले में परशुराम जी ने महिष्मति जाकर सहस्त्रबाहु का वध किया तो बाद में सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने महर्षि जमदग्रि सहित आर्यावर्त के अनेक ऋषियों की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ दिया तब समूची धरती पर हा-हाकार उत्पन्न हो गया। समस्त राजन्य दो भागों में विभाजित हुए। एक प्रकार का वह ग्रहयुद्ध जैसा वातावरण था जिसमें भगवान परशुराम जी के नेतृत्व में ऋषि समर्थक समूह विजयी हुआ।

उस भयानक नरसंहार के बाद भगवान परशुराम जी का व्यवस्था समझने वाली है। उन्होंने समूची धरती को चार भागों में बांटा। नर्मदा के नीचे आनर्त, नर्मदा से गंगा तक ब्रम्हावर्त, गंगा से अष्वप्रदेश तक आर्यवर्त इससे आगे पर्सवर्त अथवा पारसिक प्रदेश। यह पारसिक प्रदेश ही आगे चलकर साम्राज्य बना जिसका अस्तित्व ईसा से पांच सौ वर्ष पहले तक रहा है। राजाओं के हाथ से न्याय और दंड व्यवस्था ले ली गई। नीतिगत निर्णयों में राजपुरोहित का परामर्ष अनिवार्य किया गया। इन चारों साम्राज्यों का अधिष्ठाता कष्यप ऋषि को बनाया। यह कश्यप सरोवर ही संभवतया आज का ‘केश्पियन-सी’ है।

पारिवारिक व्यवस्था में परिवार की मुखिया मां होगी। यह व्यवस्था भी परशुराम जी ने लागू की। इसका कारण यह था कि उस भारी नरसंहार के बाद निराश्रित स्त्रियों और बच्चों की समस्या हो गई थी। परशुराम जी ने ब्रम्हचारियों और समाज के अन्य अविवाहित युवकों से इन स्त्रियों से विवाह की व्यवस्था लागू की। और आगे उत्पन्न होने वाली संतान के पालन में कोई भेद न हो इसलिए परिवार का संचालन की प्रमुख माता को बनाया गया। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को, वर्ग को षिक्षा के अवसर दिए गए। ऋगवेद का नवा और दसवां मंडल भगवान परशुराम जी के आचार्यत्व में ही तैयार हुआ। इस मंडल का 110वां सूक्त जहां उनका स्वयं का रचित है वहीं इन दो मंडलों में अनेक सूक्त ऋषि रेणू, पुरूखा एल, विष्वकर्मा वास्तु, ऋषि धानक, प्रजापति, इन्द्र माताओं, यमी विष्वान के द्वारा रचित हैं। इसमें ऋषि रेणू देवी रेणुका के पिता थे जो बाद में सन्यास लेकर ऋषि बनें। और महर्षि विष्वामित्र के षिष्यत्व में वेद दृष्टा। पुरूरवा ऐल प्रतिष्ठान के राजा पुरूवा के पुत्र थे। ऋषि धानाक के वंशज ही आज धानुक समाज के रूप में जाने जाते हैं। विश्वकर्मा और प्रजापति के नामों में कोई परिवर्तन नहीं हैं। तब कहां है वर्ग का संघर्ष, कहां है वर्ण का संघर्ष। वह समाज एक समरस जिसमें व्यक्ति की मान्यता उसके आचरणों से और प्रजा शक्ति से होती थी, तब तक वर्ण व्यवस्था लागु ही नहीं थी। वर्ण व्यवस्था पौराणिक काल से आरम्भ हुई जबकि परशुराम जी का अवतार वैदिक है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिभा के अनुसार काम का अवसर देने का यह अद्भुत उदहरण है जो आज के लिए समयानुकूल है। भगवान परशुराम जी नें दशरथ राम को विष्णु धनुष प्रदान किया उन्होंने ही कृष्ण को सुदर्शन दिया और गीता का सन्देश भी उन्होंनें बाद में आर्जुन को दिया। वे ही कर्ण, भीष्म, द्रोण, और कृपाचार्य के गुरु हैं।

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