मरीजों की बेवजह जांच से फायदा किसको

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-रमेश पाण्डेय-
hospitals

5 जुलाई 2014 को बुलंदशहर की एक घटना समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी। मामला था, एक नर्सिंग होम से इलाज के लिए इनकार किए जाने के बाद घर लौट रही प्रसव पीड़िता के बच्चे का जन्म रेलवे क्रॉसिंग पर हो गया था। प्रसव पीड़िता को नर्सिंग होम में इसलिए भर्ती नहीं किया गया, क्योंकि उसके पास देने के लिए उतने पैसे नहीं थे, जितना नर्सिंग होम का संचालक मांग रहा था। इस खबर को पढने के बाद एक वाकया याद आ गया। यह वाकया है, पिछले दिनों एक डायगोन्सटिक सेन्टर के संचालक ने लखनऊ के कुछ नामी-गिरामी डाक्टरों को एक पंच सितारा होटल में डिनर पर बुलाया था। इत्तेफाक से मुझे भी उस डिनर पार्टी जिसे आप काकटेल पार्टी भी कह सकते है में अपने डॉक्टर मित्र के साथ जाने का मौका मिला। डिनर शुरू होने से पहले सेन्टर के संचालक जो मेडीकोज नहीं थे ने विस्तार से अपनी कार्यप्रणाली की जानकारी डॉक्टरों को दी। किट, इन्सेटिव तथा आईपी के बारे में भी बताया और बदले में मरीजों की अधिक से अधिक जाँच कराने का अनुरोध किया। डाक्टर उनके हिन्दी अंग्रेजी मिक्स भाषण से प्रभावित हुए या नहीं हुए, यह तो मैं नहीं जान पाया लेकिन जो मैं जान पाया, उसके मुताबिक रोगी का अधिक से अधिक शोषण हो, ज्यादा से ज्यादा पैसे सेन्टर के संचालक के खाते में जमा हो बदले में डाक्टर भी उपकृत हो यही कुल मिलाकर उनका विजन था। डिनर करते वक्त मैंने अपने उन डाक्टर मित्र से पूछां कि क्या ऐसा भी होता है? कि जब मरीज को ‘सीटी स्कैन‘ की जरूरत भी न हो, तो भी उसकी यह महंगी जांच करायी जाती है? मेरे मित्र का जवाब था कि अब मान्यतायें बदल चुकी है, प्रतिबद्धतायें बदल गयी है, लोगों की सोच बदल गयी है और साथ ही अब नजरिया भी बदल गया है क्योंकि ये आर्थिक युग है। इसमें सरवाइव करने के लिये तमाम तरह के समझौते करने पड़ते हैं, आगे बढ़ने के लिये तथा प्रतिस्पर्धा में दूसरे को मात देने के लिये कुछ अलग किस्म का करना पड़ता है। उनका जवाब सुनकर मैं कुछ समय के लिये अवाक रह गया और सोचने लगा कि जिन डॉक्टरों को भगवान के बाद दर्जा हासिल था, आज पैसे के लिये वे शायद सब कुछ भूलते जा रहे हैं? तभी तो आज मरीजों की जाँच के गोरखधन्धे में तमाम डॉक्टर और प्राइवेट अस्पताल, डायगोन्सोटिक सेन्टर मिलकर माल काट रहे है। मल्टी नेशनल फार्मा कम्पनी तथा सर्जिकल इन्सेटूमेन्ट बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनी दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से माला-माल हो रही है और कंगाल हो रहा है वह मरीज जो एक तरफ तो बीमारी के चलते टूट चुका है और बची-खुची उसकी जमा पूंजी भी जांच के नाम पर स्वाहा होती जा रहीं है। सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में लगभग बीस करोड़ का मध्यम वर्ग तथा लगभग सवा करोड़ का धनाट्य वर्ग ही प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने जाता है, क्योंकि धन होने के कारण उसे सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नहीं है और यही सबसे अधिक जांच के नाम पर ‘हलाल‘ भी किया जाता है। यहां यह लिखना आवश्यक है कि महंगी दवाओं और जाँच के कारण भारत में प्रति वर्ष 3.8 करोड़ लोग सरकारी अस्पतालों की नीली-पीली गोलियां खाने को न केवल मजबूर है, बल्कि शायद यही उनकी ‘नियति‘ बन गयी है। भारत सरकार ने 12वीं पंचवर्षीय योजना में सबको स्वास्थ्य सेवायें मुहैया कराने का लक्ष्य रखा था, लेकिन यह योजना परवान चढ़ पाती, इससे पहले योजना आयोग ने इससे किनारा कस लिया।

अब प्रश्न उठता है कि गरीब या गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोग अपने इलाज के लिये कहां जायें? क्योंकि सस्ता और अच्छा इलाज यह भी कराना चाहते हैं लेकिन सरकारी अस्पतालों पर तो इनका भी विश्वास जम नहीं रहा है। नतीजतन यह लोग उनके पास इलाज कराने जाते हैं जिन्हें आम लोगों कि भाषा में झोलाछाप डॉक्टर कहा जाता है। ये कथित डाक्टर जिनको चिकित्सा मित्र बनाने की लड़ाई इन्डियन रूरल मेडीकोज सोसाइटी कई वर्षाें से लड़ रहा है अपने अनुभव के आधार पर रोगियों का इलाज करते है। पिछले दिनों इन्डियन इन्फार्मेटिक्स सोसाइटी की एक रिर्पोट आयी थी जिसमें कहा गया था कि वर्ष 2012-13 में 60 प्रतिशत लोगों ने अपने रोगो के इलाज के लिये निजी चिकित्सा प्रदाता संस्थाओं की सेवायें लीं। इनमें चालीस प्रतिशत सेवाये उन अपंजीकृत चिकित्सकों द्वारा ग्रामीण क्षेत्र के लोगो को उपलब्ध करायी गयी। पूरे देश में करीब एक करोड़ तथा उप्र में करीब बीस लाख ऐसे लोग चिकित्सा कार्य कर रहे हैं, जिनके पास कोई मान्य उपाधि नहीं है, केवल अपने अनुभव के आधार पर ये रोगियों की सेवा करते हैं। और गांवों में ‘डॉक्टर‘ के नाम से जाने जाते है। इन दोनों मामलातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि अब उस मानवता का ह्रास हो रहा है, जिसकी उम्मीद आम आदमी बड़े लोगों के प्रति लगाए रखा है।

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