पतझड़ में पत्ते जो देखे !

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पतझड़ में जो पत्ते देखे,
कहाँ समझ जग जन थे पाए;
रंग बिरंगे रूप देख के,
कुछ सोचे वे थे हरषाये!

क्या गुज़री थी उनके ऊपर,
कहाँ किसी को वे कह पाए;
विलग बृक्ष से होकर उनने,
अनुभव अभिनव कितने पाए !

बदला वर्ण शाख़ के ऊपर,
शिशिर झटोले कितने खाए;
धूप ताप हिम की हद देखे,
सिहरन पीड़ा कितनी पाए !

दृष्टा अपनी दृष्टि देखे,
अनुभूति जस उनको समझे;
संस्कारों वश कर्म निभाए,
विधि द्वारा वह देखा जाए !

जीव बदलता तन मन धाए,
प्रकृति पुरुष थपेड़े खाए;
रूप राग गुण हर क्षण बदले,
प्रभु सत्ता ‘मधु’ पत्ता निरखे !

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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