देशभक्तों को अपराधी बनाने का खेल!

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ishratसंदर्भः- इशरत जहां मुठभेड़ में पी.चिदंबरम् की भूमिका-

प्रमोद भार्गव

आतंकी इशरत जहां मुठभेड़ कांड में जिस तरह से एक-एक करके रहस्यों से पर्दा उठ रहा है,उससे यह साफ हो रहा है कि हमारे राजनेता अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगाने में राष्ट्रीय सुरक्षा से भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकते हैं ? पूर्व ग्रह सचिव जीके पिल्लई और इसी विभाग में उपसचिव रहे,आरवीएस मणि के बयान वाकई सच के निकट हैं,तो यह प्रमाणित होता है कि तत्कालीन संप्रग सरकार में गृह मंत्री रहे पी.चिदंबरम् ने हलफनामा बदलकर न केवल इशरत जहां और उसके साथियों को गैर आतंकी ठहराने का काम किया,बल्कि अपनी जान हथेली पर रखकर आतंकियों से लड़ने वाले देशभक्त पुलिसकर्मियों को अपराधी बनाने का शर्मनाक काम भी किया। चिदंबरम् ने कार्यवाही में सीधे हस्तक्षेप कर शपथ-पत्र बदलने की बात खुद स्वीकार ली है। इससे साफ होता है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक लाभ के लिए सरकार और सीबीआई का दुरूपयोग कर रही थी। इस राज से पर्दाफ़ाश होने के बाद एक बार फिर यह हकीकत सामने आई है कि आखिरकार सीबीआई सत्ता के पिंजरे में बंद तोता है। इस मामले में चिदंबरम् के साथ साजिश में सहयोगी बने सीबीआई के पूर्व अधिकारी तो शक के दायरे में हैं ही,वे भी हैं,जो तत्काल प्रताड़ित होने के बावजूद 6-7 साल तक मुंह सिले रहे और अब सच्चाई से अवगत कराने का दावा कर रहे हैं ?

आतंकवाद की इस इस बहुचर्चित घटना से राजफ़ाश करते हुए, जीके पिल्लई ने कहा है ‘तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदंबरम् ने इशरत जहां प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय में पेश करने के लिए दूसरा हलफनामा लिखाया था,जो हलफनामा मैनें तैयार किया था,उसे दरकिनार कर दिया गया था।‘ इस बयान के बाद दूसरा सनसनीखेज बयान आरवीएस माणि का आया। गृह मंत्रालय में उपसचिव रहे माणि ने एक साक्षात्कार में कहा कि ‘इशरत और उसके साथियों को आतंकवादी नहीं बताने के लिए मुझ पर दबाव डाला गया था। यहां तक कि मुझे रबर स्टांप बनाने की कोशिश की गई। मुझसे ऐसे सबूत गढ़ने के लिए कहा गया,जिससे इशरत को आतंकी साबित नहीं किया जा सके। मुझसे इस बदले हुए हलफनामे पर दस्तखत करा लिए गए।‘ मणि ने यहां तक कहा है कि ‘तत्कालीन विशेष जांच दल के प्रमुख सतीश वर्मा ने मुझ पर पर्याप्त दबाव बनाने के लिए सिगरेट से दागा भी। यह जुल्म मुझ पर इसलिए किया गया ताकि वरिष्ठ आईबी आधिकारियों को फंसाया जा सके।‘

इन दोनों वरिष्ठ अधिकारियों के बयान चिदंबरम् एवं सीबीआई अधिकारियों पर बेहद गंभीर आरोप हैं। इन बयानों की आंशिक सच्चाई की पुश्टि तो इसी तथ्य से हो गई है कि चिदंबरम् ने खुद हलफनामा बदलने की बात कबूल ली है। गौरतलब है कि संप्रग सरकार के दौरान इस मामले से जुड़े दो शपथ-पत्र शीर्ष न्यायालय में प्रस्तुत किए गए थे। इनमें से 6 अगस्त 2009 को पेश किए शपथ-पत्र में इशरत और उनके साथियों को आतंकवादी ठहराते हुए मुठभेड़ को वास्तविक बताया गया था। जबकि करीब पौने दो माह बाद 30 सितंबर 2009 को न्यायालय में प्रस्तुत किए दूसरे शपथ-पत्र में इनके आतंकवादी होने के तथ्य को पूरी तरह नकारते हुए लिखा गया कि ‘ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है कि चारों आतंकी थे।‘

इन हलफनामों के घटनाक्रमों के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने मुबंई हमलों के आरोपी डेविड हेडली से 2010 में शिकागो जाकर पुछताछ की थी। तभी हेडली ने साफ कर दिया था कि इशरत आतंकवादी संगठन लष्कर-ए-तैयबा से जुड़ी है। एनआईए के पास यह कलमबद्ध बयान मौजूद था। बावजूद जब इस बयान को गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश पर बनी एसआईटी ने लेना चाहा था,तब एनआईए ने यह कहकर ब्यौरा देने से इनकार कर दिया था कि ‘हेडली का बयान अदालत बतौर सबूत नहीं मनेगी।‘ किसी बयान को सबूत मानना या नहीं मानना अदालत का विवेकाधिकार है। एनआईए का तो यह कत्र्तव्य बनता था कि जांच से जुड़े उसके पास जो भी सबूत हैं,उन्हें परस्पर साझा करती ? किंतु एनआईए चूंकि राष्ट्रीय जांच एजेंसी है और उस पर सीधा नियंत्रण केंद्रीय गृह मंत्रालय का होता है,इस नाते वह गृह मंत्रालय के प्रभाव में थी,लिहाजा अपने हित सरंक्षण के चलते एनआईए के अधिकारी राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह से पीछे हट गए। हलफनामों और हेडली के बयान की पृष्ठभूमि से जो निष्कर्श निकल रहे हैं,उनसे प्रथम दृष्टया यह साबित होता है कि दाल में कुछ काला था, नतीजतन पिल्लई व मणि के बयानों में दम है।

इशरत जहां इौर उसके साथियों को 5 जून 2004 को अहमदाबाद के नरोड़ा में पुलिस मुठभेड़ में मार गिराया गया था। इनके नाम थे, इशरत,जावेद उर्फ प्राणेश पिल्लई,अमजद अली राणा और जीशान जौहर हैं। मुठभेड़ को अंजाम डीआईजी डीजी बंजारा के दल ने दिया था। इस पुलिस दल ने मुठभेड़ के बाद दावा किया था कि ये चारों गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने आए थे। गुप्चार संस्थाओं की पुख्ता सूचनाओं के आधार पर हथियारों से लैस इन आतंकियों को पुलिस ने जान हथेली पर रखकर मार गिराने का साहसिक काम किया था। बावजूद मानवाधिकार आयोग, चंद गैर सरकारी संगठन और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पुलिस के इस दावे को चुनौती दे डाली। मुठभेड़ को फर्जी साबित करने के नजरिए से भाजपा विरोधी सियासी दल भी बिना किसी सबूत के आतंकियों के समर्थन में आ खड़े हुए। इन पैरोकारों के दावे का आधार था कि मुंबई की रहने वाली 19 वर्शीय युवती इशरत आतंकी नहीं हो सकती ? वह तो गुरूनानक खालसा काॅलेज,मुंबई में बीएएसी की छात्रा थी ? एक छात्रा आतंकी कैसे हो सकती है ? आखिरकार मामला न्यायालय की शरण में चला गया। इसका नतीजा यह निकला कि डीजी बंजारा समेत कई पुलिस अधिकारियों को जेल जाना पड़ा। अमित शाह को कथित फर्जी मुठभेड़ की व्यूहरचना में भागीदारी के लिए बदनामी झेलनी पड़ी।

इस मामले की तह से पर्दा उठाते हुए अब गृह मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिव एके जैन भी समाचार माध्यमों पर दावा कर रहे है कि उस समय आईबी की रिपोर्ट पर कोई शक नहीं था। यह साफ था कि इशरत के संबंध आतंकी संगठन से जुड़े हैं। इनका मकसद वीआईपी लोगों पर हमला करना था। आईबी की सच्चाई पर सवाल खड़े करने की कोई गुजाइंश ही नहीं थी,क्योंकि आईबी के पास खुफिया तंत्रों से मिले महत्वपूर्ण इनपुट थे। बावजूद सीबीआई ने अदालत में मुठभेड़ फर्जी ठहराने की कवायद की। कहा कि मुठभेड़ की साजिश गुजरात पुलिस और आईबी ने मिलकर रची थी। हालांकि अब एक बार फिर मुबंई आतंकवादी हमले के मास्टरमाइंडों में से एक पाक-यूएस नागरिक डेविड कोलमैन हैडली ने वीडियो-कांप्रेंस के जरिए भारत को बता दिया है कि इशरत आतंकी थी और उसके संबंध लशकर-ए-तैयबा से थे। इन क्रमबार खुलासों से यह तो लगभग साफ हो गया कि मुठभेड़ असली थी और मरने वाले राष्ट्रद्रोही थे।

कांग्रेस और चिदंबरम् ने भले ही यह हथकंडा राजनीतिक विरोधी नरेंद्र मोदी और अमित शाह को राजनीतिक रूप से दफन करने के लिए अपनाया हो या मुस्लिम तृष्टीकोण की दृष्टि से अपनाया हो ? किंतु राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में किसी भी रूप में आतंकियों का समर्थन राष्ट्रहित में कतई नहीं था। वैसे भी दुनिया के किसी भी देश में देश के दुश्मनों को मारना या आतंकियों का समर्थन आपराधिक कृत्य में शामिल नहीं है। वास्तव में अपराध तो आतंकियों के साथ खड़े होने,उन्हें उत्साहित करने और उनके पक्ष में कूट रचित झूठे हलफनामे पेश करने जैसे कामों से सामने आता है ? सीबीआई के अधिकारियों ने मौजूदा सरकार की मंशा से कदमताल मिलाते हुए आतंकियों से लड़ने वाले जाबांज पुलिसकर्मियों को जिस तरह से फंसाने की भूमिका रची है,उससे एक बार फिर यह बात प्रमाणित होती है कि अंततः सीबीआई सत्ताधारी दलों के लिए अचूक हथियार के रूप में  इस्तेमाल होती है। झूठे और परस्पर विरोधी हलफनामे देकर सीबीआई ने एक तरह से अदालत की अवमानना की है। सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की जनहित याचिका भी दायर कर दी गई है।

हालांकि इस सब के बावजूद उन अधिकारियों की नैतिकता पर भी सवाल उठते हैं, जिन्होंने उच्चाधिकारी होने के बावजूद हलफनामों के बदले जाने की सच्चाई को अर्से तक छुपाए रखा ? अब जाकर परिवर्तित माहौल में जुबान खोल रहे हैं। जबकि पदारूढ़ से होने से पहले वे भी कर्मचारी आचरण संहिता के तहत ईमानदारी से राष्ट्रीय दायित्व निर्वहन की शपथ लेते हैं। इस लिहाज से ये भी दायित्व उल्लघंन और शपथ की अवज्ञा के दोषी हैं ? बहरहाल अब यह तो नए सिरे से जांच और फिर अदालत के निर्णय पर है कि वह कौन से हलफनामे को साक्ष्यों के आधार पर सत्य मानती है ? इस लिहाज से इस मामले को दोबारा खोलना होगा। चूंकि यह मामला आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है,इसलिए केंद्र सरकार का भी फर्ज बनता है कि वह इसे महज संसद में कांग्रेस को घेरने का मुद्दा बनाकर उसे बदनाम करने तक सीमित न रह जाए,बल्कि सच्चाई की तह में जाकर सबूत जुटाए और वास्तविक दोषियों को अदालत के कठघरे तक पहुंचाने का काम करे।

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