परम शांति
तुम्हारे प्रेरक हैं प्रियवर
समय के
मूढ़ कोलाहल का हैं यह शमन?
क्या एक त्वरित उपाय?
या छद्म अहम् का मायाजाल?
भई, मैं तो उस कवि का सजल-उल शिष्य हूँ
जिसे नहीं चाहिए शांति
उसे चाहिए क्रांति
मुझे चाहिए संवेदना विस्तीर्ण
नहीं चाहिए भाषा-प्रावीण्य
चाहिए एक खगोलीय ककहरा
निर्वाण का निश्चल जल
सहज ही मर जाता है
किसी अन्य की पिपासा शांत नहीं करता
बोधिसत्व मुन्नाभाई तो
सबको गले लगाता है
हर नौका खेने आता है
शुष्क सामान्य से अपेक्षा ही क्या
भौतिक कठोर का तो कहना ही क्या
प्रश्न तब उठता है
जब कोई आदर्श अमूर्त
बन जाता है अबूझ
एक अक्खड़ व एकांत गवेषणा
यह बन जाता है
मानवता का अन्यतम त्रास
एक आकाश निर्वात
संघर्ष अनेक हैं
किन्तु संघर्ष अंतिम केवल एक है
मूर्त व अमूर्त का संघर्ष
क्या यह संघर्ष अपरिहार्य है?
क्या इसकी कोई परिणति है?
क्या इसकी परिणति में कोई संगति है?
क्या यही संगति ही सद्गति है?