तरुण विजय
बिनायक सेन को अदालत से मिली सजा पर मीडिया और अन्य क्षेत्रस्थ रोमांटिक क्रांतिकारी बेहद खफा हैं। वे कानून, व्यवस्था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्य इत्यादि की चर्चा करते हुए यह सिद्ध करना चाहते हैं कि अदालत का फैसला मूलभूत मानवाधिकारों के विरुद्ध है।
क्या बिनायक सेन के मामले पर हमें इस प्रस्थानबिंदु से विचार करना चाहिए कि उनकी विचारधारा से हमारी साम्यता है या नहीं? यदि है तो दोषी होने पर भी सजा के खिलाफ बोलेंगे और यदि नहीं है तो दोषी न होने पर भी सजा की मांग करेंगे। विडंबना है कि कमोबेश आज ऐसा ही होता दिख रहा है जिस कारण न्याय पर नारेबाजों का कोहरा छा गया है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के जनजातीय क्षेत्रों में अन्याय तथा अनाचार अधिक व्याप्त है। वहां कानून लागू नहीं होते। ज्यादातर दलों में अनुसूचित जातियां-जनजाति के लोग आलमारी में सजावटी वस्तु की तरह रखे जाते हैं। कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं कि शहरी तथाकथित उच्च जाति के चतुरों की संगत में जनजातीय नेता भी अपने ही समाज का शोषण करने वालों में अग्रणी हो जाते हैं और बाकी लोग इनके कंधों का इस्तेमाल कर करोड़ों की लूट करते हैं। मैं स्वयं जनजातीय क्षेत्र में पांच वर्ष वनवासी कल्याण आश्रम का पूर्वकालिक कार्यकर्ता रहा हूं। वहां का सारा सरकारी अमला, राजनीति, योजनाओं का चक्र केवल जनजातीय विकास की धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। फिर भी जितना ज्यादा बजट उतना ही ज्यादा जनजातीय-शोषण होता है। पुलिस, सरकारी अफसर, नेता, जनजातियों को उपयोगार्थ और उपभोगार्थ वस्तु समझते हैं। शिकायत कहीं होती नहीं। होती है तो निवारण कोसों दूर। बांध बनते हैं, तब विस्थापन, खानों की खुदाई होती है, तब विस्थापन। विस्थापन के बाद पुनर्वसन तोड़ देता है। तो क्या करें? गुस्सा तो आता ही है। तो बंदूक उठा लें? राहगीरों के रास्ते में बारूदी सुरंग बिछाएं? निहत्थे ग्रामीणों का कत्लेआम करें? फैशनेबुल स्कार्फ और न्यूयॉर्क टाइम्स के फोटोग्राफर से लदे शोषण-भूमि में घूमें और अपनी “इमेज पॉलिश” करें?
बेईमानी से बौद्धिक संघर्ष नहीं हो सकता। नारेबाजी हो सकती है। कुछ पुरस्कार बटोरे जा सकते हैं, पर समाधान नहीं निकल सकता।
बिनायक सेन जिन लोगों के साथ हैं और जो लोग विनायक सेन के साथ हैं, उनमें बौद्धिक ईमानदारी तथा मानवीय अधिकारों के प्रति संबद्धता का पारदर्शी पुुट कितना है? वे लोकतंत्र और मानवाधिकारों को कुचलते हुए हिंसा का समर्थन करते हैं। वे भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए संविधान के आदेश से तैनात सरकारी सुरक्षाकर्मियों की हत्याएं करते हैं। वे शोषण के खिलाफ कथित संघर्ष को खूनी जामा पहनाते हैं और जनजातीय ग्रामीणों के घर जाकर उनके १५-१६ साल के बेटे-बेटियों को बंदूक की नोक पर अपनी गुरिल्ला फौज में भर्ती होने की मांग करते हैं। जिनके माता-पिता मना कर दें, उनकी चौपाल में कसाई के छुरों से तड़पा-तड़पा कर हत्या करते हैं कि आसपास दहशत फैले और कोई अन्य मना करने का साहस न कर सके। वे अपने यहां भर्ती स्त्री “गुरिल्लाओं” का यौन शोषण करते हैं-कंगारू अदालतों से “न्याय” बांटते हैं जो सरकारी अदालतों की वेदना से भी ज्यादा पीड़ा देती है।
ऐसे लोगों को वैचारिक बारूद देने वाले हैं डॉ. बिनायक, जिनके समर्थन में वे लोग सड़कों पर उतरे हैं, जिन्होंने देशद्रोहियों के समर्थन में आवाज उठाई है। अब जिस लोकतंत्र, संविधान और कानून को चिह्नित एवं निरर्थक कहते हुए वे बंदूक तथा रक्तपात जायज ठहराते हैं, आज उसी कानून का सहारा लेने पर वे शोर मचा रहे हैं। उनके लिए अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अर्थ है केवल मार्क्सवादियों की स्वतंत्रता और उसमें भी उन मार्क्सवादियों की, जो माओवादी हैं, लेनिनवादी हैं या कि कुल जमा हत्यारे हैं। उनका मार्क्सवाद कश्मीर में कानून पसंद, संविधान तथा तिरंगे के प्रति निष्ठा रखने वाले हिंदू-मुसलमानों का साथ नहीं देता बल्कि उन कट्टरपंथी तालिबानों और उनके गिलानी जैसे समर्थकों को ताकत देता है जो देशद्रोही कार्य करते हैं, तिरंगे को जलाते हैं, मंदिर तोड़ते हैं और हिंदुओं पर बर्बरता ढा कर नरसंहार को इस्लामी जेहाद का नाम देते हैं।
ये हैं वे जो डॉ. बिनायक के दर्द में हमें शामिल करना चाहते हैं। हमें फिर भी कोई आपत्ति नहीं होगी यदि कोई यह बता दे कि ऐसा क्यों होता है कि जब तक अदालत आपके पक्ष में फैसला न दे, ये “सेकुलर तालिबान” उसे न्याय नहीं मानते? अदालतें गलत, लोकतंत्र गलत, बस यही सही? इनसे बढ़कर सांप्रदायिक, असहिष्णु, अनुदार तथा संकीर्ण और कौन हो सकते हैं? जब इनकी परिस्थिति कठिन होती है तब इन्हें वे मूल्य याद आते हैं, जिनकी हत्या कर ये रोमांटिक क्रांतिकारी बनते हैं। अन्याय के विरुद्ध बिनायक की मंशा के प्रति मेरी सहानुभूति हो सकती है। ठीक है कि अन्याय का विरोध होना चाहिए। शोषण के विरुद्ध साहूकारों, अफसरों और नेताओं के विरुद्ध जमकर संघर्ष करना चाहिए। न मीडिया, न सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग शोषकों के साथ खड़े होते हैं। लेकिन क्या उसका तरीका वह हो जो बिनायक सेन का है? अगर कश्मीर के तालिबान एक डिस्पेंसरी भी खोल दें और नशाबंदी अभियान चलाएं तो उसके परदे में उनका आतंकवाद तथा उनकी हिंसा को जायज ठहराया जा सकता है।
बिनायक सेन के बारे में अदालती फैसले पर शोर मचाने वाले और हैं। हो सकता है, आपत्ति के पीछे कुछ तर्क भी हों, क्या प्रज्ञा ठाकुर के विरुद्ध गैरकानूनी जुल्म तथा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर भी कुछ कहना चाहेंगे?(Nai Dunia)
उफ़… कमीनिस्ट कौम!!!
पहचान उनकी होनी चाहिये जिन्होंने आदिवासियों के हाथों में बन्दूक दी है… चाहे वे कोई से भी “वादी” हों… इनके तमाम दावों के बावजूद आदिवासी फ़िर भी लुट-पिट ही रहा है…पहले सरकार लूटती थी, अब ये…
आश्चर्य इस बात का नहीं है कि जिन लोगों के विषय में आप बात कर रहे हैं उन्होंने न्यायालय के विरुद्ध ऊंची अदालत के अलावा सड़क का रास्ता भी पकड़ा है, आश्चर्य यह है कि इसमें उन्होंने अभी तक छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार या फिर ‘सर्वव्यापी’ हिन्दू ताकतों का हाथ नहीं देखा ! …जब विचारधारा का आधार चिरकालीन संघर्ष हो तो समाधान किसे चाहिए ! इतने दशकों से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष परन्तु जमीनी वास्तविकता में पूर्णतया जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति में लिप्त केन्द्रीय सत्ताधीशों द्वारा देश चलाने और अधोगति की और ढकेलने पर भी सारा दोष किसी और पर मढ़ने वालों को अभी शान्ति कहाँ ?